जगत को अपनी रूपवती बेटी की बड़ी चिंता लगी रहती है। जहाँ भी वह जाती जगत एक बॉडी गार्ड की तरह उसके साथ रहता है। उसने पत्नी से अपनी चिंता जताई, ” देख धनिया ! अपनी रूपा अब जवान हो गई है। वह रंगरूप में तेरे से भी दस कदम आगे है। ऊपर से उसकी दिलेरी ने मेरी नींद ही उड़ा दी है। “
धनिया बोली, ” हाँजी ! तुम तो पानवाले रमवा से उसके फेरे करवादो। कितनी बार मांग चुका है हमारी बेटी का हाथ। अच्छा खाता पीता घर भी है। “
और रूपा बन गई रमवा की दुल्हनिया। वह तो निहाल ही हो गया। रूपा थी भी इतनी सुंदर… लम्बी, गोरी, कजरारी हिरनी सी आँखें और कमर तक लटकते बाल। और ऊपर से गदरायी देह। जो भी देखता रमवा की किस्मत से ईर्ष्या करने लगता। अब वह सारा दिन अपनी नई नवेली बीबी के आस पास ही बना रहता। वह दुकान पर भी कम जाने लगा। जवानी के ख़ुमार में नशे की भी लत लग गई। दिन भर रूपा के आगोश में पड़ा रहता।
दुकान बंद रहने से रूपा के लिए गृहस्थी चलाना मुश्किल ही हो गया। दो जून की दाल रोटी तो चाहिए ही। पेट की आग बुझाने के लिए रूपा दुकान सम्भालने लगी।
घर व बाहर के काम करते हुए वह थक कर निढाल पड़ जाती। पान तो खूब बिकते पर उसके ओठों की सुर्खी के कई दीवाने हो गए।
वह जब तब रमवा को उलाहने देने से नहीं चूकती। उसकी शिकायतें सुनकर रमवा समझाता, ” क्या हुआ ? तेरी तारीफ़ ही करते हैं। अपना काम चल रहा है, ये क्या कम है। “
ऐसे में कई मनचलों की गंदी नज़र रूपा पर पड़ने लगी। कस्बे के सेठ ने मौका देख रमवा से रूपा का सौदा करना चाहा। कुछ नानुकूर कर वह मान गया। उसने सोचा एक दिन के पाँच हज़ार घर बैठे मुफ़्त में मिल जाएंगे।
रमवा बहाना बनाता है, “देख रूपा ! आज तू खूब सज सँवर कर घर पर ही रहना। आज से दुकान मैं संभालूंगा। मैं शाम को तेरे लिए पान का बीड़ा लेकर आता हूँ।”
भोलीभाली रूपा खुश हो जाती है। वह जल्दी से जगत की पसन्द का खाना बनाती है। हाँ, हलवा बनाना नहीं भूलती है। फिर खूब अच्छे से तैयार होकर रमवा की राह देखती है। मोगरे का गजरा लगाना नहीं भूलती। वह मन्नत मानते हुए देवी माँ की आरती करती है, “है माँ ! मेरे रमवा को एक जिम्मेदार पति बना देना। देखना मैं
इस बार नौराता में कन्या जिमाऊंगी।”
दरवाज़ा खुला रखकर वह गुनगनाने लगती है, “मोरी अटरिया पे कागा डोले मोरा जिया बोले कोई आ रहा है…।”
यकायक सेठ दरवाजा ठेलकर अंदर आ रूपा को बाहों में भर चूमने लगता है। वह कहता है, ” पूरे पाँच हज़ार वसूल करूँगा मेरी जान। “
रूपा माज़रा समझकर शेरनी बन जाती है। वह हाथों व लातों से मारती हुए सेठ को बाहर का रास्ता दिखा देती है।
तभी रमवा गुस्से से भरा हुआ आता है।
वह गालियाँ देते हुए मारने लगता है, ” तेरा क्या जाता, मेरे जैसा ही मर्द था वह सेठ भी। “
रूपा चण्डिका बनकर कोने में रखा हँसिया उठा लेती है। वह वार पर वार करते हुए चिल्लाती है, ” क्या बोला ? तेरे जैसा ही मर्द है वो सेठ। अरे ! तू तो नामर्द निकला। तेरे जैसे मर्द से मैं अकेली ही भली। ”
बदहवास मारते हुए वह अपनी माँग का सिंदूर पोछ लेती है।
#विरोध
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित