सोहनलाल एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे बैठे, अपने जीवन के बिताए 75 वर्षों की स्मृतियों में गोता लगा रहे थे। पत्नी सुशीला के स्वर्गवास के उपरांत बेटे बहू के द्वारा उपेक्षा, अनादर मिलना उनके अंतर्मन को कचोट रहा था। कितना निस्सहाय महसूस कर रहे थे… पूरी जमीन जायदाद बेटों के नाम कर दी, पत्नी के गुजरने के बाद सोचा बेटे बहु ही मेरे लिए सब कुछ है,अभी तक अपनी जीवन की सारी कमाई अपने बेटों पर लगा दी, आगे यही मेरे बुढ़ापे की लाठी बनेंगे,मेरा सहारा बनेंगे।
बड़ा नाज़ था अपने बेटों पर।
परंतु यह क्या?? जमीन जायदाद मिलने के उपरांत बेटों ने अपने पिता को घर निकाला दे दिया। सोहनलाल सोच रहे थे, मैंने सब कुछ तो दे दिया, लेकिन बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाया। उनका मन द्रवित हो उठा आंखों से अश्रुधार बह रही थी।
आंखों के सामने पुरानी स्मृतियां चलचित्र की भांति उभर रही थीं।
एक बार तो मन में विचार आया कि वह अपने जीवन का अंत कर लें, परंतु…
अचानक एक प्यारा सा संबोधन उनके कानों में गूंज गया… दादाजी! सिर उठाकर देखा एक 18 साल की लड़की उनसे आकर बोली…
“मैं कल शाम से आपको देख रही हूं, आप यहीं बैठे हैं, क्या हुआ दादा जी??
उस बच्ची की आवाज़ से सोहनलाल की तंद्रा टूटी।
सोहनलाल की करुणा भरी निगाहें बस उस बच्ची को निहारे जा रही थी।
उन्होंने धीरे से पूछा- बेटा क्या नाम है तुम्हारा?
….डाॅली
थोड़ी देर बात करने के बाद उन्होंने डॉली को अपनी आपबीती सुनाई।
वह तुरंत बोल उठी, आप मेरे घर चलिए, मेरा इस दुनिया में कोई नहीं, आपको दादा के रूप में पाकर मुझे बहुत खुशी हुई….चलिए ना दादा जी मना मत कीजिएगा, आपको मेरी सौगंध …बहुत मना करने के बाद, जब डॉली नहीं मानी, सोहनलाल डॉली के पीछे पीछे उसके घर को चल दिए।
वह मन ही मन सोच रहे थे, कि खून के रिश्तो ने इस बुढ़ापे में उसको ठुकरा दिया,जिनसे उन्होंने सहारे की आस लगाई थी।
आज एक अनजाने रिश्ते में कितना प्यार अपनत्व मिला मुझे… उस बेटी के द्वारा दिए सहारे के लिए वह मन से दुआएं दे रहे थे।
स्वरचित मौलिक
अमिता गुप्ता “नव्या”
कानपुर, उत्तर प्रदेश