एक पुरवैया.. मायके की…. – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

हर औरत में वो कितनी भी बड़ी हो जाये एक बच्ची जिन्दा रहती हैं। जो अपने मायके के घर आँगन में आ अपना बचपना खोजती हैं… पिता का प्यार ढूढ़ती हैंमाँ की डांट और भाई की छेड़खानी। प्यार सब करते पर अंदाज जुदा-जुदा हैं। ऐसे ही इस बार जब जुही आई तो घर के हर कोने-कोने को देखती माँ ने पूछा भी.. क्या देख रही बेटू…

कुछ नहीं माँ… कह एक मुस्कान दिखा देतीं। माँ को भी समझ में आ रहा जुही घर के हर कोने में अपना वजूद ढूढ़ रही। कितना भी सब कह ले तुम्हारा वजूद तो दिल में हैं। पर औरतों के दिल में छुपी बच्ची यक़ीन नहीं कर पाती।जुही भी अपने बचपन की लिखी कोई चिट्ठी या पुरानी कॉपी या पुराने कार्ड्स देख खुश हो जाती। हो सकता हैं.. पुराने कॉइंस डाक टिकट्स या कार्ड्स सबकी  नजरों में कचरा हो

पर हर इंसान की यादों..ये दौलत होती हैं जिसमें उसका बचपना छुपा होता। जिसे वो जीवन की हर अवस्था में जी लेना चाहता हैं।

                         जुही भी हर चीज को छू कर महसूस कर लेना चाहती… गर्मियों की छुट्टी का ये थोड़ा समयउसे अपना बचपन जी लेने का मौका देता हैं।भाई की छेड़खानी का मजा लेते कभी गुस्सा होती तो कभी हँसती। माँ-पापा भी दोनों की छेड़खानी का मजा ले मंद-मंद मुस्कुराते… आखिर उनके घर की रौनक जो लौट आती हैं जुही के आने से।

                   इस बार जुही ने तय किया था वो एक-दो महीने मायके में बितायेगी। सुबह से शुरू बच्चों की शरारतें घर को मुखरित रखती। माँ संग कॉफी पीना जुही का पसंदीदा शगल था। रात सबके सो जाने के बाद दोनों.. नीबू की मसालेदार चाय ले अपनी गपशप में कभी रात के एक बजते कभी दो बजते पर माँ-बेटी की बातें ख़त्म ही नहीं होती। सुबह दोनों को डांट पड़ती.. इतनी रात तक जागने के लिए…. पर हर रात… नीबू की चाय फिर बन जाती…।

                       रसोई में उर्मिला जी खाना बना रही थी… तभी जुही चीखती आई.. ये देखो माँ… मेरी बचपन की गुड़िया…. एक जीती जगती गुड़िया की माँ… अपने बचपन की गुड़िया देख किस कदर उत्साहित थी.. देख उर्मिला जी की आँखों में आँसू आ गए… और यादों की पुरवैया ले गई गांव के एक बड़े घर में जहाँ लाल साड़ी में लिपटी किशोर लड़की रो रही.. नहीं बाबूजी हम आपको और अपने इस घर को छोड़ कर नहीं जायेंगे। ये मेरा घर हैं। बाबूजी के ये कहने पर…हाँ तेरा घर हैं लाड़ो तेरा जब मन करें आना। लाड़ो समझ ना पाई जब मेरा घर हैं और मेरा मन नहीं…

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फिर क्यों उसे नितांत अजनबी घर में भेजा जा रहा। अपने प्रश्न का उत्तर खोजते कब ससुराल पहुँच गई . पता ही नहीं चला… किशोर से प्रौढ़ा हो गई…. पर आज तक ये प्रश्न प्रश्न ही  रह गया।उसके उस घर में उसका कुछ भी सामान नहीं रहा पर यादों के अनगिनत किस्से रह गए थे। वो माँ-बाबूजी जैसी नहीं बनेगी… इसीलिए वो जुही के हर सामान को संभाल कर रखती थी.. जो उसका खो गया… बेटी का नहीं खोने देगी।.. अस्तित्व… हाँ यहीं जो किसी लड़की के वजूद की पहचान कराती हैं।

                   कहाँ खो गई माँ… जुही के पूछते ही सर झटक उर्मिला जी बोली कहीं नहीं बेटू। शायद हर औरत मायके अपने बचपने को जीने आती है…प्यार और बचपने की यादों संग लौट जाती… उसे कुछ नहीं चाहिए होता…. बस माँ पापा और भाई-बहन के संग थोड़े पल। उनकी यादों की पोटली साल दर साल बढ़ती जाती। बालों की सफेदी  या चेहरे की झुर्रियां…कितना भी जताये .. तेरी उम्र बढ़ रही… पर मायके के नाम से ही दिल का बच्चा बाहर आ जाता… होठों की लुभावनी हँसी और आँखों के कोर पर अटके दो आँसू …. राज खोल ही देते।

                    पिछले साल दिवाली की सफाई पर बहुत सारे बच्चों के सामान मिले जिसे सबके कहने के बावजूद उसने नहीं फेंका… वहीं आज जुही की खुशी का कारण बन गया… शाम भाई के संग पुराने पिटारे को खोलती जुही को देख उर्मिला जी का मन तृप्त हो गया।जब तक जिन्दा रहूंगी… जुही का बचपना जिन्दा रहेगा।

                      –=संगीता त्रिपाठी

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