देवार्चन की समझ में नहीं आ रहा था कि उसने जो किया है वह गलत है या सही। कुछ लोग उसके इस कार्य के लिये उसे पापी और विधर्मी भी कह सकते हैं लेकिन उसके मन में कोई ग्लानि या अपराध बोध नहीं है बल्कि उसके मन में सन्तोष और तृप्ति का उजाला फैला है।
स्कूल से आते समय वह रोज रुक जाता था शकील की बस्ती के पास और देखा करता था शकील के छेनी चलाते हाथों को। साधारण पत्थर का टुकड़ा मानो शकील के हाथों का स्पर्श पाकर बोल उठता था। ऐसी जीवन्त मूर्तियॉ बनाता था शकील जैसे प्राणवान होकर चलने लगेगी।
देवार्चन के संभ्रान्त परिवार को बच्चे का उस बस्ती में जाना पसंद नहीं था। मम्मी अक्सर पापा से शिकायत करतीं – ” देबू को रोकिये उस गन्दी बस्ती में जाने से। मेरी तो सुनता ही नहीं है।”
पसंद तो उसके पापा को भी नहीं था लेकिन उन्होंने पता किया कि देवार्चन सिर्फ शकील के पास जाकर चुपचाप उसके पास बैठा रहता है तो उन्होंने उसकी मम्मी को समझाया – ” मुहल्ले के बच्चों की तरह शैतानियॉ करने से तो अच्छा ही है। शकील अच्छा आदमी है। देबू अभी बच्चा है जैसे जैसे पढाई का भार बढेगा, खुद ही नहीं जायेगा।”
शकील भी देवार्चन को देखकर खुश हो जाता और उसके बैठने के लिये एक छोटी सी चौकी रख देता। देवार्चन चुपचाप उसकी तल्लीनता को देखता रहता। कभी शकील से हठ करता – ” मुझे भी सिखा दो।”
शकील हॅस पड़ता और उसे टालने के लिये कह देता – ” अभी तुम बहुत छोटे हो, तुम्हारे हाथ में चोंट लग जायेगी। बड़े हो जाओगे तो सिखा दूॅगा।”
शकील कई दिनों से राधा कृष्ण की एक मूर्ति बना रहा था। देवार्चन स्कूल की छुट्टी के कारण तीन दिन बाद जब शकील के पास गया तो मूर्ति को देखकर दंग रह गया – ” चाचा, आपके हाथों में तो जादू है, कितनी सुन्दर मूर्ति है। क्या मैं इसे छूकर देख सकता हूॅ? आप तो रोज ही छूते हैं।”
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इतना सुनते ही शकील के अधरों पर एक दम तोड़ती मुस्कान आ&;गई – ” अभी इसे कोई भी छू सकता है क्योंकि अभी यह खुदा नहीं है। जब यह मन्दिर पहुॅच जायेगी तो खुदा हो जायेगी तब मैं इसे छूना तो दूर देख भी नहीं सकूॅगा।”
आठ साल का देवार्चन शकील की बात का मतलब नहीं समझ पाया – ” क्यों नहीं देख पायेंगे? आपने ही तो यह मूर्ति बनाई है।” शकील कुछ न बोला मुस्कराकर रह गया।
समय बीतने लगा। देवार्चन युवा होता गया और शकील बूढा। अब शकील से मूर्ति बनाने का काम नहीं होता था। शकील के बेटे आफताब ने उसी स्थान पर जनरल मर्चेंट की दुकान खोल ली।
पढाई और नौकरी के कारण देवार्चन अपने शहर से दूर चला गया लेकिन जब भी आता आफताब के पास जाकर शकील के हालचाल जरूर पूॅछ लेता।
इस बार आया तो आफताब ने बताया कि शकील को कैन्सर हो गया है और वह देवार्चन को याद कर रहा था। देवार्चन जब उससे मिलने गया तो कमजोर सा शकील तख्त पर लेटा हुआ था। उसे देखकर रो पड़ा –
” अब रुखसती का समय आ गया है देबू मियां।”
देवार्चन क्या कहकर उसे तसल्ली देता? थोड़ी देर बाद शकील ने अपने ऑसू पोंछे तो वह और शकील उस समय में वापस चले गये जब वह बच्चा था और अपने हमउम्र बच्चों की तरह खेलने कूदने की बजाय शकील को मूर्ति बनाते देखा करता था।
शकील ने देवार्चन से अपने तख्त के नीचे से एक पुराना बक्सा निकलवाया। उसमें से लुंगी के टुकड़े में लिपटी शिव पार्वती की मूर्ति देवार्चन को देते हुये कहा –
” सोंचा था कि तुम्हारे निकाह पर अपने हाथों की बनाई यह आखिरी मूर्ति तुम्हें नजराने के रूप में दूॅगा लेकिन अब मेरी रुखसती का परवाना आ चुका है। पता नहीं कि दुबारा तुमसे मिलना होगा या नहीं। इसे रख लो और मेरी ओर से अपनी दुल्हन को दे देना।”
देवार्चन हाथों में मूर्ति लिये देख रहा था। ऑखें दोनों की गीली थीं।
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अचानक शकील कहने लगा – ” तुम्हें याद है देबू मियां। मैंने राधा किशन की एक मूर्ति बनाई थी जो तुम्हें इतनी पसंद थी कि तुमने अपने पापा से उसे खरीदने की जिद मचा दी थी।”
” याद क्यों नहीं लेकिन मम्मी पापा ने कहा था कि इतनी बड़ी मूर्ति घर में नहीं रखी जातीं, मंदिर में ही रखी जाती है। उस मूर्ति को तो कभी मैं भूल ही नहीं पाया। मैं बच्चा था ज्यादा समझ नहीं थी लेकिन आज भी कह सकता हूॅ कि वह अद्भुत मूर्ति थी। राधा को निहारती श्याम की वह मुस्कराहट और राधा की नजरों में तो तुमने प्यार का समुद्र उड़ेल दिया था। प्राण डाल दिये थे उस मूर्ति में, मानो सजीव हो कर देख रहे हों एक दूसरे को। पता नहीं अब वह मूर्ति कहॉ होगी?”
” मैं भी उस मूर्ति को कभी भूल नहीं पाया। शायद मेरी बनाई मूर्तियों में वह सबसे सुंदर थी। मैं एक बार उसे देखना चाहता हूॅ। एक बार उसके कदमों में गिरकर सजदा करना चाहता हूॅ, उसकी कदमबोसी करना चाहता हूॅ। जबकि जानता हूॅ कि मेरी यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। मैं सारी जिन्दगी सोंचता रहा कि खूबसूरत कपड़ों और जेवरातों में सजधजकर किशन महाराज और राधा महारानी कैसी लगती होंगी? क्या मेरे हाथों बनाई मूर्ति में सचमुच खुदाई ताकत उतर आती है? मेरे मजहब में तो दुबारा जन्म लेने का विधान भी नहीं है, नहीं तो मन को तसल्ली दे लेता कि अगले जनम में देख लूॅगा।”
” लेकिन अब वह मूर्ति पता नहीं कहॉ होगी?”
” वह मूर्ति लखनऊ के चौक नाके के मन्दिर में है।” इतनी देर बोलने में शकील थक गया था, वह दुबारा तख्त पर लेट गया। देवार्चन निरुत्तर था। क्या कहता, चुपचाप लौट आया।
देवार्चन की दीवाली की छुट्टियॉ समाप्त हो गईं। जाने के पहले देवार्चन ने एक बार शकील से मिलने के लिये सोंचा क्योंकि पता नहीं अगली बार आने पर शकील मिलेगा या नहीं। इसलिये वह स्टेशन जाने के लिये घर से थोड़ा पहले ही निकल गया। रास्ते में आफताब की दुकान बन्द थी। शकील के घर पहुॅचकर देखा तो आफताब और उसकी बिरादरी के कुछ लोग बैठे थे। पता चला कि दीवाली के दिन शकील की मृत्यु हो गई थी।
देवार्चन को देखकर आफताब उसके पास आ गया, उसने देवार्चन के दोनों हाथों को चूमते हुये सिर और ऑखों से लगा लिया –
” भाईजान, मैं नहीं जानता कि आपके साथ अब्बा कहॉ गये थे लेकिन बचपन से आज तक मैंने उन्हें इतना खुश कभी नहीं देखा। बीमारी के कारण न जाने कब से उन्होंने ठीक से रोटी नहीं खाई थी। उस दिन आपके लौटने के बाद बेगम से अपनी पसंद का खाना बनवाया। मुझसे कहकर बाजार से भी खाने का बहुत सा सामान मंगवाया। मेरी बेगम पर्दे के कारण कभी अब्बू के सामने खाना नहीं खाती है लेकिन अब्बू ने उस दिन सबके साथ बैठकर खाना खाया। “
आफताब भरे गले से बताता जा रहा था – ” अब्बा बार बार कह रहे थे कि आज उन्होंने खुदा को भी देखा और उसके नूर को भी। खुशी में कुरान की आयतें दोहरा रहे थे और कह रहे थे कि अब उनका कोई अरमान अधूरा नहीं है। मैं अब्बू के पास ही सोता था लेकिन रात में कब वो जन्नतनशीं हो गये पता ही नहीं चला।”
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यह कहकर आफताब फूट फूटकर रोने लगा। देवार्चन ने बिना बोले आफताब के कन्धे पर हाथ रखा और उठकर चला आया।
वह स्टेशन आकर ट्रेन में बैठ गया लेकिन उसकी यादों में वह सब उभर आया जो उसने दीवाली के एक दिन पहले किया था।
जबसे देवार्चन ने शकील की इच्छा सुनी तबसे उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे एक मरते हुये व्यक्ति की इच्छा पूरी करे। कैसी विडम्बना है कि जिस व्यक्ति ने एक पत्थर के टुकड़े को मूर्ति बनाया, वह उसे छूना तो दूर उसे देख भी नहीं सकता क्योंकि अब वह पत्थर का टुकड़ा भगवान बन चुका है। आखिर देवार्चन ने एक अधर्म, एक पाप करने का निश्चय किया।
अपने मित्र से कार लेकर वह शकील के घर आ गया। आफताब से उसने कहा कि वह शकील को अपने एक परिचित डाक्टर को दिखाना चाहता है।
रास्ते में उसने शकील को अपने पिताजी का नाम और अपना गोत्र याद करवा दिया कि शायद जरूरत पड़ जाये। हालांकि इसके लिये शकील तैयार नहीं हो रहा था – ” खुदा के दरबार में झूठ ? रहने दो मैं नहीं जाऊॅगा।”
” खुदा के दरबार में न आप शकील हैं और न मैं देवार्चन। उसने हमें सिर्फ इंसान बनाकर भेजा था। हम कुछ गलत नहीं कर रहे। तुम्हारे हाथों ने ही एक पत्थर के टुकड़े को इस योग्य बनाया है कि वह आज भगवान बनकर आशीर्वाद दे रहा है। आप वहॉ पर कुछ न बोलना मैं सब सम्हाल लूॅगा। हो सकता है कि आपके राधा किशन भी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हों कि मेरा शकील मूर्ति से मुझे भगवान बना हुआ देखे।”
मंदिर के पास कार में ही शकील को बिठाकर वह पुजारी के पास गया और कहा कि वह और उसके चाचा अपने हाथों से राधा कृष्ण को माल्यार्पण करके पूजा अर्चना करना चाहते हैं। पहले तो पुजारी तैयार ही नहीं हो रहे थे लेकिन जब देवार्चन ने पॉच पॉच सौ के दो नोट उसके हाथ पर रखा तो वह राजी हो गये।
शकील को सहारा देकर देवार्चन ने जब मंदिर के अन्दर जाकर उसके हाथों से माल्यार्पण करवाया तो राधाकृष्ण को देखकर उसकी ऑखों से ऑसुओं की धार गिरने लगी। वह मूर्ति के चरणों में लिपटकर फूट फूटकर रो रहा था और अपने कॉपते हाथों से राधाकृष्ण को ऐसे टटोल रहा था जैसे बहुत दिन से बिछड़ी मॉ अपने बेटे को टटोलती है।
शकील की विह्वलता देखकर देवार्चन की ऑखें भी गीली हो गईं। पूरे रास्ते शकील चुप रहा लेकिन उसके चेहरे पर उसकी इच्छा पूर्ति का उजाला फैला था।
शकील को उसके घर छोड़कर जब देवार्चन लौटने लगा तो शकील से उसे अपनी कमजोर बॉहों में भर लिया – ” अगर मुसलमान न होता तो कहता कि तुम जरूर पिछले जनम में मेरे बेटे रहे होगे जो आज मेरी जिन्दगी भर का अधूरा अरमान पूरा कर दिया है। तुमने जो आज मेरे लिये किया है शायद कभी किसी ने किसी के लिये नहीं किया होगा। जब तलक जिन्दा रहूॅगा तुम्हें दुआ देता रहूॅगा। खुदा तुम्हारी हर मुराद पूरी करे। पाक परवरदिगार हमेशा तुम पर अपनी रहमत बरसाता रहे।”
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अचानक बहुत तेज शोर से देवार्चन चौंक गया। शायद कोई स्टेशन आया था। देवार्चन ने एक लम्बी सॉस ली। शायद शकील की सॉसें अपनी अन्तिम इच्छा पूर्ति के लिये ही रुकी थीं, तभी तो उसी रात वह प्रसन्न और तृप्त होकर अपने खुदा के पास चला गया।
देवार्चन के मन में न कोई अपराध बोध है और न ही कोई पछतावा। भले ही उसके इस कृत्य को पाप समझे या अधर्म लेकिन उसका मन सन्तोष से परिपूर्ण है।
समाप्त
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर