एक निर्णय ऐसा भी  – पूनम अरोड़ा

“आज सौजन्य  आ रहा है” —— प्रोफेसर गरिमा को उसके आने का इंतज़ार तो था ही, साथ ही इस बात की व्यग्रता भी कम नहीं  थी कि  वह उसके समक्ष अपने जीवन के इस नए अध्याय को कैसे अनावृत करेगी ——- जानने के बाद उसकी प्रतिक्रिया कैसी होगी—–  सबसे ज्यादा  महत्वपूर्ण  कि उसका निर्णय  क्या होगा?

बेशक यह उनकी ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण  पहलू था किन्तु इससे सम्बंधित निर्णय का अधिकार

उन्होंने  स्वतः ही सौजन्य को  दे दिया था।

उन्हें  याद आया कि पंद्रह वर्ष  पूर्व उन्हें भी एक कठोर निर्णय लेना पड़ा था जिससे उनकी ज़िन्दगी की दिशा ही बदल गई थी तब

“जब ज़िन्दगी  का स्वर्णिम समय होता है, किसी भी स्त्री के लिए जब गृहस्थी को बनाना,  सजाना, संवारना ही उद्देश्य होता है वैसे ही उनका जीवन भी घर गृहस्थी को पूर्णतयः  समर्पित  था। पति व बेटे के छोटे छोटे काम करना ही उनकी दिन भर की परिपूर्णता थी, पति की सफलता व कामयाबी ही उनकी स्वयं की उपलब्धि थी, व छोटे छोटे सपने साकार होते देखना ही उनका सैलिब्रेशन था।

किन्तु सुमित के “सपने छोटे नहीं थे न ही

उसकी खुशियाँ इतनी उदार” कि छोटी छोटी सफलताओं से संतुष्ट होतीं।

अधिक से अधिक धन कमाने की चाह व विदेश प्रवास  के प्रबल आकर्षण  ने उसे “एनायडा” के प्रति आकर्षित कर दिया जो अपने प्रोजेक्ट  के सिलसिले  में  लंदन से भारत आई थी व सुमित के ऑफिस में  उसी प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी। किसी विदेशी खूबसूरत लड़की  का साथ और अति महत्वाकांक्षा की प्रबलता ने सुमित को एनायडा  के करीब ला दिया।

एनायडा ने उसके “सपनों  में रंग” भरा और अपने साथ विदेश चलने का निमंत्रण  दे दिया।

फिर तो सुखी गृहस्थी, खूबसूरत पत्नी और मासूम सौजन्य, कोई भी उसका मोहभंग नहीं  कर सका। वह प्रोजेक्ट पर काम करने का बहाना करके और उनको जल्दी वहाँ  बुला लेने का आश्वासन देकर वह हमेशा  के लिए उनकी ज़िन्दगी  से चला गया।

पहले पहले रोज फोन आते फिर  दो तीन दिन के अंतराल  पर और फिर कभी पंद्रह बीस दिन या एक माह तक भी।

गरिमा सब समझ रही थी, आशंकित भी थी किन्तु उसका मन यह मानने को बिल्कुल  तैयार  नहीं  था कि सुमित उसका परित्याग  कर सकता है।




दो साल बाद आया सुमित तो गरिमा की वेदना,  संवेदनाएं  फूट पड़ी। मन आवेशित, आक्रोशित  होकर जैसे सारी शिकायतों, उलाहनाओं का हिसाब करना चाहता था।

उन कसकते पलों का भुगतान माँगना चाहता था जो कि तन्हाईयों से अभिशप्त, आँसुओं  से सिक्त होकर हर बार मन को और ज्यादा बिखेर देते और ज्यादा क्षीण  विदीर्ण कर देते थे।

लेकिन उसने तो यह सब सुनने समझने से पहले ही गरिमा को  यह कहकर अप्रत्याशित  रूप से सदमे की स्थिति में ही पहुँचा दिया कि

“परिस्थितियों के विवश हो कर व ग्रीन कार्ड लेने के लिए मुझे एनायडा से शादी करनी पड़ी और अब मैं उसे छोड़ नहीं सकता।”

ऐसा कहकर डाइवोर्स पेपर उसके सामने रख दिए।

विक्षिप्त  की भाँति गरिमा उसे देखती ही  रह गई और — अहं की चोट और स्वाभिमान  पर ऐसे  घातक प्रहार से तड़प के पता नहीं  किस क्षण उसने एक झटके में  पेपर पर हस्ताक्षर  कर दिए।

अगर वो चाहती तो कोर्ट  में  मुकदमा कर हक के लिए लड़ सकती थी लेकिन उनके आत्माभिमान ने उन्हें  ऐसा नहीं करने दिया।

“जो चीज अपनी नहीं  उसे प्राप्त करने के लिए कैसी लड़ाई  और उसे प्राप्त करके कैसी  खुशी ?”

यही सोचकर —-

उसने वर्षों  के बंधन को मुक्त करने में  एक मिनट भी नहीं  लगाया।

स्वावलंबी तो वो थी ही अतः सौजन्य की परवरिश व अपनी आजीविका के लिए कोई  विशेष प्रयत्न नहीं  करना पड़ा किन्तु “परित्यक्ता होने का दर्द व अकेलेपन  की पीड़ा” की वजह से डिप्रेशन उन पर हावी होता चला गया।




इस मनोस्थति की वजह से वो न तो स्वयं के साथ न्याय कर पा रही थी, न ही सौजन्य को परितृप्त  मातृत्व का  एहसास करा पा रही थी और ना ही अपनी शैक्षणिक कार्यान्वयन  का सुचारू रूप से  निर्वहन कर पा रही थीं।

तब उनके ऐसे समय में उनकी मनोदशा को समझकर, उनके साथ मित्रवत बातचीत कर, उनकी  संवेदनाओं  पर  सौहार्दपूर्ण अपनेपन का मरहम लगाने का काम प्रोफेसर  सिन्हा ने  किया। प्रोफेसर सिन्हा उन्हीं के काॅलेज में  उनके साथी थे। उन दोनों के विषय भी एक समान और रूचियाँ  भी एक जैसी होने के कारण दोनों  में  पहले से ही अच्छा सामंजस्य  था इसलिए वे उनके दर्द, उनकी वेदना को महसूस कर पाते थे। वह बीच बीच में उनकी काउन्सलिंग कर उन्हें डिप्रेशन से बाहर निकालने का यथोचित प्रयास करते रहते।

उनके इन्हीं  कोशिशों के कुछ सकारात्मक  परिणाम दिखने भी लगे थे। जीवन के प्रति,  सौजन्य के प्रति उनका व्यवहार अब कुछ  बेहतर हो रहा था।

प्रोफेसर सिन्हा और उनके सम्बन्ध तो तब भी आत्मीय और मधुर थे जब उनकी पत्नी जीवित थी। दोनों  परिवारों  का एक दूसरे के घर आना जाना लेन देन भी चलता था।

लेकिन दो वर्ष  पूर्व उनकी पत्नी के निधन के पश्चात  और अब इकलौती बेटी के विवाह के उपरांत  वे नितांत अकेले हो गए थे तो अब तो उनका “दर्द”  भी एक ही था जिसके कारण दोनों  के बीच एक अनकहा एक अनाम रिश्ता पनप गया था जिसे वे दोनों  ही महसूस  कर रहे थे और मन ही मन इसे  “मौन स्वीकृति”  भी दे चुके थे।

और फिर एक दिन उन्होंने अपने रिश्ते को प्रत्यक्ष रूप देने के लिए उनके समक्ष “परिणय”  का प्रस्ताव रख दिया।

चाहती तो  वे भी यही थी लेकिन इस उम्र  में  यह कदम उठाने से समाज क्या सोचेगा, सौजन्य पर क्या असर पड़ेगा, नातेदार सम्बंधी  क्या इसे मान्यता देंगे ?

यही सब  सोचकर वे उन्हें  कोई उत्तर नहीं  दे पाई।

“थकी हुई देह और तृषित मन” अब किन्ही मज़बूत कंधो का सहारा चाहते थे किंतु  दुविधाग्रस्त मन किसी निर्णय  पर नहीं  पहुँच पा रहा था।

अंत में  सब कुछ सौजन्य के निर्णय पर छोड़  दिया कि अब उसी की स्वीकृति  या अस्वीकृति  ही इस रिश्ते की परिणति  तय करेगी।




सौजन्य पूना के एक प्रतिष्ठित  संस्थान से

MBA कर रहा था और आज वो आ रहा था ——–

आखिर सौजन्य  अपने नियत समय पर आ ही गया।

कुशलक्षेम, औपचारिक  वार्तालाप  और सूचनाओं  के आदान प्रदान के पश्चात रात के भोजन  के उपरांत  उन्होंने  भूमिका  बाँधनी शुरू की। उन्होंने  कहा —-

“प्रोफेसर  सिन्हा  अपनी पत्नी  के निधन और बेटी के विवाह के उपरांत  बहुत  तन्हा  हो गए हैं  । इस समय उन्हें  एक साथी की जरूरत है जो दुख सुख में  उनका साथ दे , अकेलेपन में  उनका सहारा बने—,इसलिए वे फिर से विवाह करना चाह रहे  हैं किंतु  समाज से डरते हैं ।

यह सुनकर सौजन्य  ने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया  जाहिर की।

“आप पढ़े  लिखे लोग भी अगर रूढ़िवादी समाज के नियमों  का बहिष्कार  करने की बजाय उसके शासित हो जाएँगे तो समाज का विकास कैसे होगा? “बदलाव” समाज  के विकास के लिए आवश्यक  है। जब भी बदलाव होते हैं  समाज का एक बड़ा वर्ग  सामूहिक  रूप से विरोध करता है किंतु तब भी बदलाव होते हैं और उसी से समाज की प्रगति होती है ।

फिर  वही  विरोध करने वाले स्वयं को “प्रगतिशील  समाज”  का अंग मानकर गर्व करते हैं ।

जो समाज  प्रोफेसर  साहब के अकेलेपन  को दूर नहीं  कर सकता,बीमार हो जाने पर उनकी सेवा नहीं  कर सकत–,उस समाज से कैसा भय?

सौजन्य  ने तो “सामाजिकता”  पर अच्छा  खासा व्याख्यान  ही दे डाला था।

उसकी इन बातों  से  गरिमा को यह आभास तो हो गया था कि उसे उम्र  के इस पड़ाव पर पुनर्विवाह  कर लेने से कोई  आपत्ति  नहीं   होगी।




तब  धड़कते मन से साहस बटोर कर उन्होंने  आखिर कह ही दिया कि “प्रोफेसर सिन्हा  मुझसे ही विवाह करना चाहते हैं और मैं  स्वयं भी यही चाहती हूँ  कि कोई  हो जिसके सहारे  मैं  स्वयं को छोड़ कर  निश्चिन्त  हो सकूँ ।”

यह कहकर सौजन्य  की प्रतिक्रिया जानने की प्रतीक्षा  करने लगीं ।उन्होंने  फिर कहा “अभी तुम दो चार दिन यहाँ  हो सोच समझ लो, हम दोनों  तुम्हारी  स्वीकृति  के बगैर कोई  निर्णय  नहीं  लेगें ।”

यह कहकर उसे मंथन चिंतन के लिए छोड़ कर गरिमा अपने कमरे में  चली गई ।

दो  तीन दिन घर में  सन्नाटा  पसरा रहा। दोनों  ही एक दूसरे से नजरें  नहीं  मिला पा रहे  थे।

सौजन्य  के हाव भाव से कुछ स्पष्ट  अभिव्यक्ति  नहीं  हो रही थी । न ही वो नाराज़  लग रहा था न ही खुश और न ही इस विषय पर उसने कोई  बात  की। गरिमा भी पुनः इस संदर्भ  में  बात करने का साहस नहीं  जुटा पाई जबकि  वो चाहती  थी कि जाने से पहले एक बार वो अपने विचार अपना पक्ष स्पष्ट  कर दे।

इसी असमंजस,  कशमकश में  तीन  चार दिन निकल गए । कल  सौजन्य  को वापिस जाना था। गरिमा उसके जाने की तैयारी  के साथ साथ मन ही मन उसके “अनचाहे या मनचाहे” उत्तर  के लिए खुद को  मानसिक  रूप से तैयार  कर रही थी । “मन बैचेन , दिमाग तनाव  में  और  स्वयं अव्यवस्थित  थीं ।”

अगले दिन सौजन्य  के जाने के समय उन्होंने  उसके लिए बनाईं  पिन्नियाँ और मट्ठियाँ दीं।

उसने वो लेकर अपने बैग में  रख लीं और एक लिफाफा गरिमा  के हाथ में  दे कर चला गया।

“काँपते हाथों  और धड़कते  दिल” के साथ गरिमा ने वो लिफाफा खोला, उसमें  लिखा था

“डियर माॅम —हम सोचते हैं  कि आधुनिक  विचारधारा वाले, ऊँची सोच वाले,  सभ्य आभिजात्य वर्ग  का हिस्सा  हैं ।बड़ी  बड़ी, आदर्श  और प्रगतिवादी  बातें  करके स्वयं  को आधुनिक  सोच का मानकर बहुत  गर्वित होतें हैं –जैसे कि प्रोफेसर  सिन्हा  के बारे में  मैंने  अपना वक्तव्य  दिया था किन्तु जब वही प्रश्न  आपके सन्दर्भ  में  आया तो सच कहूँ  मैं  भी कुछ समय के लिए उसी संकीर्ण  समाज की तरह ही उचित  अनुचित  सोचने लगा था।




जिस समाज  की परवाह न करने का व्याख्यान  आपको दे रहा था, मैं  स्वयं भी उसी भीड़  का हिस्सा  बन गया था लेकिन  फिर अपनी  संकुचित  सोच  से बाहर निकल कर मैंने  आपके बारे में  सोचा कि जो निर्णय  आप अभी ले रहीं  हैं  वो आप तब भी ले सकतीं  थीं जब आप जीवन की राह में  बिल्कुल  अकेली पड़ गई  थीं । इतना लम्बा  ,तन्हा ,नीरस जीवन आपने सिर्फ इसलिए  अकेले काट दिया कि

मेरी परवरिश  पर आपके दूसरे विवाह का असर न पड़े, मेरे प्रति आपका प्यार बँट न जाए और मेरे अधिकारों  पर किसी और का अधिकार  न हो।

आज जब आपको एक साथी, एक हमदर्द  की जरूरत  है,अपने जीवन का कुछ समय अपने लिए ,अपने मन की खुशी के अनुसार   जीना चाहती हैं  तो “समाज  के भय से या सिर्फ अपना अधिकार  जताने” के लिए मैं  आपकी खुशी में  बाधक कैसे बन सकता हूँ?

आज भी आपने अपना बड़प्पन प्रदर्शित  करते हुए इस निर्णय  का अधिकार  मुझे  दिया है।

मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं  आपके आगामी सुखद भविष्य  के लिए एक सकारात्मक  निर्णय  ले सका हूँ । आपने अपने “मातृत्व की जिम्मेदारी” को गौरवान्वित करते हुए अपनी सारी जिन्दगी को खुशियों से महरूम बेरंग  रखा ।
अब एक “बेटे का फर्ज  है ,बारी है ,जिम्मेदारी”  है अपनी माँ  के जीवन में  रंग भरने की—-

प्रोफेसर  सिन्हा  और आपको मेरी तरफ से बहुत  शुभकामनाएँ   

#जिम्मेदारी 

शुभकामनाओं  सहित —

आपका सौजन्य

पूनम अरोड़ा—–

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