मैं अठयासी साल में चल रहा हूं,
अपने बेटी के साथ ही रहता हूं,
बेटे बहू ने बहुत साल पहले ही हमसे पल्ला झाड़ लिया था, मुझे और मेरी पत्नी को दस दिन रखने के बाद गाड़ी करके गांव भिजवा दिया था कि मेरे घर में आप लोगों के लिए जगह नहीं है,, मैं इस पागल को अपने घर में नहीं रख सकता,, पत्नी भी कई साल पहले मुझे अकेला छोड़ कर चली गई,,
बेटी ही ले आई,,अब जहां जहां जाती है, मुझे भी पीछे पीछे जाना पड़ता है,,अभी तक मैं बिल्कुल ठीक था,अपना काम खुद करना, बाजार जाना, बेटी कुछ दिनों के लिए कहीं चली जाती है तो स्वयं खाना,चाय वगैरह बना लेता हूं,पर पता नहीं, एक महीने से मैं धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा हूं,,हाथ पैर काम नहीं कर रहे हैं,बस अशक्त, निढाल होकर बिस्तर पर पड़ा रहता हूं,
, मैंने परसों अखबार में छपी एक कहानी पढ़ी,, एक छियासी साल के पिता को उनके बेटे बहू ने स्टोर रूम में खाट डाल कर उनको वहीं रख दिया,बेचारे सामानों के बीच में खुद एक सजीव सामान बन गये थे,, स्टोर रूम में तो वैसे भी कबाड़, बेकार सामान ही ठूंसा रहता है,
उस कमरे में कोई आता जाता नहीं,बस नौकर खाना पीना रख देता है,वो अपने जीवन के आखिरी दिन गिनते रोते पड़े रहते हैं,, कहानी पढ़ कर मैं भी सोच में पड़ गया,, बिट्टी ने मुझे अभी सालों से ड्राइंग रूम में ही रखा था, वहीं पर मेरे लिए टीवी, लैपटॉप, कल्याण, अखंड ज्योति पुस्तकें और सौ दो सौ सीडी डीवीडी सब करीने से रखे हैं,
कुछ दिनों से मेरे शौचालय में खट पट की बहुत आवाजें सुनाई दे रही थी, मैंने झांक कर देखा तो पता चला कि उसमें मेरे लिए कमोड बिठाया जा रहा है,मैं अब नीचे नहीं बैठ सकता,पूरा बाथरूम चकाचक नया बन गया है,, मैं बहुत खुश हुआ,पर ये क्या, बिट्टी किसी से कह रही थी
,कि बाबू जी को इस कमरे से बाथरूम बहुत दूर पड़ता है, तो इसको पास वाले कमरे में रखना है,, यह सुनकर मैं सन्न रह गया,हे भगवान, क्या मुझे भी स्टोर रूम में शिफ्ट किया जाएगा, क्यों नहीं,अब तो मैं भी एक निक्कमा कबाड़ बन चुका हूं, एक कोने में फेंक दिया जाऊंगा,,
सोच सोच कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे,बस मैं चुपचाप अपनी किस्मत को कोसता हुआ पड़ा रहा,,मेरा बिस्तर लग चुका था, मुझे उठाया गया और ये क्या, सामने भगवान के बड़े से कमरे में
जहां डाइनिंग टेबल भी था, उसमें मेरी सारी व्यवस्था कर दी गई थी,
टीवी के साथ मेरा सब सामान व्यवस्थित रूप से सज़ा दिया गया था,ये तो बहुत बढ़िया हो गया, वो पूरा खुला हुआ कमरा है, भगवान सामने, पूजा के लिए कुर्सी रखी थी,वो आने जाने का रास्ता भी था, तो सब आते जाते रहते और मैं सबको देखता रहता, कम बोल पाता हूं,पर सबको देखकर संतुष्टि मिलती है,,सब मुझसे हाल चाल भी पूछतें हैं, मैं बेकार ही कहानी पढ़ कर उनसे अपनी तुलना करके दुखी हो रहा था,
,सब बेटी ने सुख दे दिया, बहुत ख्याल रखती है,हर पल उसकी नज़र मुझ पर रहती है,पर पता नहीं मन क्यों भटक रहा है, चैन क्यों नहीं पड़ता,, जैसे ही बाहर से कोई घंटी बजाता है,ना जाने कहां से फुर्ती आ जाती है और मैं बिस्तर से उठ कर बरामदें में जाने लगता हूं , कहीं वो तो नहीं, शायद
बाबू जी की याद आ गई हो, मिलने आ गया हो, बेटी दौड़ कर आती है,, कहां बाबू जी, कहां चल दिए,, नहीं, बेटा,वो घंटी बजी
,शायद दरवाजे पर कोई है,
हां तो बाबू जी, मैं हूं, सीमा यहीं पर झाड़ू पोंछा कर रही है, आप क्यों उठते हैं, गिर पड़ते हैं, फिर क्यों, ऐसा करते हैं,,
, बेटी को क्या बताऊं कि मैं किसका इंतजार कर रहा हूं,
मन के एक कोने में आस लगाए बैठा हूं, यहीं बीस मिनट के रास्ते पर तो रहते हैं, कभी तो दिल करेगा, पिता से मिलने का, पिता को देखने का, मुझे अपने घर ना ले जाये पर आकर मिल तो सकता है,, बेटी ने एक बार कहा भी था कि कुछ दिनों के लिए अपने घर ले जाओ,पर उसने साफ़ मना कर दिया था, फिर भी क्यों, मुझे तेरा हर पल इंतजार रहता है,, क्या मेरे अंतिम घड़ी में भी नहीं आवोगे, क्या मेरा अंतिम संस्कार भी बेटी ही करेगी,,
बस एक बार आ जाओ, जाने के पहले तुम सबको पोता पोती के साथ देखना चाहता हूं,,
**बार बार मेरी निगाहें बाहर दरवाजे पर लगीं हैं,,जानता हूं,
, आने वाला वो नहीं, मैं किसकी बाट देखता हूं,,पर फिर भी, आंखें बिछाए बैठा हूं,
*****एक मुट्ठी उम्मीद,,के साथ,**
सुषमा यादव, प्रतापगढ़, उ, प्र,
स्वरचित मौलिक,
अत्यंत प्यारी रचना…hearttouching story.
सुषमा जी मेरी कहानी है पिता जी के स्थान पर मेरी 98 वर्ष मेरी मां है।
भाई भाभी ही क्यों और बेटियां पोते नाती नातियाँ और नज़दीकी रिश्ते फोन तक नहीं करते।