वाह! दीनदयाल…पूरी कॉलोनी में तेरे परिवार के ही चर्चे रहते हैं….तीनों बहुओं पर तेरा पूरा नियंत्रण है…….आजकल कहाँ देखने को मिलते हैं संयुक्त परिवार…..बच्चे अपनी मनमामी करते हैं और हम बुड्ढे बुढ़ियों को पुराने फर्नीचर की तरह घर में पटक दिया जाता है……आज्ञा लेना तो दूर की बात….. बच्चे बताना भी जरूरी नहीं समझते लेकिन तेरे यहाँ मजाल है तेरी इच्छा के बिना घर का एक पत्ता भी हिल जाए.. सच पूछ तो कभी-कभी आश्चर्य होता है मुझे आज के समय में भी ऐसा परिवार देखकर – मिश्रा जी … हमारे दीनदयाल जी के पड़ोसी चाय के साथ मठरी का लुफ्त उठाते हुये बोले।
अभी थोड़ी देर पहले सबसे छोटी बहु स्वाति सिर पर पल्लू ढंककर चाय नाश्ते की ट्रे रखकर गयी थी…….जाते-जाते मिश्रा जी और अपने ससुरजी के पैर भी छू कर गयी थी। बस उसी से प्रभावित होकर मिश्रा जी तारीफ के पुल बांधे जा रहे थे। दीनदयाल जी के चेहरे पर खिसियानी सी हँसी उभर आयी।
खैर……….. गपशप करके उनके मित्र तो चले गए और वो अपनी शाम की प्रभु वंदना में व्यस्त हो गए।
रात के खाने के समय-
“मधु…..तुम तो मेरा खाना लेने गयीं थीं…..क्या हुआ”?- खाली हाथ आता देख दीनदयाल जी ने अपनी पत्नी मधुलिका जी से पूछा।
“जी…आज बहुओं ने डोसा सांभर बनाया है….आपके पेट में जलन हो जाती है सांभर से तो आपके लिए खिचड़ी चढ़ा के आयी हूँ”- मधुलिका जी ने सहज भाव से उत्तर दिया।
“लेकिन बहुओं को तो पता है ये बात…किसी से तुमने पूछा नहीं कि मेरे लिए क्या बनाया है?
“बेकार है जी कुछ बोलना…..कुछ भी बोलो तो चार बात सुना देती हैं… फिर रसोई अलग करने की धमकी देती हैं।
अपनी इज्जत अपने हाथ है। अब कल की ही बात है…. मंझली बहु (आरती) किट्टी में जा रही थी। उसने मुझे बताया ही नहीं………अचानक तैयार होकर अपने कमरे से निकली…..स्कर्ट टॉप पहनकर….मैं तो चौंक ही गयी। मैंने बस इतना पूछ लिया….कहाँ जा रही हो आरती?…बस मेरा पूछना ही जुलम हो गया। गुस्से में कहने लगी…….
“जाते समय टोक दिया…. मैं स्वाति को कल बता तो रही थी कि मेरी किट्टी है वेस्टर्न थीम पर…..आपने नहीं सुना? वैसे तो आप सारी बातें सुन लेतीं हैं……और भी न जाने क्या-क्या बड़ बड़ करती हुई चली गयी। मैं क्या कहती……….. चुप हो गयी।
हमारे चुप रहने से अगर घर में शांति है तो इसमें बुराई ही क्या है।…समाज में तो सयुंक्त परिवार का तमगा मिला हुआ है।कम से कम मेहमानों के सामने तो सलीके से पेश आती हैं तीनों…. कहीं रिश्तेदारी में अगर जाना पड़ जाये तो वहाँ पर भी घर की इज्जत रख लेती हैं और क्या चाहिए जी….आती हूँ खिचड़ी देखकर- कहकर मधुलिका जी दुखी मन से रसोई में चली जाती हैं।
“मम्मी जी हमने क्या मना किया था बाबूजी के लिए खिचड़ी बनाने के लिए…..आप कहती तो….. हम में से कोई भी बना देता लेकिन……आपको तो खुद बनानी है और बाबूजी के सामने ये दिखाना है कि बहुओं को उनकी परवाह ही नहीं है”- रसोई में से बड़ी बहु की आवाज़ दीनदयाल जी को साफ-साफ सुनाई दे रही थी।
“लीजिए आपकी गरमागरम खिचड़ी- ठंडी ठंडी दही के साथ” – मधुलिका जी मुस्कुराती हुई आयीं।
कैसे कर लेती हो तुम…..मुझे दुख न हो इसलिए बड़ी बहू के ह्दय भेदी बाणों को को भी हँस के टाल जाती हो।
मधु…….सच में…कभी कभी बहुत डर जाता हूँ….कहीं मुझसे पहले तुम्हें कुछ हो गया तो…..जीवन कितना कष्टदायक होगा….और ये सोचकर तो भीतर तक दहल जाता हूँ कि अगर मैं पहले चला गया तो तुम्हारा क्या होगा? जीने देंगे तुम्हें ये लोग?????- आँखों में पानी भरकर दीनदयाल जी बोले।
“आप भी न…….इतना क्यों सोचते हो……कल क्या होने वाला है…….किसे पता……..आज में ही जीते हैं…..”अभी हम हैं एक-दूसरे का सहारा”]…..इससे अच्छी और क्या बात होगी। आप खिचड़ी खाइए….ठंडी हो रही है- मधुलिका जी ने दिलासा देते हुए कहा लेकिन जो बात अभी दीनदयाल जी ने कही उस बात का डर उनके चेहरे पर साफ-साफ दिख रहा था।
मिश्रा मेरे घर की कहानी तेरे घर से अलग नहीं है…- दीनदयाल जी खाना खाते समय सोचने लगे।
तो दोस्तों……
इस कहानी के माध्यम से मैं किसी भी पाठक की भावनाओं को ठेस पहुंचाना बिल्कुल भी नहीं चाहती……
मैं यह नहीं कहती कि हर घर की कहानी ऐसी ही होती है। सबकी अपनी एक अलग कहानी है।आपके घर की कहानी क्या है? कमेंट में बताइएगा जरूर।
आपकी ब्लॉगर दोस्त-
अनु अग्रवाल।