एक भूल …(भाग-17) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi

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महारानी को राजमहल वापस लाने का दायित्व उनकी प्रिय सखी पर डालकर युवराज आखेट के लिये चले गये। उन्हें पता था कि उनके सारे कृत्य महारानी के समक्ष उजागर हो चुके हैं और क्रोध के आवेश में आज तो उन्होंने बहुत अधित अनुचित व्यवहार किया है।

साथ ही वह जानते थे कि महारानी उन्हें बहुत प्यार करती हैं, उनका ममतालु हृदय अपने पुत्र का विछोह सहन नहीं कर पायेगा और जब वह आखेट से वापस आयेंगे महारानी उनका प्रत्येक अपराध भूलकर उन्हें क्षमा कर देंगी और हृदय से लगा लेंगी।

परन्तु महारानी मोहना ने राजमहल में प्रवेश करना तो दूर रामलला के समक्ष रखे गंगाजल को हाथ में उठाकर सौगन्ध ली – ” मैं अपने  पति मणिपुष्पक और रामलला की शपथ लेती हूॅ कि जब तक युवराज आप सबसे क्षमा नहीं मॉगेंगे, मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूॅगी। मैं आप सबको यदि न्याय नहीं दे सकती तो मेरे इस औचित्य हीन तन का नष्ट हो जाना ही उचित है।”

हाहाकार करती प्रजा महारानी के चरणों में गिर पड़ी कि वह अपनी शपथ वापस ले लें लेकिन महारानी के निश्चय को परिवर्तित न कर सकी। किसी को ज्ञात नहीं था कि अपने विश्वस्त अंगरक्षकों और सहचरों के साथ युवराज आखेट के लिये कहॉ चले गये?

सर्वत्र उनकी खोज होने लगी। अन्ततः महारानी का तन  रुग्णता एवं अस्वस्थता से अधिक युवराज के व्यवहार की पीड़ा सहन न कर सका और रामलला के समक्ष रामलला के चरणों में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। अपने अन्तिम संस्कार का अधिकार उन्होंने युवराज से छीनकर प्रजा को दे दिया।

युवराज जब लौटकर आये तब तक सब कुछ समाप्त हो गया था। महारानी की देह पंचतत्व में विलीन हो चुकी थी।  महारानी की मृत्यु होते ही प्रजा ने विद्रोह कर दिया। पड़ोसी राज्य तो युवराज राघवेन्द्र की अपने राज्यों में अराजकता फैलाने के लिये पहले ही क्रोधित और परेशान थे

लेकिन महारानी मोहना के कारण शान्त थे। अब सबने सम्मिलित रूप से संदलपुर पर आक्रमण कर दिया। चक्रवर्ती सम्राट बनने का स्वप्न देखने वाले युवराज राघवेन्द्र अपने चाटुकारों और सहयोगियों सहित मारे गये।

सब कुछ नष्ट हो गया – न राजा रहे, न राजधानी और न साम्राज्य पर रामलला अपने पूरे वैभव एवं भव्यता के साथ मुस्कराते रहे।

इसके बाद हमारी ही फूट नीति के कारण हमारे देश का दुर्भाग्य उदित हो गया। भारत पर आक्रान्ताओं और विदेशियों का साम्राज्य हो गया। इसके बाद एक ऐसा समय आया जब सत्ता की धार्मिक कट्टरता नीति के कारण धार्मिक स्थलों को नष्ट किया जाने लगा।

इसी क्रम में रामलला का भव्य मंदिर भी सम्मिलित हो गया।

जनता कुछ नहीं कर पा रही थी। मन्दिर को सैनिकों द्वारा चारो ओर से घेर लिया गया और तोड़ फोड़ शुरू कर दी गई। सन्ध्या तक पूरा मंदिर ध्वस्त कर दिया गया, मात्र रामलला का कक्ष और रामलला शेष रह गये। विजय के मद में चूर सैनिक उत्सव मनाने लगे।

मन्दिर के प्रांगण में बैठकर ही मदिरा पान करने लगे – ” आज तो सबाब ( पुण्य) का दिन है। आज हमने एक और बुतखाना ( मन्दिर ) मटियामेट कर दिया। कल सुबह अन्दर के कमरे में जो बुत रखा है जिसे ये काफिर भगवान कहते हैं तोड़ दिया जायेगा।”

तभी उनमें से एक बोला – ” ये काफिर भी कितने बेवकूफ होते हैं, पत्थर के टुकड़े को भगवान कहते और मानते हैं। हम तो उसी के घर में बैठकर शराब पी रहे हैं, हमारा तो कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा है इनका पत्थर का बुत।”

रात के साथ उन सैनिकों का नशा और बकवास भी बढती जा रही थी। तभी मन्दिर के बाहर से एक सैनिक उनके पास आया – ” सब ठीक है ना। सुबह वह बुत और कमरा टूट जाना चाहिये। अच्छी तरह निगरानी करना, ऐसा न हो कि वह बुत गायब हो जाये।” यह कहकर वह ठहाका मारकर हॅस पड़ा और उसके साथ बाकी सैनिक भी ठहाका लगाने लगे।

” मैं जरा एक बार उस बुत को देख आऊॅ कि वह सही सलामत है या नहीं।”

एक बार फिर सब उसकी बात सुनकर हॅस‌ पड़े – ” अजीब बेवकूफ आदमी हो तुम। वह बुत कहॉ जायेगा, उसके पैर तो हैं नहीं। कल यहीं पर टुकड़े टुकड़े पड़ा रहेगा।”

हॅसता हुआ बाहर से आया सैनिक अन्दर गया और कुछ ही देर में वापस आ गया। उसे लौटकर आया देखकर सभी व्यंग्य से उस पर हॅसने लगे – ” देख आये उस बुत को। कुछ बातचीत भी की या वैसे ही चले आये।”

वह सैनिक भी हॅसता हुआ मन्दिर से बाहर चला गया। सुबह मन्दिर में हलचल मची थी। भीतरी  कक्ष में रामलला नहीं थे। सर्वत्र यह समाचार फैल गया कि रात में रामलला कहीं चले गये। जो भी सुनता, उसे विश्वास नहीं होता।

वर्षों बीत गये। समय कभी एक सा नहीं रहता। सत्तायें परिवर्तित होती रहती हैं।

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बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

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