एक औरत की दास्तां

एक औरत की दास्तां
मैंने क्या माँगा तुमसे चंद लम्हें जो तुमने कभी दिए ही नहीं
वफ़ा और रिश्ते जो कभी मेरे हुए ही नहीं
घर की दरो दीवार भी कभी मेरी बनी नहीं
बस उलझी सी रही ज़िन्दगी ताने बानो में
कभी तू ही नहीं बना मेरा आशियाने में
अब टूट गया हर भरम अनजाने में
वो दास्तां बन गए अपने ही कैद खाने में
मौलिक रचना
शबनम सागर

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