बस मुझे मेरे धवल से मिलवा दो। उसे मेरे पास ले आओ ना..उनहत्तर वर्षीय सविता खन्ना बिछावन पर लेटे लेटे बच्चों सी बोली में बड़बड़ा रही थी।
बिछावन के बगल में बैठे डॉक्टर मित्तल और ब्रिगेडियर एक दूसरे को बुझी बुझी नजरों से देख रहे थे।
ब्रिगेडियर साहब.. कौन है ये धवल… डॉक्टर मित्तल पूछते हैं।
मुझे नहीं पता डॉक्टर.. दिन रात धवल धवल.. ब्रिगेडियर झुंझला कर बोलते हैं।
मैं आर्मी हॉस्पिटल में ही हूँ.. अगर जरूरत लगे तो बुला लीजियेगा.. कहते हुए डॉक्टर खड़े हो जाते हैं।
डॉक्टर को दरवाजे तक छोड़ ब्रिगेडियर साहब बगीचे में जाकर टहलने लगते हैं।
ठंडी ठंडी पवन उनके तन मन को शीतल कर रही थी।जब तक सविता ठीक थी.. सब कुछ संतुलित था। आर्मी का अनुशासन घर पर भी हमेशा कायम रहा। ब्रिगेडियर साहब का ब्रिगेडियरपना हमेशा उनके सिर चढ़ कर बोलता रहा, जिसके अहंकार के नशे में उन्होंने पत्नी को कभी अपने समकक्ष नहीं समझा
और बच्चों को अवार्ड समझते रहे। जिसका नतीज़ा था कि उनके बेटे और बेटी अमेरिका जाने के बाद ना लौटने की इच्छा जता वही के हो कर रह गए और कारण था इस हवा में घुटन होती है।
लेकिन सविता कहाँ जाती। उसका घुटन बदस्तूर तब तक जारी रहा.. जब तक वो डिमेंशिया से घिर नहीं गई। कितनी बार उसने कहा था कि वो घर का पता, रास्ता भूल जाती है। लेकिन ब्रिगेडियर साहब इस बात पर सिर्फ उसका मखौल उड़ाते रहे। अब उसे कुछ याद था तो धवल। ब्रिगेडियर साहब का सारा अनुशासन हवा के साथ ही उड़ चुका था।
ब्रिगेडियर साहब अपने ख्यालों में गुम टहल ही रहे थे कि अंदर से कुर्सी गिरने की आवाज आई।
दौड़ कर कमरे में गए तो देखा सविता बिछावन से उठ चलने की कोशिश कर रही थी और इसी जद्दोजहद में बगल में रखी हुई कुर्सी गिरी थी।
क्या चाहिए सविता.. बहुत ही मीठी आवाज में पत्नी को बाहों का सहारा देते हुए उन्होंने पूछा।
सविता उन्हें चौंक कर देखने लगी.. जैसे उनके चेहरे में कुछ खोज रही थी।
इससे पहले कब वो अपनी पत्नी से प्रेमपूर्वक बोले थे.. ब्रिगेडियर साहब अपनी बोली पर चकित हो सोचने लगे और शायद सविता भी यही उनके चेहरे में खोज रही थी।
मेरा धवल ला दो ना.. सविता बड़बड़ाती हुई कमरे में रखी अलमारी की ओर इशारा करती है।
धवल धवल धवल… क्या पूरे जीवन मुझे धोखा देती रही.. कौन है ये धवल बोल ब्रिगेडियर साहब अलमारी से दनादन सड़ियाँ निकाल फेंकने लगे। साड़ियों के बीच से अचानक एक डायरी गिरी और सविता झट से उठ डायरी को उठा कर “मेरा धवल” बोलते हुए गले से लगा लिया। डायरी को गले से चिपटाए जाकर बिछावन पर लेटते तुरंत ही गहरी नींद में सो गई। आज उसे नींद की गोली देने की जरूरत नहीं पड़ी।
सविता को गहरी नींद में सोया देख ब्रिगेडियर साहब धीरे से डायरी उसके हाथ से लेकर पढ़ने लगते हैं।
मेरा पहला और आखिरी प्रेम .. मेरा धवल..मेरी डायरी.. दूसरों के बताए रास्ते पर चलते चलते थक गई मैं.. एक तुम ही हो मेरे रोने गाने के साक्षी.. जो बिना ताना दिए मेरी हर बात पर मुस्कुराते हो.. मेरी और तुम्हारी प्रेम कथा के साक्षी भी सिर्फ मैं और तुम ही हैं..
मैं जब भी आखिरी साँस लूँगी.. तुम ही मेरे सबसे करीब होगे… डायरी पढ़ते पढ़ते ब्रिगेडियर साहब की आँखों से पानी बहने लगा और उनकी पत्नी सविता चेहरे पर शांति का भाव लिए परमशांति की ओर निकल गई।
ब्रिगेडियर साहब विस्फारित नेत्रों से पत्नी को देखते हुए सोच रहे थे .. किसे दोष दें.. खुद को.. हालात को.. अपने अहम् को… काश समय रहते डायरी मिल गई होती तो ये अनूठी प्रेम कथा सविता और धवल की नहीं.. सुख चैन की जिंदगी मि. और मिसेज खन्ना की होती। सब कुछ लील कर आज जब हृदय से अहंकार विलीन होकर बंद दरवाज़ा खोलने के लिए आतुर था तो हृदय की स्वामिनी अपने गंतव्य की ओर निकल चुकी थी।
आरती झा आद्या (स्वरचित व मौलिक)
दिल्ली