विवाह के तीन चार साल हो गये थे। विश्विद्यालय की परीक्षा में हिन्दी साहित्य में स्वर्ण पदक विजेता स्वाति चाह कर भी घर गृहस्थी के अलावा कुछ नहीं सोच पा रही थी। कभी लिखना पढ़ना गुनगुनाना यही जिंदगी थी उसकी। हिन्दी साहित्य से जुड़ी हुई कोई भी प्रतियोगिता हो.. महाविद्यालय या विश्विद्यालय की तरफ से उसे ही भेजा जाता था। हमेशा सबके विश्वास पर खड़ी भी उतरती थी। अब तो बिल्कुल भूल गई थी कि वो स्वाति है.. जिसकी एक एक बूँद निर्मल कर देने वाली होती है।
दादा, दादी, सास, ससुर, पति मधुकर, एक नन्द और उसका एक प्यारा सा दो साल का बच्चा राघव.. इन सब के बीच कब दिन से रात और रात से दिन हुई, पता ही नहीं चलता। पहली जनवरी का आना जाना भी कैलेंडर बदलने के लिए याद रखती थी जैसे।
आज मधुकर और स्वाति की सालगिरह थी। मधुकर ने दफ्तर के साथियों के लिए दावत रखी थी और सारी जिम्मेदारी स्वाति पर डाल दफ्तर निकल गया। स्वाति सुबह से ही अपनी घरेलू सहायिका के साथ तरह-तरह के व्यंजन बनाने में लगी थी। साथ ही साथ घर के अन्य सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति भी करती जा रही थी।
संध्या समय पाँच बजे मधुकर के दफ्तर से आने के थोड़ी देर बाद से ही अतिथि आने लगे थे। स्वाति सजी धजी बला की खूबसूरत नई नवेली दुल्हन ही लग रही थी। घर भी सजा धजा रौनक से जगमगा रहे थे।
आठ बज गए भाई.. केक तो काटो तुम दोनों और इनसे मिलो ये हैं हमारी साली साहिबा के पतिदेव वैभव मधुकर का जिगरी यार मधुकर से कहता है।
स्वाति आ जाओ… केक काटा जाए.. स्वाति का हाथ पकड़ते हुए मधुकर कहता है।
केक स्वाति ने खुद से बनाया है.. आप सब स्वाद का लुफ्त उठाएं.. मधुकर वैभव को केक देता हुआ कहता है।
आपके हाथ में तो जादू है मैम.. आपकी कहानी कविताओं का तो मैं हमेशा से प्रशंसक रहा हूँ.. आज से आपके खाने का भी प्रशंसक हो गया। आपकी एक कविता तो मेरी मार्गदर्शक भी हैं –
बेजार है ये जिन्दगी
हर पल मार है जिन्दगी
ऐ मेरे दोस्तों
इक बार विचार तो बदल
हर पल की प्यार है जिन्दगी
हर पल की यार है जिन्दगी
स्वाति अवाक सी सुन रही थी.. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बोले। आपको कोई गलतफहमी हुई है। ये हमारी पत्नी स्वाति हैं। आप शायद नाम के कारण कोई लेखिका समझ रहे हैं..मधुकर कहता है।
मैम आप स्वर्ण पदक विजेता स्वाति निर्मल ही हैं ना। मैं कॉलेज में इनका जूनियर रहा हूं। ये मुझे नहीं जानती, लेकिन कॉलेज में इनकी प्रतिभा के कारण इन्हें हर कोई जानता था… वैभव कहता है।
जी.. मैं स्वाति निर्मल ही हूँ.. स्वाति झिझकते हुए कहती है।
मैं कुछ समझ नहीं रहा हूँ..मधुकर स्वाति की ओर देखता हुआ कहता है।
दरअसल मैं विद्यार्थी जीवन में लिखा करती थी.. उसी के बारे में वैभव जी बोल रहे हैं.. स्वाति बताती है।
आज तक तुमने बताया ही नहीं.. चलो कोई बात नहीं.. देर आए दुरुस्त आए..मेरी तरफ से तुम्हारे लिए ये उपहार.. आज से फिर तुम कलम पकड़ोगी और अपने प्रशंसकों को निराश नहीं करोगी.. बोलते हुए मधुकर अपनी कलम स्वाति की ओर बढ़ा देता है।
चारों ओर महिला सशक्तिकरण की धूम मची है और हम ये भी नहीं मानते कि उसकी भी स्वयं की व्यक्तिगत जिंदगी है। हमेशा घुसपैठियों से घुसे रहते हैं.. सिर्फ अपने कार्य को पूर्ण कराने के लिए… वैभव कहता है।
वैभव जी आप अजनबी होकर स्वाति की प्रतिभा के कायल हैं और हम अपने होकर भी इसकी प्रतिभा से अनभिज्ञ रहे…मधुकर के शब्दों में वैभव के लिए असीम कृतज्ञता भरी हुई थी।
5वां_जन्मोत्सव
आरती झा आद्या
दिल्ली