शाम के पाँच बजे ही आसमान में एकदम अंधेरा सा छा गया था। लगता था तेज आंधी या बरसात आने वाली है। घुमड़ घुमड़कर काली घटाएँ आसमान पर चढ़ी जा रही थीं। पंछियों के झुंड किसी आपदा की सी आशंका से समूह बनाकर आकाश में उड़ान भरने लगे थे।
“एक रोटी और लाऊं क्या साब।” शकुंतला ने रसोई से अपने साहब को आवाज लगाई।
“नई, मेरा हो गया बस। एक ग्लास पानी दे जाओ। और सुनो। जल्दी से तुम भी खाना खा लो और निकल जाओ। मौसम खराब होने वाला है।”
“अभी कैसे जाऊँगी साब। अभी बर्तन करने हैं। फिर सफाई करनी है और… और खाने का क्या है साब। दो रोटी पल्लू में बांधकर ले जाऊँगी। घर जाकर खा लूँगी।”
“अरे बर्तन वर्तन सुबह कर लेना शकुंतला। देख नहीं रही हो। तेज आंधी आने वाली है। बारिश भी होगी शायद। फिर कैसे जाओगी इतनी दूर।”
“कभी सर्दी है, कभी बारिश है, कभी लू के थपेड़े हैं। रोज का है न साब। जिन्नगी है। जिन्नगी में भी ऐसा ही तो होता है न साब। कभी सबकुछ है। कभी कुछ भी नहीं। चली जाऊँगी। अपना कौन घर पर इंतजार कर रहा है। खोली में जाकर पड़ना ही तो है।” शकुंतला ने उदासी में भीगे स्वर से कहा।
“सुनो शकुंतला। तुम अकेली रहती हो। तुम्हें डर नहीं लगता।”
“डर … कैसा डर साब। है क्या मेरे पास जिसे कोई लूटकर ले जाएगा। सब कुछ तो छीन लिया ऊपर वाले ने। किस से डरूँ। किस से शिकायत करूँ साब। उसकी लाठी में तो आवाज भी नहीं होती। सब … सब कुछ लूटकर ले गया निर्मोही।” शकुंतला ने ठंडी आह लेते हुए कहा।
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“शकुंतला। तुम भगवान को मानती हो।”
“भगवान से तो दोस्ती है मेरी साब। वो मेरे साथ ठिठोली करता रहता है और मैं हँसती रहती हूँ। चिड़ाती रहती हूँ भगवान को। कर ले जो करना है। मेरे आँसू निकालकर दिखा मेरे बालसखा।”
“देखो, आंधी के साथ तेज बारिश शुरू हो गई है। थोड़ी देर देखते हैं। नहीं रुकेगी तो मैं तुम्हें अपनी गाड़ी से छोड़ दूँगा। सुनो, ठंडा सा मौसम हो गया है। दो कप कौफ़ी बना लो। तुम भी पी लेना।”
फिर थोड़ी देर रुककर दोबारा बोले “बड़ा दर्द है तुम्हारी बातों में शकुंतला। तुम ने कभी बताया नहीं। तुम अकेली क्यूँ हो। कहाँ गए तुम्हारे घर के सब लोग। तुम हमेशा से अकेली हो या … क्या कोई हादसा हुआ था।”
“हादसा… हादसे ही हादसे हैं साब। मेरे जैसों के लिए तो जिन्नगी भी एक हादसा ही है।” वो एक गहरी निस्वास लेकर शांत हो गई। फिर शून्य में देखते हुए खोयी सी आवाज में बोलने लगी “हम गाँव में रहते थे साब। रूखी सूखी खाकर भी चैन की बंसी बजाते थे। किसी किसी रात को पूरे परिवार को भूखे ही सोना पड़ता था मगर … मगर उस उम्र में क्या फरक पड़ता है। सपने देखने की उम्र होती है। जिस दिन भूखे सोना पड़ता उस दिन सपने में पकवान मिलते थे खाने को।” उस ने बच्चों जैसी निश्चल हंसी हँसते हुए कहा।
“फिर … चौदह बरस की उम्र में घर वालों ने मेरा ब्याह कर दिया।” लगभग पचपन साल की काम वाली बाई शकुंतला क्षितिज में देखते हुए यादों में डूबी हुई कुछ सोचती सी बोल रही थी। मजबूत कद काठी और तपे हुए तांबे के रंग वाली शकुंतला के चेहरे पर जहां एक ओर विपदाओं से लड़ने की और जिंदगी के उतार चढ़ाव झेल जाने की दृढ़ता का भाव था
वहीं दूसरी तरफ किसी आदिवासी समाज से निकली छोटी सी बालिका वाली सरलता और भोलापन भी था। उसकी आँखों में एक बालक जैसी चंचलता और उतावलापन सा परिलक्षित होता था। समान्यतः वो कभी उदास या चिंतित दिखाई नहीं देती थी। बस अपने काम में जुटी रहती और यदा कदा अपने साहब से भी जिनके यहाँ वो काम करती थी मज़ाक करने का दुःसाहस कर लिया करती थी।
“साब, आप की मेम साब कैसे संभालती होगी आप को। आप को तो टूथ बिरस पर पेस्ट भी लगाकर देना पड़ता है। साब भगवान का सुकर करो कि आप को मेरे जैसी काम वाली बाई मिल गई नई तो कौन संभालता आप को। मेरा मरद कहता था कि ज्यादा पढे लिखे आदमी की खोपड़ी वैसी हो जाती है।”
“ज्यादा पढे लिखे आदमी की खोपड़ी कैसी हो जाती है शकुंतला?”
“आप के सामने बोल नहीं सकती पर… वो कहता था कि ज्यादा ऊंची पढ़ाई करने से खोपड़ी उल्टी हो जाती है।” ये कहकर वो दांतों में पल्लू दबाकर हंस देती।
“अच्छा, अब चख़चख़ बंद कर और काम निपटा ले। मुझे भी कुछ लिखना है।”
मगर आज… आज मानो रिटायर्ड सेनाधिकारी उसके साहब ने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया था। कॉफी बनाते हुए यादों के समंदर में डूबते उतरते उसने आँखों में भर आए सैलाब को अपनी धोती के पल्लू से पौंछ लिया और स्वर को सहज सा करते हुए दोबारा बोलने लगी।
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“जैसे हम गरीब थे, वैसे ही मेरी ससुराल वाले गरीब थे। मेरे ससुर एक किसान के यहाँ मेहनत मजूरी करके पूरे परिवार का पेट पालते थे साब। फिर मेरी शादी के बाद हलदू भी उसी किसान के यहाँ मजूरी करने लगा। वैसे पढ़ा लिखा था मेरा मरद। आ आ आप के जितना तो नहीं पर आठवीं जमात पास की थी उस ने। पर… भोत मेहनती था साब। जब किसान ने ट्रेक्टर खरीदा तो…।
“अब ये हलदू कहाँ से आ गया बीच में शकुंतला। हलदू कौन था।”
“कहीं से आया नहीं साहब। उस से बाकायदा मेरे सात फेरे पड़े थे। मरद था मेरा।” शकुंतला ने इस उम्र में भी शर्माते हुई कहा। फिर एक अल्पविराम के बाद दोबारा बोलने लगी।
“आठ आठ घंटे खेत में ट्रेकटर चलाता था हलदू। खूब मेहनत करता तो किसान खुस होकर उसे ईनाम देता था। कभी मेरे लिए कोई पुरानी साड़ी कभी धड़ी भर अनाज या खेत में उतरी हुई सब्जियाँ, गुड या भुट्टे।
हमारी बीरदारी के ही एक चाचा सहर में नौकरी करते थे। उन्होने मेरे आदमी का सरकारी फारम भरवा दिया था। हम वो हैं न साब… येसटी… एस…। ऐसा ही कुछ होता है न साब।”
“अच्छा एस टी यानी शेड्यूल ट्राइब। तो… उस से क्या? अच्छा रिज़र्वेशन के कारण।”
“फट से मेरे आदमी को सहर में डिराईवर की सरकारी नौकरी मिल गई।
फिर तो साब … बस पूछो ही मत। मैं भी मेम साब बन गई थी। रानी थी अपने घर की। मेरा आदमी तो लट्टू था मेरे ऊपर। भोत प्यार करता था मुझे। नई नई साड़ियाँ लाकर देता। कभी कभी अपने साब की गाड़ी में घुमाने ले जाता। आइसक्रीम खिलाता और… गोलगप्पे। जिन्नगी इतनी खूबसूरत होती है, तभी पता चला मुझे। होली दीवाली पर मैं अपनी खोली को खूब सजाती। नए नए पकवान बनाती। उसे सरकार से इतने पैसे मिलते थे कि घर की चारों खूंट भारी रहतीं। हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ थीं साब। खुशियाँ ही खुशियाँ।” उसका स्वर भीग गया और वो शांत हो गई। कुछ पल बाद उसने दोबारा बोलना शुरू किया।
“उसका घर आने का कोई टेम नहीं था साब। कभी जल्दी छुट्टी मिल जाती तो पाँच बजे ही घर आ जाता था और कभी कभी रात के दस बज जाते। मैं उसके लिए बढ़िया तरकारी बनाकर रखती थी और जब वो नौकरी से लौटता तो मुझे… मुझे भोत प्यार करता था साब। कभी अचानक जल्दी आ जाता और बोलता ‘सक्कू, आज साब ने गाड़ी दी है। चल जल्दी से तैयार हो जा। फिलिम देखकर आएंगे। मैं बोलती ‘खाना तो खा लो। तो वो कहता ‘अरे बनाकर रख ले। रास्ते में तेरे हाथ से खा लूँगा… और मैं उसे एक एक निवाला अपने हाथ से खिलाती और वो गाड़ी चलाता रहता।” और वो दोनों हाथ आँखों पर रखकर सुबकियाँ लेने लगी। कई पल सन्नाटा छाया रहा।
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“फिर। फिर कहाँ गया तेरा हलदू।” कर्नल साब ने एक विराम के बाद कहा।
“फिर एक दिन गाड़ी चलाते चलाते दूर चला गया साब। इतनी दूर कि वहाँ से कोई नहीं लौटता।” और वो गहरी उदासी में डूबकर चुप हो गई।
“ओफ़्फ़। वैरी सैड।”
“रेलवे ट्रैक पर गाड़ी बंद पड़ गई थी साब। हलदू और उसका साब… दोनों…।” उस ने बर्फ की तरह जम गए शब्दों में कहा।
एक ठंडा सन्नाटा दोनों के बीच आसन जमाकर पसर गया था। रिटायर्ड सेना अधिकारी चंद्रशेखर राव बिना पलकें झपकाए पाषाण हृदय की कोमलांगी नारी की आँखों में देख रहे थे मानो आपदाओं के थपेड़ों ने उस प्रस्तर शिला को और मजबूत कर दिया था। और शकुंतला नजरें झुकाये हुए जैसे अपने अतीत के सुदूर बियाबान में खो गई थी।
“फिर?”
शकुंतला को राव साहब की हिमशिला सी जमी हुई आवाज जैसे दूर किसी घाटी से आती सुनाई दे रही थी।
“तब से … इतने बरस से तुम अकेले जिंदगी गुजार रही हो शकुंतला।”
“नई साब। हलदू चला गया मगर मुझे जीने का एक बहाना दे गया था। मेरी कोख में। जिन्नगी के भोत बरस मुकेस ने बड़ा सुख दिया मुझे साब। उसकी मुस्कान में, बदन की महक में, चाल में ढाल में मुझे हलदू दिखाई देता।
फिर वो बड़ा हो गया। काश मेरा बच्चा हमेशा बच्चा ही रहता। कभी बड़ा नहीं होता।” उस ने हिचकी सी लेते हुए कहा।
“आह, फिर वो अपनी बीवी बच्चों को लेकर तुम से दूर चला गया होगा जैसे मेरा बेटा अमेरिका में जाकर बस गया। अब तो फोन का जवाब भी नहीं देता नामाकूल। मैं तो मौत से पहले ही मर गया उसके लिए।”
“मेरा बेटा भी नहीं देता फोन का जावाब। भोत दूर चला गया है साब। फोन तो वहाँ तक पहुंचता ही नहीं साब।”
पति की मौत के बदले नगर निगम में नौकरी मिल गई थी मेरे मुकेस को। फिर एक दिन उस ने एक सीवर का ढक्कन उठाया और… जहरीली गैस ने… उसका गला घोंट दिया। भोत दूर चला साब। भोत दूर। टेलीफोन भी नहीं मिलता। खत भी नहीं पहुंचता साब। भोत दूर…।” शकुंतला का चेहरा देखकर ऐसा लगता था कि उस पाषाण हृदया नारी में आंसुओं को भीतर ही भीतर पी जाने की अनोखी क्षमता है।
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शकुंतला को उदासी के अतिरेक में डूबते उतरते देख राव साहब अपने स्थान से उठे और उन्होने शकुंतला के कंधे पर हाथ रख दिया। न जाने क्या हुआ कि शकुंतला की आँखों में बरसों से भरा हुआ सैलाब फूट पड़ा। उसकी हिचकियाँ बंध गईं। वो जार जार विलाप कर रही थी। राव साहब ने उसे एक ग्लास पानी लाकर दिया। कुछ मिनट के बाद शकुंतला शांत हो गई।
“तुम तो कहती थीं कि भगवान से दोस्ती है मेरी। वो ठठोली करता है और मैं हँसती रहती हूँ। चिड़ाती रहती हूँ भगवान को। फिर आज तुम्हारे आँसू क्यूँ फूट पड़े शकुंतला।”
“कोई कंधे पर हाथ रखने वाला नहीं था ना मदरासी बाबू।”
“तो क्या हुआ। कंधे पर हाथ रखने वाला तो कोई मेरा भी नहीं है। मुझे देखा है कभी रोते।”
कर्नल कह तो गए किन्तु एक गहरा अवसाद सा दोनों के मध्य आकर बैठ गया था। ऐसा लगा मानो युगों बीत गए हैं और राव साहब वैचारिक अंतर्द्वंद झेलते हुए अपने अतीत के सागर में गोते लगा रहे हैं। अनेक भाव उनके चेहरे पर आ रहे थे और जा रहे थे। कभी अचानक विषाद की काली छाया से चेहरा पुत जाता तो कभी मानो वे सुखद सपनों में खो जाते। कभी उनकी आँखों की अग्निशलाका सी सुलगती लाल रक्तशिरायें समंदर के नमकीन पानी में डूब जातीं तो कभी साँवले से होठों पर मुस्कान की एक महीन रेखा तैर कर लुप्त हो जाती।
कभी वे अपने श्रवण तंतुओं को जागृत करके बरसों पहले काल के कुहासे में विलुप्त हो चुकी अपनी ‘मल्लिका’ की पदचाप का एहसास कर रहे होते तो कभी उनकी भुजाएँ अपने अतीत में खो गए सपनों को बाहों में भर लेने के लिए फड़क उठतीं। कभी उन्हे लगता कि वे एक विकराल मरुथल में प्यासे भटक गए हैं। दूर दूर तक न पानी हैं न एक सूखे ठूंठ मात्र की छाया। मर जाएंगे वो भटकते भटकते मगर किनारा नहीं मिलेगा। उन्हे लगता कि वे अभी चिल्लाने लगेंगे। बचा लो मुझे इस बियाबाँन से। मुझे डर लग रहा है। देखो यहाँ कोई मेरी आवाज सुनने वाला नहीं है। अकेला हूँ मैं। एकदम अकेला।
शकुंतला कुछ पल अनमनी सी उनकी ओर देखती रही। फिर कॉफी के झूठे कप उठाकर किचन में चली गई।
बारिश अब थम सी गई थी। थोड़ी देर में शकुंतला पल्लू से हाथ पौंछते हुए रसोई से बाहर निकली तो राव साहब वैसे के वैसे अपने स्थान पर बैठे थे।
“जब मैं बीमार हो गया और तुम चौदह चौदह घंटे मेरी परिचर्या करती रहीं।” उन्होने किसी सुरंग से निकलती गूँजती सी आवाज में कहना शुरू किया। “जब… कहीं मैं भूखा न रह जाऊं ये सोचकर तुम ना रिशतेदारों की शादियों में गईं और ना तुम अपने घर पर तीज त्योहार मना पायीं… क्या तुम ने एक छोटी सी सैलेरी पर अपना जीवन इस रिटायर हो गए बूढ़े पर ख़र्च कर दिया शकुंतला। क्या तुम्हें नहीं लगता कि इस में भी नियति का कोई संदेश छुपा हुआ है या… पूर्व जन्म का कोई आलेख।”
“मैं निकल रही हूँ साब। बारिश भी अब रुक गई है।”
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“कभी कभी सोचता हूँ कि तुम मेरे जीवन में नहीं आई होतीं तो मैं इस अकेलेपन को झेल नहीं पाता और बरसों पहले मर गया होता।”
“सुबह जल्दी आऊँगी साब। अभी बूंदें कम है। तेज हो गईं तो …।
“मत जाओ शकुंतला। मत जाओ।” उन्होने एक छोटे से बच्चे की तरह निर्विकार भाव से कहा।
“क्या… क्या कहते हो साब। ऐसे कैसे। आज आप कुछ परेशान से लग रहे हो।”
“यहीं रह जाओ न शकुंतला। हमेशा के लिए। देखो… देखो मैं कितना अकेला हूँ और तुम… तुम भी तो अकेली हो। आ जाओ शकुंतला। जिंदगी का बाकी सफर मिलकर काटेंगे।”
“क्या बात करते हो मद्रासी बाबू। लोग क्या कहेंगे। ये दुनिया है। समाज है। मेरी खोली… पड़ौसी…।”
“कहीं कुछ नहीं है। दूर दूर तक कोई नहीं है। सब छलावा है शकुंतला। भ्रम है हमारे मन का। अच्छा बताओ। दो दिन तुम्हारी खोली का दरवाजा न खुले तो कितने लोग आते है ये जानने कि शकुंतला बीमार तो नहीं है या भूख से अकेली मर तो नहीं गई है। सारी दुनिया अपने में ही मगन है। दो ढलती उम्र के लोगों के आँसू पोंछने वाला यहाँ कोई नहीं बैठा है। दैहिक अकर्षणों से दूर हो चुके परमात्मा के बनाए हुए दो पुतले जिंदगी के आखिरी पलों में एक दूसरे के आँसू पौंछ लें तो जमाने को क्या ऐतराज होना चाहिए भला। और फिर किसे फुर्सत है तुम्हारी आँखों से बहते सैलाब और मेरे हृदय के जख्मों से रिसते लहू को देखने की इस महानगर की दौड़ती भागती जिंदगी में। जिंदगी की शाम है। चलो आखिरी दो कदम मिलकर साथ चलते हैं।”
शकुंतला वहीं, मुख्य द्वार के निकट दीवार से लगी कुछ सोचती रही। फिर दीवार पर कमर लागे हुए ही नीचे खिसक गई और धीरे से भूमि पर बैठ गई। उस ने अपना चेहरा अपनी कोहनियों से ढककर घुटनो पर टिका लिया था।
“उठो शकुंतला। अपना घर संभालो। तुम्हारे बिना तो अब मैं जिंदगी के चार कदम भी तय नहीं कर पाऊँगा।” कर्नल ने शकुंतला का हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा।
रवीन्द्र कान्त त्यागी