बाहर बीती रातों का अधूरा चाँद गोल हो आया था । भीतर सूना एकांत फैलता जा रहा था । जो हर नये दिन बढ़ता ही जाता था । रेंगते अकेलेपन को छिटकते हुए छुटके बोला
-“नींद आने से पहले भी कितना सोचना होता है न !”
-“हाँ शायद” पास ही लेटी मनु ने कहा ।
-“लेकिन इंसान इतना सोचता क्यों है ?” छुटके ने पूँछना चाहा ।
-“शायद उसका सोचना ही उसे बड़ा बनाता है । एक समय में उम्र और समझ में बहुत बड़ा फासला आ जाता है ।” मनु खुद में ही खोयी हुई बोली ।
-मतलब !
“सो जाओ छोटे रात बहुत हो चुकी है ।” मनु ने करवट बदलते हुए कहा ।
कभी-कभी छोटे सोचता कि मनु की अपनी एक दुनिया है । विशाल और अदृश्य । वो बस उसकी देहरी तक जा सकता है लेकिन भीतर नहीं । वह उतना ही देख सकता है जितना कि मनु चाहे ।
अगली शाम का अनालोकित होता आलोक ऐसा लग रहा है जैसे बीता हुआ दिन हथेलियों से फिसलकर बहने लगा है । हर रोज़ की तरह वे तीनों समुद्र के किनारे बैठे हैं । छुटके और मनु पास-पास, उनसे दूर कहीं माँ । छुटके मनु की दुनिया की देहरी पर खड़ा हो कहता है
-तुमने देखा है, माँ के भीतर एक रीतापन जन्म ले रहा है ।
-हाँ शायद, बहुत पहले से ।
-“कब से ?” छोटे फिर से बड़ा होने की कोशिश करता है ।
तुम उम्र में बहुत छोटे थे, तब । अब तो छह बरस होने को आये । उस आदमी के चले जाने के २-३ बरस बाद । जिसे माँ अपना पति कहा करती थी । उन दिनों मैंने पहली बार उनके अकेलेपन को देखा था । जब उनके अन्दर सबकुछ ख़त्म हो गया था । क्रोध, मोह, भय और प्रेम ।
यह बहुत भयावह था । अकेलापन जो भीतर पनपता है और जिसे बाहर कोई नहीं देख सकता । इंसान के होने और ना होने के मध्य पसरा हुआ । मृत्यु के बाद के अकेलेपन से भी भयावह होता है यह । क्योंकि मृत्यु के बाद स्मृतियों से प्रेम और मोह जुड़ा रहता है ।
छोटे तुम्हें याद नहीं लेकिन उस दिन तुम बहुत रो रहे थे । मैं चलती ट्रेन के पीछे-पीछे बहुत दूर तक दौड़ी थी । मेरी आवाजें रेल की पटरियों तले दब गयी थीं । वो चले गये थे । माँ ने उन्हें नहीं रोका था । उसके बाद से माँ ने समय को कभी दिन, महीने और बरस में नहीं बाँटा । उनके लिये तो वह बस समय था । सूना एकांत में पसरा हुआ ।
एक दिन आया जब वो रीती हो गयीं । शाम के बुझते आलोक में फैले हुए एकांत के रीतेपन की तरह रीती । सर्दियों के चले जाने के बाद पहाड़ों की तरह रीती । तबसे वे हर नये दिन इसमें कैद होती जा रही हैं ।
“तुम्हें याद है, वो कहाँ चले गये ?” छुटके ने जैसे कोई भेद जानना चाहा हो । पता नहीं लेकिन उन दिनों घर पर आने वाले लोग कहते थे कि “उन्होंने दूसरी औरत कर ली है ।” तब उन दो शब्दों ने छोटे को एक पल में ही बड़ा कर दिया था । छोटे मन ही मन दोहराता है “दूसरी औरत” ।
लेखक : अनिल कान्त