दूरदर्शिता – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय  : Moral Stories in Hindi

शाम के साढ़े सात बजे रहे थे,दिवाकर जी अभी तक घर नहीं लौटे थे।

“न जाने कितना काम करने में मन लगता  है इन्हें! जिंदगी भर तो काम करते ही रहे, अब रिटायरमेंट के बाद भी चैन नहीं!” 

अनुराधा जी बड़बड़ाते हुए बार-बार ड्राइंग रूम से बाहर निकल सड़क पर झांकती और फिर अंदर लौट जातीं । उन्हें चाय की तलब हो रही थी।

“अकेले चाय पीने में मजा भी नहीं आता जब तक  कोई साथ ना हो। चाय में वह खुशबू नहीं आती!”

थोड़ी देर बात दिवाकर बाबू जब घर लौटे तो उन्होंने जोर से अनुराधा को आवाज देते हुए कहा “अनु,जरा चाय बनाना।”

अनुराधा जी दो कप में चाय और थोड़े नमकीन लेकर ड्राइंग रूम में आईं ।

दिवाकर जी कपड़े बदलकर वहां  आ चुके थे ।

“इस ठंड में चाय ही जान भर देती है।”उन्होंने चाय का कप उठाते हुए कहा।

“पूरी जिंदगी काम कर कर मन नहीं भरा कि अब ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिए हैं।जिंदगी भर तो गधे की तरह काम करते रहे, अब तो आराम कर लो।”

दिवाकर जी मुस्कुराए,”जब तक देह चल रहा है तब तक से चलने दो फिर आराम करूंगा।”

“ ऐसे तो कभी आराम नहीं कर पाएंगे ।पूरी जिंदगी तो बीत गई सुबह 9:00 से 6:00 करते हुए और फिर  अब दोनों टाइम कोचिंग सेंटर में जाकर पढ़ाने का क्या मतलब है?”अनुराधा जी चिढ़ गईं।

दिवाकर जी चुपचाप मुस्कुरा कर रह गए।यह रोज का ही रूटीन था।जब भी वह लौट कर आते, अनुराधा का भाषण चालू हो जाता।

दिवाकर जी एक प्राइवेट कॉलेज में प्राध्यापक होकर इसी साल रिटायर कर गए थे।

उनके तीन बच्चे थे। एक बेटी ससुराल में थी। दोनों बेटों की शादी हो चुकी थी। दोनों अपनी नौकरी में थे। 

प्राइवेट कॉलेज था,बहुत ज्यादा तनख्वाह नहीं थी। तीन तीन बच्चों की पढ़ाई, शादी ब्याह लेन-देन करते सारी नौकरी चली गई फिर रिटायरमेंट के बाद जो पैसे मिले उससे उन्होंने अपना घर बनवाया। 

पेंशन मिल रही थी लेकिन रिटायर किए दो महीने भी नहीं बीते थे कि उन्होंने कोचिंग सेंटर में पढ़ाना  शुरू कर दिया।

जब घर में सब लोग उनसे पूछते तो वह कहते “मेरा मन नहीं लगता ।शुरू से बच्चों को पढ़ाते आया हूं वही आदत पड़ गई है। उसके बिना मैं बहुत ही बीमार सा महसूस करता हूं।”

कुछ दिनों से उनकी तबीयत भी ठीक नहीं चल रही थी इसलिए भी उनकी पत्नी अनुराधा जी चाहती थी कि वह आराम से घर पर रहे मगर दिवाकर बाबू थे की सुनते ही नहीं थे।

उन्हें सुबह-शाम कोचिंग सेंटर में पढ़ाने में मजा आता था। वह समझा कर थक गई थी। मगर दिवाकर जी सुबह 10:00 बजे नाश्ता चाय वगैरह करने के बाद निकल जाते और फिर 12:00 बजे आते थे फिर शाम को 4:00 बजे निकल जाते तो लगभग 7:00 बजे तक घर आते थे।

पिछले 6 महीने से यही रूटीन चल रहा था।ठंड शुरू हो गई थी और दमा के पेशेंट दिवाकर जी की ठंड में उनकी धड़कन बढ़ रही थी।गले का प्राब्लम तो था ही।

अनुराधा जी परेशान रहती थीं ।

एक दिन शाम को ट्यूशन से लौटते समय हल्की बारिश भी हो गई थी। 

घर लौटने के बाद उन्हें खांसी शुरू हो गई। उन्हें खांसते हुए देखकर  अनुराधा जी ने चाय के साथ काढ़ा भी बना दिया और अदरक तुलसी भी कूटकर शहद के साथ  दिया।

थोड़ी देर बाद खांसी शांत होने लगी। अनुराधा जी नाराज हो गई ।उन्होंने कहा “मेरी समझ में नहीं आ रहा है आप आखिर दोनों टाइम ट्यूशन क्यों कर रहे हैं।आपको समझ में आना चाहिए आप एक बुजुर्ग हो गए हैं। आपका कॉलेज भी आपको रिटायर कर दिया है फिर इस उम्र में काम करने का क्या मतलब है ?”

दिवाकर जी बड़े ही प्रेम से अनुराधा जी की तरफ देखते हुए कहा “समझने की कोशिश करो!”

“क्या कोशिश करो? कितनी बार हर्ष ने, कितनी बार दीप ने हमें कहा ना हमारे साथ रहिए। हम वही जाकर उनके साथ रह लेंगे। यहां आपको काम करने की क्या जरूरत है?”

“देखो अनु, मेरी बात सुनो। दीप्ति की तो शादी कर दिया वहां उसकी अपनी घर गृहस्थी है। हर्ष और दीप की अपनी जिंदगी,अपना घर। किसी के घर जाकर जिंदगी भर रहना ठीक नहीं, इससे रिश्ते तनावपूर्ण होने लगते हैं और वह भी जब अपने जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं हो ।अब हमारे जीवन की सांझ  ढलने वाली है। यह उम्र ऐसा है कि शरीर ही साथ छोड़ देता है। बीमारियां घर कर लेती है।

अपनी जेब से पैसा अपनी बीमारियों पर खर्च करो वही अच्छा रहता है। कम-से-कम मानसिक रूप से बोझ तो नहीं रहेगा मुझपर। फिर दूसरा,काम करते रहने से शरीर भी तो चलता रहता है।

मैं तो यह कहता हूं तुम भी कुछ करो। बेकार में बैठकर टीवी देख कर क्या मिलता है?

 सारी जिंदगी अपनी पूरी  तनखाह बच्चों की पढ़ाई ,उनकी शादी में लगा दिया। रिटायरमेंट के बाद जो पैसा मिला था उसे घर को बनाने में लगा दिया। 

अब मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। बात बात पर बच्चों के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है कि मैं बच्चों को देने के लिए ही तैयार रहूं और फिर जिंदगी का क्या भरोसा कल को अगर मैं ना रहूं तो तुम्हारी जिंदगी भार ना हो जाए। 

बच्चों के बीच तुम बोझ ना बन जाओ इसलिए मैं काम कर रहा हूं और जब तक शरीर चलेगा तब तक करता रहूंगा। भगवान करे मरने तक मेरा शरीर चलता रहे। 

मेरे कोचिंग सेंटर में स्टूडेंट्स मुझे दुआ देते रहते हैं उनकी दुआ मुझे लगेगी। चिंता मत करो मुझे कुछ भी नहीं होगा।”

अनुराधा जी की आंखें भर आईं ।वह दिवाकर जी के हाथों को पकड़ कर रो पड़ी “हां बिल्कुल ठीक कहते हैं जी, सबकी अपने घर गृहस्थी है। हमारी अपनी घर गृहस्थी है और फिर अभी हमारा शरीर तो चल रहा है अभी।

मैं भी कुछ करती हूं। मिसेज शर्मा घर से ही रेडीमेड कपड़ों का बिजनेस करती है। मैं भी ऐसा ही कुछ करती हूं ताकि मेरा मन लग रहे और तो पैसे भी आ जाएं। हमेशा ढलती सांझ अंधेरा नहीं लातीं बल्कि एक नई रोशनी छोड़ जातीं हैं।”

“यह हुई ना परफेक्ट सोलमेट वाली बात!”दिवाकर जी मुस्कुरा दिए।

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प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

नई दिल्ली 

# ढलती सांझ 

बेटियां के साप्ताहिक विषय # ढलती सांझ के लिए।

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना।

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