दुख-दर्द भरी गृहस्थी –   मुकुन्द लाल

कड़ाके की ठंड में भी रानी अपनी माँ मंजुला के साथ कस्बे के पंँचों के दरवाजे पर जाकर अपना दुखड़ा सुना रही थी। अपने चाचा बलवीर द्वारा उसके परिवार पर ढाये जा रहे जुल्म और अनीति युक्त कारनामों के खिलाफ। अपने हिस्से से अधिक मकान पर जबरन कब्जा करने और पुश्तैनी धन-संपत्ति को हड़पने की मंशा के विरोध में फरियाद कर रही थी। इस क्रम में वह पंँचायत के मुखियाजी से भी मिली। मुखियाजी ने पंँचायत में लिखित दर्खास्त देने के लिए कहा। उन्होंने आश्वासन दिया कि इंसाफ अवश्य मिलेगा। उसके माँ और बापू को तो अपने धुरंधर व बेईमान चाचा के खिलाफ अपनी जुबान खोलने की हिम्मत ही नहीं थी किन्तु उसकी पुत्री रानी ने साहसिक कदम उठाकर उसके विरुद्ध शंखनाद कर दिया था। अधिकांश लोग बलवीर के दुःसाहसिक प्रवृत्ति और उसके कारनामों से परिचित हो चुके थे। रानी बलवीर के बड़े भाई संतोष की सबसे बड़ी पुत्री थी। इसके अलावा एक पुत्री शीला, दो पुत्र क्रमशः पवन और उमेश थे।

कुल मिलाकर छः आदमियों का कुनबा(परिवार) था। रानी सांवली तो थी ही, उसके चेहरे पर चेचक के दाग भी थे, इस कारण वह सुन्दर तो नहीं थी लेकिन उसमें अपार हिम्मत थी। उसका हौसला सागर की तरह अथाह था। यही कारण था की उसका परिवार उसको अपनी जान से भी ज्यादा चाहता था। जब कोई लड़की के साथ तुलनात्मक लहजे में किसी लड़के की प्रशंसा करता तो वह बेबाकी से कहती कि ताकत, हिम्मत और इल्म लड़कियों के पास भी होते हैं। आजकल लड़कियाँ भी तो हर मामले में लड़कों के साथ कदम से कदम मिलाकर अपने कार्यों को संपन्न कर रही है। वैसे रानी भी सज-धज कर रहती भले ही कोई युवक उसकी ओर आंँखें उठाकर देखे या न देखे, उसकी रत्ती-भर भी उसे परवाह नहीं थी, उसे तो परवाह थी अपने माता-पिता की घर-गृहस्थी और रोजी-रोटी की जो मुश्किल से चलती थी। उसके दादा मकान की दूसरी मंजिल पर अपने छोटे पुत्र बलवीर के संग अनिच्छा के साथ रहते थे, रहते क्या थे,

जबरन मजबूर किये हुए था रहने के लिए उसका चाचा। उसका दादा अपने समय में उस कस्बे का प्रसिद्ध व्यवसायी था। उस छोटे से बाज़ार में उसकी शान-शौकत और रुतबा था। उसके बापू मकान की पहली मंजिल पर अपने परिवार के साथ रहते थे। उसके बापू संतोष भोले-भाले, साधारण सोच वाले महासंतोषी पुरुष थे। जरूरत से ज्यादा विनम्र थे। न ऊधो का लेना न माधो को देना, उसी का हर तरह से फायदा उसके छोटे भाई बलवीर ने उठाया। बलवीर ने दादा और उसकी सारी दौलत, चल-अचल सम्पत्ति को अपने कब्जे में कर रखा था। बुजुर्ग दादा जो जीवन के अंतिम पड़ाव में थे, उसको इतना डरा धमका दिया था कि उसके खिलाफ जुबान हिलाने की हिम्मत भी उसमें नहीं थी। बलवीर लोमड़ी ऐसा धुर्त किस्म का धुरंधर आदमी था। रानी की मांँ अपने पति को हमेशा समझाती-बुझाती लेकिन उसके सुस्त दिमाग पर कोई असर नहीं पड़ता था। उसको दो मुट्ठी अनाज खाने को मिल जाए वही उसके लिए बहुत काफी था।



वर्षों पहले कमाने खाने के लिए दादा ने, अप्रत्यक्ष रूप से बलवीर ने ही एक पुराना मिल उसके मत्थे मढ़ दिया था जिसमें गेंहू पीसने, सरसों आदि की पेराई और चूड़ा कूटने की मशीनें थी दादा के शेष व्यवसाय को उसने हथिया लिया था। मेहनत-मशक्कत और निगरानी के बल पर उसके परिवार की दो-चार वर्षों तक परवरिश हुई, उस मिल से, लेकिन पुराना मिल तो पुराना ही होता है कलांतर में वह मिल दुर्घटना का कारण बन गया। उस मिल से घर के अंदर जाने का रास्ता था। उस दिन मिल चल रही थी। शीला सब्जी खरीदकर उसी रास्ते से घर जा रही थी। उस रास्ते से थोड़ा हटकर पहियों के बीच में पट्टा( मजबूत फीता) घूम रहा था, पुराना होने के कारण अचानक टूट गया, उस पट्टे की लपेट में वह भी आ गई स्वीच औफ करते-करते पट्टे की चोट से वह गंभीर रूप से घायल हो गई।

आनन-फानन में लोग इलाज के लिए उसको पटना लेकर दौड़ गये। उसकी हालत चिन्ताजनक थी। कर्ज लेकर उसका इलाज करवाया गया। परिवार की तत्परता से वह दो महीनों के बाद स्वस्थ हुई। इस तरह उसकी जान बच गई। मिल के पार्ट-पुर्जे बार-बार टूटने और घिसने के कारण अक्सर मरम्मत या नये पार्ट-पुर्जे बदलवाने की नौबत आने लगी। आमदनी से ज्यादा मिल की मरम्मत. में रुपये खर्च होने लगे। इसके साथ ही कर्ज देने वालों के तगादों से अलग परेशानी हो रही थी। अंत में आजीज होकर औने-पौने भाव में मिल को बेचकर कर्जा चुका दिया गया। थोड़े जो पैसे बचे थे, उससे उसके बापू ने उसी दुकान में चाय की दुकान खोल दी। इतनी बड़ी दुर्घटना और बुरे वक्त में भी बलवीर ने किसी तरह की न तो आर्थिक और न तो नैतिक रूप से मदद की। आंँखें फाड़-फाड़कर दुखद घटनाओं को खामोश होकर वह और उसका परिवार देखता रहा। दादा तो बहुत बुजुर्ग थे, चलने-फिरने में भी असमर्थ थे।

उसपर भी उसके चाचा की सख्त निगरानी थी। तब तक रानी वयस्क हो गई थी। उसके माता-पिता के बाल भी सफेद होने लगे थे। बुढ़ापा उनके जीवन में आहिस्ता-आहिस्ता प्रवेश करने लगा था। रानी अपने चाचा के आचरण और कारनामों से क्षुब्ध तो थी ही जब उसने महसूस किया है कि पहली मंजिल पर भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसके रहने वाले स्थानों में भी अनेक तरह की पाबंदियांँ लगा रखी है तो वह आग-बबूला हो उठी। यह अन्याय उसके बर्दाश्त के बाहर था। वह मकान और चल-अचल संपत्ति का बंटवारा करना चाहती थी जबकि बलवीर उसके खिलाफ था। वह किसी भी कीमत पर बंटवारा नहीं करना चाहता था। उसके महासंतोषी बापू ने कभी भी जोरदार ढंग से अपने छोटे भाई के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई थी या यों कहिए कि बलवीर का डर उसके दिल में जड़ जमाए हुए था। रानी के दोनों भाई छोटे थे किन्तु चाचा के दोनों बेटे बड़े हो गए थे। बलवीर के जोर-जुल्म की आंँधी रानी को नहीं डरा सकी।

वह अपने परिवार के लोगों का आत्मबल बढ़ाती रही। हिम्मत देकर सच्चाई से अवगत भी कराती रही निरंतर अपनी माँ के सहयोग से। जब भी बंटवारे के मुद्दे पर बातें होती, वह खरी-खरी बातों से परहेज नहीं करती। पहले उसके बापू और उसकी मांँ ज्योंही इस मुद्दे पर बात-चीत शुरू करते तोउसके चाचा और चचेरे भाई डांँट-डपट कर चुप करा देते थे। दोनों परिवारों में इतनी बड़ी विषमता थी कि सामान्य दिनों में भी चाचा की तरफ लोग पूए-पकवान खाते थे और खुशियाँ मनाते थे और बड़े भाई की ओर पर्वों और त्योहारों में भी सामान्य भोजन ही नसीब होता था। कारण स्पष्ट था कि बलवीर दादाजी की दौलत पर कुंडली मारकर बैठा हुआ था। ऐसी ही परिस्थितियों में बलवीर की अनुपस्थिति में रानी अपनी माँ के साथ दादाजी से मिलकर कुशल-क्षेम पूछा फिर उनसे बंटवारा से संबंधित बातें की तो पता चला कि उसके जीवन की सारी कमाई के लाखों रुपये और दादी के कुछ सोने के जेवर दादी जो पाँच वर्ष पहले मर चुकी है, उसकी तिजोरी में बन्द है। तिजोरी वाले कमरे में ताला लगाकर उस पर बलवीर ने कब्जा कर लिया है, जबकि उस धन-संपत्ति के दोनों भाई बराबर के हिस्सेदार हैं। उसकी नीयत में खोट था। वह चाहता था कि सारी धन-सम्पत्ति उसकी हो जाए। कुछ महीनों के बाद ही दादाजी का निधन हो गया। श्राद्धकर्म के बाद जब रानी के शुभचिंतकों ने बलवीर से कहा कि घर-द्वार और धन-सम्पत्ति का बंटवारा आपको कर देना चाहिए तो उसने कहा कि किस चीज का बंटवारा करें, घर की जमीन तो नाप-जोख का मामला है, हो सकता है उसमें कुछ फर्क पड़ सकता है, यह कोई मसला नहीं है इसको तो अमीन आकर इसका निपटारा कर देगा। जहाँ तक धन-संपत्ति की बातें हैं तो मंहगाई के जमाने में एक आदमी की मृत्यु के श्राद्धकर्म में काफी पैसे खर्च होते हैं। कुछ तो मांँ(दादी) के श्राद्धकर्म में खर्च हो गए, जो कुछ बचा-खुचा था



वह पिता (दादा) के श्राद्ध में समाप्त हो गए। उसकी दलील झूठ और निराधार थी। उस छोटे से बाज़ार के सभी लोग जानते थे कि बुजुर्ग दादा अपने समय के सफल धनी व्यवसायी थे। इस इलाके में लखपति सेठ के नाम से उस समय मशहूर थे। रानी की मुहिम जारी थी। लोग वस्तु-स्थिति से परिचित हो चुके थे। इसके बावजूद उसके सामने कठिन चुनौती थी। उसने मुखियाजी के कथनानुसार अपने बापू से बंटवारे हेतु पंँचायत में अर्जी दायर करवाई। पंँचायत के पदाधिकारी ने निर्देश जारी किया कि होली के बाद निर्धारित तिथि पर दोनों पक्षों के लोग पंँचायत भवन में उपस्थित रहेंगे। जब लोग होली के राग-रंग में मस्त थे। खुशियाँ मना रहे थे। ऐसे मौके पर उसके चाचा और दोनों बेटे घर में नहीं थे। होली खेलने निकले हुए थे। उसकी चाची पूए-पकवान बनाने में व्यस्त थी। ऐसे ही मौके पर तिजोरी वाले कमरे में चाचा के लगे हुए ताले के ऊपर उसने भी अपना ताला लगा दिया ताकि वह पुश्तैनी धन-दौलत नहीं गायब कर सके।

होली के बाद जब बलवीर को उसकी दादी के कमरे पर नजर पड़ी तो दरवाजे में उसके ताले के अलावा दूसरा ताला लगा देखकर गुस्से से उसका खून खौल उठा। वह रौद्र रूप अख्तियार करके दूसरी मंजिल से तेजी के साथ पहली मंजिल पर उतरा फिर वह अपने बड़े भाई और भाभी को बुरा अंजाम भुगतने की धमकी देने लगा। उसने यह भी कहा कि जिस बेटी को तुमलोगों ने लड़ने के लिए सेनापति बनाया है, उसका तो मैं वह हश्र करूंँगा कि उसकी जिन्दगी कांँटों से भर जाएगी। उसके मांँ-बाप ने कुछ नहीं कहा किन्तु रानी ने बेबाकी से कहा, “यह गीदड़-भभकी अपने पास रखो चाचा!… सच्चाई दुनिया जान चुकी है। उस तिजोरी में आपकी कमाई नहीं है उसमें दादा, परदादा की अर्जित की हुई धन-सम्पत्ति है। उसमें दोनों भाइयों का बराबर-बराबर का हिस्सा है। उसमें रुपये-पैसे नहीं है तो आपने दादी के कमरे में ताला क्यों लगाया? … आपका अधिकार अपने कमरों तक ही सीमित है। ऐसा आपने क्यों किया? जवाब दीजिए! “वातावरण में सन्नाटा छा गया था, जिसको भंग करते हुए रानी ने फिर कहा,” उस कमरे में दादा-दादी दशकों से रह रहे थे फिर बिना बंटवारे के आपके द्वारा ताला लगा देना कहांँ का न्याय है?… इस लिए मैंने भी बापू की सहमति से अपना ताला लगा दिया। ” ” तुम इस घर की बेटी हो, तुमको इस पचड़े में पड़ने से क्या फायदा? इसमें तुमको क्या मिलेगा?… अटवारा-बंटवारा हम दोनों भाइयों का मामला है।…

तुम अपना मुंँह बंद ही रखो तो ठीक है… ” ” वाह!… हम शादी से पहले ही बेगाने हो जाएं, मैं भी मांँ-बाप की संतान हूँ। जब उनलोगों ने खून-पसीना एक करके, दुख-तकलीफ सहकर, पाल-पोषकर बड़ा किया, ऐसी परिस्थिति में कोई कपटी मेरे मांँ-बाप पर जुल्म ढाएगा, उनपर अन्याय करेगा, उनका हक हड़पना चाहेगा और हम आंँखें फाड़कर चुपचाप तमाशा देखते रहेंगे, ऐसा नहीं हो सकता है?… न्याय के लिए, अपने हक के लिए हम अपनी जान दे देंगे किन्तु जीते जी अपने मांँ-बाप पर किसी को जुल्म ढाने नहीं देंगे, अत्याचार नहीं करने देंगे, ईट से ईट बजा देंगे… लड़की हैं इसलिए मत समझना कि हम कमजोर हैं। ” ” ज्यादा बढ़-चढ़कर बातें मत करो!… सीधे मन से ताला खोल दो। ” ” ताला अब पंँचायत के सामने खुलेगा, दुनिया देखेगी न्याय-अन्याय। ” ” ऐसी बातें है?… हमें कानून सिखाने चली है!… ठहर सबक सिखाता हूंँ”कहते हुए बलवीर ने रानी के गालों पर दो-चार तमाचे जड़ दिए।” उसका बापू जब विरोध करने के लिए आगे आया तो उसकी भी मरम्मत कर दी। घर में महाभारत मच गया। बलवीर और उसके बेटों ने उसके पूरे परिवार की पिटाई कर दी। रानी तो पहले से ही खटक रही थी उनकी नजरों में उसकी दम-भर पिटाई कर दी। घर में कोहराम मच गया।



रुदन-क्रंदन की आवाजें घर से बाहर जाने लगी। पास-पड़ोस और बाजार के लोग पहले से ही उसके अन्याय और अत्याचार की कहानी से परिचित थे। उनलोगों ने घर में आकर बलवीर और उसके पुत्रों को प्रताड़ित किया। इतना ही नहीं उनलोगों ने बलवीर को कड़कती आवाज में पंँचायत में अंजाम भुगतने की धमकी भी दी। हुजूम ने यह भी कहा कि मुकदमा हुआ और हमलोग गवाही दे देंगे तो बाप-बेटों के हाथों में हथकड़ियांँ लग जाएगी तब वे लोग दहशत में आ गये और मामला शांत हुआ। जो हो रानी झुकी नहीं, उसने ताला नहीं खोला बल्कि उसने चेतावनी दी कि अगर तुमलोगों ने ताला तोङा तो कानूनी कार्रवाई से नहीं बच सकते हो। होली के बाद निर्धारित तिथि पर पंँचायत भवन में पंँचायत बैठी। बलवीर ने अपना पक्ष पंँचों के समक्ष रखा जिसमें उसने कहा कि मकान का बंटवारा तो नाप-जोख का मामला है। आप ही लोग नापकर बांट दीजिए अमीन बुलाकर। जहाँ तक रुपये-पैसे की बात है तो मेरे पास बाबूजी का कोई पैसा नहीं है।

तब रानी ने पंँचों से इजाजत लेकर कहा, “दादाजी के रुपये तिजोरी में है, और उस कमरे में इन्होंने ताला लगा दिया है।” “तिजोरी में मेरे बड़े भाई का भी ताला लगा हुआ है।” दोनों पक्षों की दलीलें सुनकर पंँचायत ने फैसला सुनाया कि पंँचों की निगरानी में दोनों तालें खोले जाएंगे, जो भी उसमें होगा उसको दो हिस्सों में बराबर-बराबर बांँट दिया जाएगा। तब बलवीर ने बखेड़ा खड़ा किया कि उसके पास तिजोरी के ताले की चाबी नहीं है, खो गई है। तब पंँचायत के मुखियाजी ने पंँचायत में झूठ बोलने पर अंजाम भुगतने की कड़ककर धमकी दी, तो उसने माफी मांगते हुए चाबी होने की बात कबूल कर ली। अंत में पंँचों की टीम के सामने जब तिजोरी का ताला खोला गया तो उसमें लाखों रुपये तो थे ही उसके साथ उसकी दादी की सोने-चांदी के कई जेवर भी थे। रुपयों और जेवरों को समान भाग में बांटकर दोनों भाइयों को दे दिया गया। इसके साथ यह भी फैसला सुनाया गया कि पहली मंजिल पर जिस हिस्से पर उसने कब्जा कर रखा है, वहांँ से एक सप्ताह के अन्दर अपना कब्जा हटाकर पंँचायत को खबर करे। फैसले की अवहेलना करने पर कानूनी प्रावधानों के तहत दंडित किया जाएगा। बलवीर का चेहरा इस फैसले से स्याह पड़ गया। रानी और उसके परिवार के चेहरे जीत की खुशी से दमकने लगे। लेकिन आज भी जब-जब पछुआ(पश्चिमी) हवा चलती है तो चाचा और चचेरे भाइयों के द्वारा रानी की जमकर पिटाई करने के कारण उसकी देह में असहनीय दर्द उपट(उत्पन्न) जाता है जिससे बेचैन होकर वह कराह उठती है।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल हजारीबाग(झारखंड)
#दर्द

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