दुआ – नीलम सौरभ

शहर में पहली बार आयोजित होने वाले विपश्यना शिविर में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए प्रतीक्षा कक्ष में बैठी चित्रा को महीनों बाद पुराने मोहल्ले की पड़ोसन सखी गायत्री मिल गयी, जिसके साथ उसकी अभी वाले कॉलोनी की पड़ोसन शालू भी थी।

चित्रा को पहली नज़र में ही शालू बड़ी हँसमुख, खुले दिल की और बातूनी लगी। यूँ तो चित्रा और गायत्री कम बोलती थीं, मगर यहाँ देर से अपनी बारी आने का इंतज़ार करते बोर हो चुकी थीं अतः थोड़ी ही देर में वे आपस में घुलमिल कर बतियाने लगीं। अलग-अलग मुद्दों पर उनकी हल्की-फुल्की बातें होने लगीं।

थोड़ी देर बाद बातों का रुख़ मानसिक तनाव और क्रोध की ओर मुड़ गया था। अपनी बात रखती शालू कहने लगी,

“मुझे ऐसे लोग ज़रा भी नहीं भाते, जिन्हें छोटी-छोटी बातों में झट से गुस्सा आ जाता है और जो क्रोध को नियंत्रित न कर पाने के कारण दूसरों को बददुआएँ देने लगते हैं। …सच कह रही हूँ, मुझे बहुत ख़राब लगता है, ऐसे लोगों का सोच कर भी, जो किसी का भी बुरा होने की बात मुँह से निकालते हैं!”

“अरे बहन, इसमें क्या अनोखी बात है, …कई बार किसी के ग़लत व्यवहार या अन्याय से लोगों का दिल दुख जाता है तो उन्हें दुःख के कारण गुस्सा भी आ जाता है और वे अगले के बारे में बुरा बोलने लगते हैं!”

चित्रा ने शान्ति से प्रतिवाद में अपना नज़रिया रखा तो क्रोधावेश में तनिक ऊँची हो आयी आवाज़ में तुरन्त ही शालू बोल पड़ी,

“नहीं भाभीजी! यह कोई छोटी सी बात नहीं होती…ऐसे दूसरों का बुरा सोचने वालों के लिए तो भगवान से मैं यही दुआ करती हूँ कि उनका कभी भला न हो, बल्कि दो गुना बुरा हो…तभी उन्हें सबक मिलेगा कि किसी को बददुआ नहीं देनी चाहिए!”

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स्वरचित, मौलिक

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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