द्रोण – विनय कुमार मिश्रा

“प्रकाश सर का घर यहीं है क्या?”

कौन प्रकाश? यहां तो इस नाम का कोई नहीं रहता बाबू”

वो चारो लगभग सत्ताईस अठाइस साल के युवक, चमचमाती हुई बड़ी गाड़ी खड़ी कर कुछ सोचने लगे। उन चारों ने एक तस्वीर दिखाई मुझे।

“ये जो बीच में हैं, हम इन्हें ही ढूंढ रहे हैं”

तस्वीर कुछ जाना पहचाना सा लगा,मैं भी सोच में पड़ गया। अचानक दिमाग पर जोर देने पर कुछ कुछ ये तस्वीर ओम से मिल रही थी”

“ये तो ओम..”

“हां ,हां वही ओम प्रकाश जी”

ये उसके नाम के आगे जी लगा रहे हैं, पिछले सात सालों से तो कोई उससे मिलने ही नहीं आया। जब से शहर से दुबारा आया है। पत्नी जवानी में ही चल बसी, बाल बच्चे हैं नहीं। दो साल जेल काट कर आया है, किसी तरह जीवन जीता है अपना। ये कौन सी लॉटरी लग गई इस गरीब की।

“बाबू! सामने वाला खपड़ैल का मकान है, जहां लौकी का लतर लटक रहा है वहीं”

मैं उन्हें घर बताकर जरा वाकया समझने पीछे हो लिया। उनमें से एक गाड़ी के पास ही रुका रहा। बाकी तीनों जाते ही उसे देख पैर छूकर प्रणाम करने लग गए। मैं आश्चर्य से खड़ा हो उन्हें देख रहा था

“कौन हैं आपलोग?

“सर, मैं राघव, ये संदीप, और ये पवन है, जीनियस क्लासेज में आपसे पढ़ा करते थे”



“अच्छा, अच्छा, कैसे हो तुमसब? यहां कैसे?”

“सर हम ठीक हैं, आप तो बहुत बीमार लग रहे हैं” हमने बहुत ढूंढा आपको, फिर पता चला आप सब कुछ छोड़ यहां अकेले..”

“हां और क्या करता, शहर में मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं.. और वो इल्ज़ाम..”

“सर सौरभ, भी आया है.. आपसे माफ़ी मांगने”

“माफ़ी क्यूँ? मैं जानता हूँ, वो निर्दोष था”

चेहरे पर बिना कोई भाव लाये ओम ने कहा।

जिस सौरभ की वो बातें कर रहे थे, वो भारी कदमों से ओम के करीब पहुंचा था।

“सर! मुझे माफ़ कर दीजिए, मेरे कारण से आपको, दो साल सजा काटनी पड़ी”

ये कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गए थे

“जिस तरह माँ बाप अपने बच्चे को पहचान जाते हैं, एक शिक्षक भी अपने छात्र को समझ जाता है”

पर सर आपने किसी की नहीं सुनी, आपने अपनी ज़िंदगी..”

“वो ड्रग्स किसी ने जानबूझकर तुम्हारे बैग में रखा था, ताकि तुम उस एग्जाम में ना बैठ पाओ, मेरे पास वो इल्जाम लेने के सिवा कोई रास्ता नहीं था, मैं अपनी आधी ज़िंदगी जी चुका था, और आगे तुम्हारे पूरे करियर का सवाल था”

लड़कों की आँखों में आँसू थे। और मेरे भी, एक हीरा इतने दिनों से हमारी आंखों के सामने था, जिसकी चमक हम देख ना सके

“सर हम आपको लेने आये हैं, प्लीज मना मत करिएगा” लड़को ने हाथ जोड़ते हुए कहा

“नहीं सौरभ! मैं ठीक हूँ यहां”

“सर! क्या आप पर हमारा इतना भी हक़ नहीं?

“हां सर!आप हमारे लिए वो गुरु द्रोण हैं, जिसने अपने शिष्य का अंगूठा नहीं काटा, बल्कि अपने शिष्यों को अपनी पूरी ज़िंदगी काट कर दे दी। क्या आपकी सेवा करना भी हमारे हिस्से नहीं आएगा?”

ओम ने उनके कंधे पर हाथ रख उनके साथ जाने की सहमति जता दी। गुरु शिष्य की ऐसी बानगी देख..आज मेरे साथ साथ इस धरती का सीना भी चौड़ा हो गया..!

विनय कुमार मिश्रा

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