चल मृदुला उठ कुछ खा पी ले …दो दिन हो गये .. आखिर कब तक यूँ ही रोती और शोक मनाती रहेगी।
कैसे सब्र करूँ सुचेता साल भर के अंदर एक- एक कर चारों बेटे भगवान् को प्यारे हो गये।मेरी एक न सुनी किसी ने.. अरे मैं तो दृष्टिहीन थी पर हर काम सुचारु रूप से किया और वे आँखें होते हुए भी नशे के अंधेरों में ऐसे खोये कि दीन दुनियां की खबर ही नहीं रही।
न पत्नी की परवाह न बच्चों की.. बच्चे भूख से बिलबिला रहे होते पर उन्हें तो हर कीमत पर नशा चाहिए होता।पल- पल मौत की ओर बढ़ते हुए
बेटों को समझाने की हर कोशिश नाकाम रही और जिन्हें मैंने अपनी गोद में खिलाया था उन्होंने मेरे जीते जी मेरे सामने ही तड़प – तड़प कर दम तोड़ दिया।जिन्हें मेरी अर्थी को कंधा देना था उनकी अर्थी सजाने की व्यवस्था मुझे ही करनी पड़ी कितनी अभागी हूँ न मैं।
बहुएं भी अपने बच्चों को लेकर मायके चली गई।यहाँ करतीं भी क्या मेरे नालायक नशेड़ी बेटों ने उनके लिए न तो जमीन- जायदाद छोड़ी और न ही रुपया- पैसा यहाँ तक कि जब नशे के लिए कुछ नहीं मिलता तो घर के बर्तन भी बेच आते।अकेली प्रेत की तरह भटकती फिरती हूँ पूरे घर में।
इतनी लंबी उम्र की मुझे क्या जरूरत थी जब से होश संभाला है तभी से ईश्वर से विनती करती रही कि मुझे अपने पास बुला ले पर मेरे लिए तो उसका दिल भी बिल्कुल पत्थर हो गया है जितनी मौत मांगी उतनी मेरी उम्र बढ़ाता गया वो।
यह दुःख तो मेरी किस्मत में पैदा होने से पहले ही लिख दिया था विधाता ने। जब 3-4 महीने की हुई तो माँ को देखकर अन्य बच्चों की तरह मेरी कोई प्रतिक्रिया न देख माँ समझ गई कि उसकी प्यारी परी दृष्टिहीन पैदा हुई है। जैसे- जैसे बड़ी होती गई उपेक्षा हर कदम मेरे साथ चलती रही।
जिसके भी साथ रही उसके लिए परेशानी का कारण बनती रही और अपनी किस्मत पर आठ- आठ आँसू रोती रही।
अपने दृष्टिहीन होने का दंश तो मैंने सह लिया पर बेटों के नशे में जान बूझकर मौत के मुँह में खुद को झोंकने के दंश ने मेरे घर के आंगन में मौत के सन्नाटे को बसेरा दे दिया और मेरे नन्हे मुन्नों को घुट- घुट कर जीने के लिए मजबूर कर दिया।
हे प्रभु आज के युवाओं को सद्बुद्धि देना कि वे इस जहर से दूर रहें अपने बारे में न सही अपनों के बारे में एक बार जरूर सोचें।
# मुहावरा- आठ – आठ आँसू रोना
स्वरचित एवं अप्रकाशित
कमलेश राणा
ग्वालियर