आज मुग्धा और मधुर के विवाह की दसवीं वर्षगांठ थी, आज अठारह फरवरी है मुग्धा को अचानक याद आई इस तारीख में छिपी वह रात जब मधुर के साथ उसने सात फेरे,, सात वचन के संस्कार पूरे किए थे.
इन सात फेरों और सात वचन का मान क्या हर दम्पत्ति रख पाते होंगें, सोच रही थी मुग्धा, कितना कठिन होता है ना.. एक एक वचन को निभाना,इतना कठिन कि एक दिन इन वचनों को न निभाने की वजह से पूरा दांपत्य जीवन ही दाँव पर लग जाता है. तभी तो आज मुग्धा मायके में आ पड़ी है. कमरे में बैठे-बैठे यूं ही बरबस रो पड़ी,आज दस दिनों से वह आई हुई है..
मधुर ने एक बार भी फोन से हाल-चाल लेने की कोशिश नहीं की… बच्चों का भी कुशल क्षेम पूछने की आवश्यकता नहीं रही क्या… और आज.. आज तो उनके विवाह की वर्षगाँठ…यू वर्षगाँठ का क्या है..पिछले नौ वर्षगाँठों में कौन सा उन्हें कुछ याद रहा था, कब हमने अपनी यह तिथि मनाई थी,,कभी नहीं.
मुग्धा उठी मुँह धोकर बाहर चली गई, बच्चे अपनी नानी के साथ खेल रहे थे मुग्धा रसोई में चली गई, सोचा माँ के साथ एक कप चाय पी कर ही यह दिन मना ले.. तभी कनु दौड़कर आई.. मम्मा पापा ने आज फोन नहीं किया..
नहीं.. क्यों..आज क्या कोई विशेष बात है जो फोन करेंगे.. जा तू नानी के पास जा..
नानी ने बताया है मुझे कि आज तुम्हारी शादी हुई थी..
कह कर कनु तेजी से बाहर भाग गई.. उसे लगा शायद मम्मी मारेगी उसे लेकिन मुग्धा उसकी बात पर अनायास ही मुस्कुरा दी.
इन बच्चों को जब भी देखती है वो मन ग्लानि और अपराध बोध से भर जाता है,इन मासूम बच्चों का भविष्य क्यों दांव पर लगा रहे हैं वे दोनों अपने-अपने अहम की लड़ाई में.
मुग्धा की शादी बहुत उम्र हो जाने पर हुई थी, मधुर उम्र में उससे और भी ज्यादा बड़े थे,, बस विचारों की टकराहट से यह संबंध खराब होता चला गया.
मुग्धा की सोच मधुर से हर मामले में अलग होकर टकरा जाया करती थी, अब क्या-क्या ही समझौता करती चले.. ना उन्हें घूमने का शौक था, ना घुमाने का, न घर को सलीके से रखने में दिलचस्पी,, बेहद आराम तलब तो छोड़ो.. जरा भी आराम की जिंदगी जीना उन्हें नागवार गुजरती थी, छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने में खींचातानी और रस्साकशी होती थी.
और मुग्ध तो बहुत शौकीन थी, पापा इतने सक्षम थे नहीं कि उसे कहीं घुमाने ले जाते मगर उसे घूमने, दुनिया देखने का बड़ा शौक था,सोचा था उसने कि शादी के बाद अपने जीवन सहचर के साथ साल में एक टूर तो करेगी ही मगर मन का सोचा पूरा ही हो जाए तो धरती स्वर्ग ना हो जाए. पता नहीं किस बात पर शुरू होता था झगड़ा और किस मुद्दे की लड़ाई हो जाती थी, पता ही नहीं चलता.
मुग्धा कभी-कभी सोचती भी थी कि हो सकता है मधुर सही ही हों, उनके नजरिए से ठीक ही हो कि उन्हें सीमित संसाधनों में गुजर बसर करना चाहिए मगर मुग्धा की भी तो कुछ ख्वाहिशें थीं.. क्या दस में से दो को भी पूरा न कर सकते थे मधुर.. ऐसा तो ना था.. सरकारी विभाग की नौकरी थी मगर उनकी परवरिश ही ऐसी थी कि कामना तो जाना मगर जिंदगी जीने की दौड़ में पीछे रह गए.
हमेशा बच्चों का मुँह देखकर मुग्धा तैश में आने के बाद भी चुप रह जाती और फिर से अपनी उसी घिसी पिटी, नीरस जिंदगी में रम जाती.
एक सहेली ने कहा था, एक बार.. उससे.
तू डोर मैट हो गई है मुग्धा..तेरी जरूरत होते हुए भी तेरी कोई कदर नहीं है घर में.. क्यों जी रही है ऐसे.. तोड़ दे सारी वर्जनाएं.
तोड़ दूं..क्या सच में.. आसान है यह मुग्धा सोचती और आज का दिन है कि सारी वर्जनाएं तोड़कर वह सचमुच मायके आ गई है.
माँ को उसके फैसले पर कोई आपत्ति नहीं है.. पापा के बने एक छोटे से घर में मां अकेले ही तो रहती हैं, उन्हें भी साथ मिल जाएगा मगर बच्चों.. बच्चों का साथ तो छूट जाएगा ना अपने पिता से..माँ अगर नीम, बरगद, पीपल है तो पिता इन सारे वृक्षों की छाँव है जिसके नीचे संतान पनाह पाती है सुरक्षित महसूस करती है.
चाय खत्म करके मुग्धा उठी और सीधे कमरे में जाकर सामान बाँधने लगी..वह जानती है.. मधुर आँखों के सामने से हट जाने पर और अधिक भावहीन हो जाते हैं..आँखों के समक्ष रहने पर कम से कम बच्चों की जिम्मेदारी तो उठाते हैं..ना सही जिम्मेदारी.. एक छाँव तो देते हैं.. बच्चों को पनपने के लिए वही बहुत है वरना ये फूल दुनिया वालों के तानों की तल्ख धूप में मुरझा जाएंगे.
अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए हर माँ को डोर मैट बनने से गुरेज नहीं ही करना चाहिए..उसे भी नहीं.. सामान और बच्चों के साथ मुग्धा चल दी अपने पति के दरवाजे तक.
#रिश्तों की डोरी टूटे ना
श्वेता सोनी
VM