” मालकिन…ये देखिये…अंशुल भईया का अखबार में फोटू छपा है और उनके बारे में भी कुछ अच्छा लिखा है।” घर का ड्राइवर सुशील उमा जी को अखबार दिखाते हुए बोला।
” ला…दिखा तो…।” बेटे का नाम सुनकर वो चहक उठी थीं।अखबार लेकर उन्होंने पास बैठे अपने पति रमाकांत जी को बेटे की तस्वीर दिखानी चाही तो उन्होंने अपना मुँह दूसरी तरफ़ घुमा लिया।
बत्तीस बरस पहले उमा जी का विवाह रमाकांत जी के साथ हुआ था।शांत-सरल स्वभाव की उमा जी ने कभी भी अपने पति से कोई शिकायत नहीं की थी।रमाकांत जी की स्टील फ़ैक्ट्री थी जो उनके पिता ने लगाई थी।पिता के बाद उनकी मेहनत और लगन से फ़ैक्ट्री और भी तरक्की करने लगी थी।
शुरुआती दिनों में रमाकांत जी को फ़ैक्ट्री से घर आने में अक्सर ही देर हो जाती थी लेकिन उमा जी ने पति से कभी कोई प्रश्न नहीं किया।ईश्वर की कृपा से उन्हें पहली संतान बेटी ईशा पैदा हुई।दो साल बाद जब बेटे अंशुल का जनम हुआ तब रमाकांत खुश होकर पत्नी से बोले कि मेरी फ़ैक्ट्री को ऊँचाइयों तक यही ले जायेगा।समय के साथ दोनों बच्चे बड़े होने लगे।
दसवीं के बाद ईशा ने आर्ट्स लेकर बारहवीं की परीक्षा दी और फिर ग्रेजुएशन करने लगी।अंशुल डाॅक्टर बनना चाहता था, इसलिए उसने दसवीं के बाद साइंस में बायोलाॅज़ी लिया जो उसके पिता को पसंद नहीं आया।फिर भी उन्होंने बेटे की इच्छा को स्वीकार कर लिया।अंशुल ने मेडिकल का एंट्रेंस एग्ज़ाम क्लियर किया और मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले लिया।
एक दिन रमाकांत के मित्र कृपाशंकर ने उनसे फ़ोन करके कहा,” रमाकांत…मेरा रोहित इंजीनियरिंग पास करके दिल्ली में नौकरी कर रहा है।ईशा बिटिया भी इस साल अपना ग्रेजुएशन कंप्लीट कर लेगी तो आपका क्या विचार है..।दोनों बच्चे एक-दूसरे को जानते तो हैं ही..फिर भी आप बिटिया से पूछ ले तो…।”सुनकर रमाकांत बहुत खुश हुए, बोले,” आपने तो मेरे मुँह की बात छीन ली।शुभ दिन देखकर दोनों की सगाई कर देते हैं और इम्तिहान हो जाने के बाद शादी।”
एक शुभ मुहूर्त में ईशा का रोहित के साथ विवाह हो गया और वह दिल्ली चली गई।अंशुल अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी करने में तल्लीन था।इसी बीच रमाकांत की छोटी बहन मालती के पति का देहांत हो गया।ससुराल वालों ने उसकी ज़मीनें भी हड़प ली।मालती अपने बीस वर्षीय बेटे अनूप के भविष्य को लेकर बहुत परेशान थी तब उमा जी ही ने उन्हें सहारा दिया और रमाकांत से बोलीं कि अनूप को ट्रेनिंग दिलवाकर फ़ैक्ट्री के किसी काम में लगा दीजिये।
अंशुल को डाॅक्टरी की डिग्री मिली तब रमाकांत ने दावत दी।वो अंशुल के लिये क्लिनिक खुलवाना चाहते थें।अंशुल प्रैक्टिस करेगा..उसका नाम होगा..प्रतिष्ठा होगी और तब अपने परिचित की शिक्षित बेटी से उसका विवाह करा देंगे।लेकिन सोचा हुआ तो कभी पूरा होता नहीं।अंशुल ने कहा कि पापा..शहर में तो डाॅक्टरों की कमी नहीं है लेकिन मरीज तो गाँवों- कस्बों में भी है जहाँ न तो डाॅक्टर है और न ही सुविधायें।मैं उन्हीं लोगों की सेवा करना चाहता हूँ।
सुनकर रमाकांत बहुत क्रोधित हुए थें, ” तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया..शहर की आराम-परस्त जिंदगी को छोड़कर…हमसे अलग होकर भूखे-नंगों के बीच रहना चाहता है…।मैं ऐसा हर्गिज़ होने नहीं दूँगा।तुम यहीं प्रैक्टिस करोगे…।इतने साल तो दूर रहे और अब…।तुम चले जाओगे तो मेरी देखभाल कौन करेगा?”
रमाकांत ने अपने पिता होने का अधिकार जताया।तब अंशुल बोला,” पापा…मैं कोई दूर तो जा नहीं रहा…पास के गाँव में ही तो…फिर अनूप है ना आपके पास…।” तब रमाकांत बोले,” कर ले अपने मन की लेकिन मुझसे बात मत करना।” पिता को नाराज़ करके अंशुल नहीं जाना चाहता था।दो दिनों तक घर में पिता-पुत्र के बीच चुप्पी छाई रही।दोनों के बीच पिस रहीं थीं उमा जी।
तब ईशा ने अपने पिता को समझाया,” पापाजी…बेटे से मन-मुटाव करने से क्या फ़ायदा…मान जाइये…हमारा अंशुल एक नेक काम करने जा रहा है।नयी पीढ़ी में ऐसी सोच बहुत कम देखने को मिलती है।” बेटी की बात को वो नहीं टाल सके और खुशी-खुशी बेटे को ग्रामीण इलाके में प्रैक्टिस करने की इजाज़त दे दी।एकाध बार पत्नी के संग बेटे से मिलने भी गये।बेटे की सफलता से वो खुश तो थे लेकिन नाज़ों से पाला हुआ उनका बेटा कष्ट सहे, ये उन्हें गँवारा न था।
जब अंशुल को प्रैक्टिस करते छह माह से ऊपर हो गये तब रमाकांत ने सोचा कि अब बेटे का विवाह करा दूँगा तो स्वतः ही अंशुल शहर में शिफ़्ट हो जायेगा।यही सोचकर वो अपने परिचित से बात करने ही वाले थें कि एक दिन अचानक अंशुल गले में माला पहने एक लड़की के साथ उमा जी के सामने खड़ा हो गया और उनसे बोला,” माँ…ये मेरी पत्नी प्रिया है।कल ही हमने मंदिर में शादी की है।” उमा जी कुछ कहती-सुनती तब तक में तो रमाकांत गुस्से-से पागल हो गये,” हमेशा से अपने मन की करता आया है और अब विवाह भी..हम तो जैसे तेरे लिये कुछ है ही नहीं।”
उमा जी बेटे-बहू को कमरे में ले गई।तब अंशुल ने उनसे क्षमा माँगते हुए कहा कि माँ…मैं वहाँ अकेला-अनजान था।तब प्रिया के भाई वरुण ने मुझे रहने को जगह दिया…प्रिया भी मरीजों के इलाज़ में हमेशा मेरी मदद करती थी।एक सड़क-दुर्घटना में वरुण की मृत्यु हो गई तब प्रिया एकदम अकेली हो गई।अब आप ही बताइए..उस विपरीत परिस्थिति में प्रिया को मैं अकेले कैसे छोड़ देता.. तब गाँव वालों ने ही पंडित बुलाकर हमारी शादी करवा दी।”
सच जानकर उमा जी ने बेटे-बहू को आशीर्वाद दिया और पति को सारी बातें बताकर कहा,” गुस्सा थूक दीजिये और बेटे-बहू को आशीर्वाद दीजिये परन्तु रमाकांत जी ने बेटे से बात नहीं की।अगले दिन अंशुल पत्नी के साथ वापस गाँव चला गया और मरीजों का इलाज करने में खुद को व्यस्त कर लिया।उसकी निस्स्वार्थ सेवा की प्रसिद्धि आसपास के गाँवों में भी फैलने लगी।तब एक पत्रकार ने उसका इंटरव्यू लिया जो अखबार में छपा में था।
उमा जी अखबार सोफ़े पर रखकर रसोई में चली गईं तब रमाकांत जी ने लपककर अखबार उठा लिया…बेटे की तस्वीर देखकर खुशी के आँसू उनकी आँखों से बह निकले।पत्नी से कहते नहीं थे लेकिन बेटे से बिछोह की तड़प तो उन्हें होती ही थी।
फिर एक दिन अंशुल ने फ़ोन करके उमा जी को बताया कि माँ..आप लोग दादा-दादी बनने वाले हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।बहू को ये मत करना..ऐसे रहना…तमाम नसीहतें देकर बोलीं कि कल ही आती हूँ।रमाकांत जी भी बहुत खुश हुए लेकिन पत्नी के कहने पर उन्होंने अपने चेहरे पर उदासीनता के भाव ले आये थें।अपनी ज़िद में वो खुद ही घुले जा रहें थें।फ़ैक्ट्री में जब कोई स्टाफ़ उन्हें पोता या पोती होने की खुशखबरी सुनाता तो उनके कलेजे में एक हूक-सी उठने लगती थी।
एक सुबह रमाकांत जी सैर के लिये निकल रहे थें तभी उमा जी बोली,” अंशुल के गाँव वाले बहू की गोद-भराई की रस्म कर रहें हैं।उसने आपको बुलाया है..कल मेरे साथ आप चल रहें हैं ना..।” पत्नी के प्रश्न का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और टहलने निकल गये।उमा जी बुदबुदाईं,” दोनों ही ज़िद्दी हैं।” और बेटे के पास जाने की तैयारी करने लगीं।
पार्क का तीन चक्कर लगाकर रमाकांत जी एक बेंच पर बैठकर सुस्ताने लगे।उन्होंने देखा कि पास बैठे सज्जन के पास एक छह वर्षीय बच्ची आती…उन्हें प्यार करती और फिर चली जाती।उन्होंने उन सज्जन से कहा कि आप बहुत किस्मत वाले हैं। बच्चे आपके कहे अनुसार चलते हैं।तब वो सज्जन हा-हा करके हँसने लगे और बोले,” साहब… मन-मुटाव तो हर घर में होता है।
पीढ़ियों का अंतर है तो विचार अलग होंगे ही…मतभेद होगा ही लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए।हमारी इकलौती बेटी अपनी पसंद के लड़के से विवाह करना चाहती थी…मैंने मना कर दिया तो बाप-बेटी के बीच अनबन हो गयी।साथ रहकर भी पिता-पुत्री के बीच कोई संवाद नहीं होता था।तब मेरी पत्नी ने मुझे समझाया कि जिसके लिये आपने मंदिरों के दरवाज़े खटखटाये थे, उसी से रूठे बैठे हैं।उसकी पसंद को अपनाकर कड़वाहट दूर क्यों नहीं कर देते।बस भाई…
उसी दिन हमने अपनी ज़िद छोड़ दी।जब समय मिलता है, बेटी पलक(नतिनी) को हमारे पास छोड़ जाती है।हम दोनों…।” सज्जन बोलते जा रहें थें और रमाकांत जी सोचने लगे कि उमा भी तो मुझे ऐसे ही समझाती थी लेकिन मैंने उसकी बात कभी नहीं सुनी।वो वहाँ से घर चले आये।
अगले दिन उमा जी बेटे के पास पहुँच गयीं।अंशुल माँ के चरण-स्पर्श करके पीछे खड़े अपने पिता को देखा तो खुशी-से बोल पड़ा,” पापा..आप…।” रमाकांत बेटे को सीने-से लगाकर रो पड़े।आज उनका ज़िद हार गया और वात्सल्य की जीत हो गई थी।उमा जी ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया।कुछ देर बाद ईशा भी अपने पति-बेटी के संग आ गई थी।
उमा जी कुछ दिन बहू के साथ रहीं और फिर अपने साथ ले आईं।प्रिया ने एक बेटे को जनम दिया।रमाकांत जी ने दादा बनने की खुशी में बहुत बड़ी दावत दी।पार्टी में वो खूब नाचे।उन्हें नाचते देख कोई नहीं कह सकता था कि कुछ समय पहले तक उनका अपने बेटे के साथ कोई मन-मुटाव था।
विभा गुप्ता
# मन-मुटाव स्वरचित
पारिवारिक सदस्यों के बीच विचारों में विभिन्नता होना स्वाभाविक है परन्तु किसी तरह का मन-मुटाव नहीं होना चाहिए।एक-दूसरे की पसंद का ख्याल रखने और उसका सम्मान करने में ही समझदारी है जैसा कि उमा जी और रमाकांत जी ने किया।