बात जब भी मलिनता की आती है तो सबसे पहले कीचड़ की याद आती है जिसे छू लेने भर से साफ सुथरा दामन दागदार हो जाता है और जब शुचिता और पवित्रता का ध्यान आता है तो सबसे पहले कमल की याद आती है… कितना अजीब है न यह कि उसी कीचड़ में खिलकर भी वह निस्पृह रहता है।
कुछ ऐसे ही दोहरे मापदंड के उदाहरण हम रातदिन समाज में अपने चारों ओर भी देखते हैं।
वसुधा की उम्र जब सिर्फ आठ वर्ष थी,, उसकी मम्मी चाहती थी कि उसका चहुंमुखी विकास हो और इसके लिए वो बहुत मेहनत भी करती ,, उसे शाम को पहले कराटे क्लास छोड़कर आती , उसके बाद डांसिंग क्लास, फिर लेने भी जातीं । हालांकि घर में नौकर भी थे पर बेटी के मामले में उन्हें किसी पर विश्वास नहीं था।
आजकल हर रोज जो घटनाएं देखने पढ़ने में आ रही हैं, उनमें एक माँ का अपनी बेटी के लिए जागरूक होना गलत भी नहीं है,तभी से वह हर ऊंच नीच समझाती रहतीं हैं उसे।
अगर कोई अनहोनी की संभावना हो तो अपना बचाव कैसे करना है, वैसे तो महिलाओं की छठी इंद्री बहुत सक्रिय रहती है, वह परिस्थिति की नजाकत को बहुत जल्दी भांप जाती हैं।
थोड़ी बड़ी हुई 10th में आई तो कुछ और चीजें जुड़ने लगीं समझाइश में,, जैसे किसी के प्रेम में नहीं पड़ना है, कॅरिअर पर ध्यान देना है, वगैरा वगैरा।
“क्या माँ आप हर वक्त मुझे ही समझाती रहती हो, भाई से तो कभी कुछ नहीं कहतीं। क्या वो जो भी करे सब ठीक है। “
“बेटा तुममें और उसमें जमीन आसमान का अंतर है , लड़की की इज्जत कांच जैसी होती है । अगर उसके साथ कोई अनहोनी हो जाये तो समाज़ में उसका जीना मुश्किल हो जाता है, वह किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहती। कोई भी भले घर का लड़का उससे विवाह नहीं करना चाहता, उसके दामन पर सब कीचड़ उछालते हैं। “
माँ कमल भी तो कीचड़ में ही खिलता है पर वह तो उसके संसर्ग में रहकर भी मैला नहीं होता। इसका मतलब तो यह हुआ कि अगर कोई पुरुष किसी स्त्री को अकेला पाकर उसका शीलभंग करता है तो वो पुरुष कीचड़ के समान अपवित्र है जिसके स्पर्श से महिला का दामन दागदार हो जाता है, फिर दोष महिला को क्यों दिया जाता है। “
वहीं दूसरी ओर समाज़ वेश्या को बहुत तिरस्कार के साथ देखता है फिर भी अगर पुरुष वेश्या के साथ समागम करता है तो भी वह अपवित्र नहीं होता यानि अनेक पुरुषों के साथ संबंध बनाने के बाद भी वह पवित्र ही रहती है तो फिर माँ स्त्री तो हर रूप में, हमेशा कमल की तरह पवित्र ही है न, उसके संसर्ग से तो पुरुष को कोई फर्क नहीं पड़ता ।
फिर ये दोहरे मापदंड क्यों माँ? क्यों वह अग्निपरीक्षा के कठघरे में खड़ी होती है? क्यों हरदम सवालिया निगाहें उसका पीछा करतीं हैं??
बेटा हमारे समाज़ ने स्त्रियों के लिए यही नियम बनाये हैं, क्योंकि वह परिवार की धुरी है, उसकी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, उसकी भटकन सामाजिक व्यवस्थाओं को तहस नहस कर सकती है इसलिये उससे अधिक समझदारी की उम्मीद की जाती है।
वो ठीक है माँ, पर सारे बंधन, सारे दोष उसी के मत्थे क्यों मढ़ दिये जाते हैं, तभी तो मैथिलिशरण गुप्त ने पंचवटी में कहा है-
नरकृत शास्त्रों के सब बंधन, हैं नारी को ही लेकर,
अपने लिये सभी सुविधाएं, पहले ही कर बैठे नर।
वसुधा अब बहस बंद करो और चलो मेरे साथ किचिन में हाथ बटाओ।
आज वसुधा के सवालों ने उसकी माँ को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था।
कमलेश राणा
ग्वालियर