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दीपा एक संयुक्त रुढ़ि वादी परिवार की बड़ी बहू थी । मां बाप की लाड़ली दादी की परी एक सुन्दर तितली की तरह पूरे घर में उड़ती रहती थी । जितनी पढ़ने में होशियार उतनी ही शरारती । जतिन एक धनवान व्यापारी परिवार का लाडला पता ना कैसे किसी विवाह कार्यक्रम में इस हसीन तितली से टकरा गया और दिल दे बैठा । दीपा के पापा रमेश जी के पास जब किसी मध्यस्थ के द्वारा जतिन के पापा निरंजन जी ने दीपा का हाथ जतिन के लिये मांगा तब रमेश जी ने कहा कि दीपा अभी पढ़ रही है पर जब निरंजन जी ने कहा कि उसकी पढ़ाई बन्द नहीं होगी तब घर पत विचार विमर्श करके दीपा के ना करने पर भी सबने उसको समझाया और शादी की हां कर दी ।
दीपा ससुराल आगयी पर कुछ दिन में ही समझ आगया कि मां के घर में सबकी सोच और ससुराल के सदस्यों की सोच में बहुत अन्तर है। जतिन का स्वभाव भी बहुत उग्र था । जब उसने जतिन से आगे पढ़ने के लिये कालिज जाने कि कहा तब उसने मना कर दिया और कहा हमारे घर की बहुयें कालिज नहीं जाती । दीपा की जिन्दगी सिमट कर रह गयी थी । उसे हमेशा लगता जैसे उसके पर किसी ने काट दिये। आज वह पूजा कर रही थी । भगवान के सामने जलते दिये को अपलक डबडबाई आंखों से देख रही थी । लोग कहते हैं पति पत्नी दोनों दीया बाती की तरह हैं दोनों ही परिवार के लिये जरूरी पर वह सोच रही थी जल तो बाती रही है और रोशनी का पूरा श्रेय जारहा है दीये को क्योंकि सब कहते हैं दीये से रोशनी हो रही है। सबको खुश रखने में वह बुझ रही है पर पूरा घर जतिन पर ही अभिमान करता है क्योंकि उसका अपना कोई आसितत्व नहीं है। जतिन की पत्नी के नाम से उसका आसितत्व बंधा है। दीपा ने अपने से पूछा इस पुरष प्रधान समाज में मुझ जैसी बाती को क्या केवल जल कर बुझना ही है। ये है दीया और बाती का बन्धन ।
स्व रचित
डा. मधु आंधीवाल
अलीगढ़