“दिव्याश्रम- जया यादव

 दिव्याश्रम में दो दिन से तनाव पूर्ण वातावरण बना हुआ है। दीदी माँ श्वेताम्बरीजी अपने क्रोध पर अँकुश नहीं कर पा रही थीं । आज तक दिव्याश्रम में ऐसा नहीं हुआ कि कोई साध्वी आश्रम का परित्याग करके वापस साँसारिक होने की बात करे।  कितना समझा रही हैं वे श्रद्धेश्वरी को, पर उसने तो जिद पकड़ ली है।

ये भी कोई बात हुई कि अचानक से सामने आकर खड़ी हो गई और एक ही बार में निर्णय सुना दिया कि “दीदी माँ मैंने वापस जाने का निर्णय ले लिया है आप मुझे जाने की आज्ञा दीजिए”।

        सब स्तब्ध रह गये। ये क्या कह रही हैं साध्वी श्रद्धेश्वरी। तब से लगभग सभी श्रद्धेश्वरी से अलग अलग बात करके समझाने की कोशिश कर चुके थे, पर वह टस से मस नहीं हुई। आज वह आश्रम छोड़ने वाली है। ये बात दीदी माँ के हृदय में नश्तर सा चुभो रही थी। अचानक उन्होंने पास खड़ी साध्वी से कहा “सुनो,

जाकर श्रद्धेश्वरी से कहो कि हमें उससे बात करनी है”। साध्वी सिर झुका कर चली गई। उसने कक्ष का द्वार खटखटा कर कहा कि ” आपको दीदी माँ ने बुलाया है”। श्रद्धेश्वरी ने द्वार खोले बिना कहा “ठीक है, थोड़ी देर में आती हूँ”। 

              कक्ष में श्रद्धेश्वरी  पिछले पाँच साल की कड़ियाँ जोड़ रही थी। श्रद्धा नाम था उसका। राजनीति शास्त्र में एम ए करने के बाद वह पीएचडी की तैयारी कर रही थी। लेकिन इससे पहले ही उसके लिए सुधींद्र से विवाह का प्रस्ताव आ गया। मना नहीं कर पाई। सुधींद्र बहुत ही व्यवहार कुशल थे।

शहर के जाने माने वकील थे। उनके साथ श्रद्धा हमेशा सहज रहती थी। अपने सास ससुर और देवर के साथ एक सुन्दर घरेलू माहौल में श्रद्धा एक सुखद जीवन का आनन्द ले रही थी कि एक दिन एक एक्सीडेंट में सुधींद्र उसे छोड़कर  बहुत दूर चले गये।

            श्रद्धा तो जैसे पागल सी हो गई थी। पूरा एक साल लगा उसे नार्मल होने में। उसके मम्मी पापा उसे अपने साथ ले आये थे। उसके बाद वह ससुराल नहीं गई। उसकी सास एक दो बार उससे मिलने आईं। पर श्रद्धा उस समय तक सहज नहीं हो पाई थी। उन्हीं दिनों दिव्याश्रम की श्वेताम्बरीजी से उसकी पहचान हुई। उनकी मोह त्याग और ईश्वर भक्ति की बातों से प्रभावित हो कर उसने सन्यास लेने का मन बना लिया। माँ पापा ने बहुत समझाया लेकिन श्वेताम्बरीजी के प्रवचनों ने उसके सोचने समझने की शक्ति क्षीण कर दी थी। सुधींद्र की यादों में डूबी श्रद्धा अब  साध्वी श्रद्धेश्वरी बनकर शान्ति का मार्ग खोजने लगी।

                   धीरे धीरे पाँच साल बीत गए। सुधींद्र की यादें धूमिल पड़ चुकी थीं। श्रद्धेश्वरी के प्रवचन सुनने के लिए भीड़ लगी रहती। हमेशा धीर गँभीर साध्वी श्रद्धेश्वरी सबकी श्रद्धा का केंद्र बनी रहती। आश्रम में किसी को कुछ भी कष्ट होने पर साध्वी श्रद्धेश्वरी हमेशा तत्पर रहती। दीदी माँ श्वेताम्बरीजी बहुत गर्व से कहतींकि “श्रद्धेश्वरी उनके आश्रम का अनमोल रत्न है” । लेकिन आज उनका वही अनमोल रत्न आश्रम का परित्याग करने की बात कर रहा है, पर क्यों ??

             दो दिन पहले श्रद्धेश्वरी किसी काम से कचहरी गई तो वहां सुधीन्द्र के सहयोगी वकील मनोहर ने उसे पहचान लिया। उसने अचानक सामने आ कर कहा” भाभी आप यहाँ। किसी काम से आईं हैं तो मुझे बताईये क्या काम है”।



 मनोहर का काला कोट देखकर उसे सुधीन्द्र का काला कोट याद आ गया। अपने कोट की बहुत इज्जत करते थे सुधीन्द्र। कहते थे “काला है तभी तो इस पर कोई दूसरा रँग नहीं चढ़ता। ये हमेशा सच की रक्षा करता है”। श्रद्धेश्वरी को एक झटका सा लगा और पल भर में जैसे सोई श्रद्धा जाग उठी। मनोहर से सबके हाल चाल पूछने लगी तो पता चला कि कि उसकी सास को बेटे के गम में रक्तचाप बढ़ने लगा था ।

एक दिन इतना बढ़ गया कि एक हाथ और पैर को लकवा मार  गया। सुधीन्द्र के छोटे भाई रवीन्द्र की पढ़ाई छूट गई। मकान की किश्त समय पर जमा न होने के कारण मकान भी छोड़ना पड़ा।  रवींद्र टैक्सी चलाता है और व्यक्तिगत रूप से पढ़ाई कर रहा है पर सफल नहीं हो पा रहा। सुधीन्द्र के पिताजी की पेंशन से किसी तरह गुजारा चल रहा है। चाचीजी (सुधीन्द्र की मां) आपको बहुत याद करती हैं भाभी “।

   मनोहर से और भी बात हुईं पर श्रद्धेश्वरी को कुछ याद नहीं रहा। उसे बस इतना याद रहा कि उसके सुधीन्द्र को उस पर कितना गर्व था और वह सुधीन्द्र की आँख बन्द होते ही कायरों की तरह  यहाँ आकर छुप कर बैठ गई। जबकि उसे अपने परिवार के साथ होना चाहिए था, अपनी सास के साथ,अपने ससुर और देवर के साथ। उसका पति गया तो उनका भी तो बेटा गया था । 

पढ़ी लिखी थी। नौकरी कर सकती थी। जिस भाई को सुधीन्द्र इंजीनियर बनाना चाहते थे वह टैक्सी चला रहा है। ओह! ये सब क्या हो गया भगवान?

         आश्रम पहुँच कर श्रद्धेश्वरी ने अपने आपको कक्ष में बन्द कर लिया। श्रद्धेश्वरी के अचानक इस व्यवहार से  आश्रम में सब परेशान थे कि आखिर क्या हो गया साध्वी को। सबने आकर उसके कक्ष के द्वार पर दस्तक दी पर कोई लाभ नहीं हुआ।बहुत रो चुकने के बाद जब उसका मन हल्का हुआ तो उसने अपना निर्णय ले लिया और उससे सबको अवगत कराने के लिए श्रद्धेश्वरी ने द्वार खोल दिया।

उसके कक्ष के द्वार पर भीड़ लगी थी। दूसरी साध्वियां आश्रम के कर्मचारी और स्वयँ दीदी माँ श्वेताम्बरीजी भी वहीं उपस्थित थीं। श्वेताम्बरीजी ने आगे बढ़कर उससे इस व्यवहार की वजह जाननी चाही पर किसी के कुछ कहने से पहले ही श्रद्धेश्वरी ने सबको चौंका दिया 

” दीदी माँ, मैं हाथ जोड़कर आपसे निवेदन करती हूँ कि मुझे आश्रम से जाने की अनुमति दें। मैं साध्वी का चोला त्याग कर फिर से समाज के बीच वापस जा रही हूँ। आशा है कि आप मुझे अपने आशीर्वाद के साथ विदा करेंगी”।

सबको आश्चर्य में डूबा हुआ छोड़ कर श्रद्धेश्वरी ने द्वार बन्द कर लिया। तभी से श्वेताम्बरीजी बौखलाई हुईं थीं। हालांकि दूसरी साध्वियां श्रद्धेश्वरी के साथ थीं, पर दीदी माँ के सामने मुँह  खोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी।


                  श्वेताम्बरीजी का सँदेश मिलने के आधा घंटे के बाद श्रद्धेश्वरी श्रद्धा बनकर उनके सम्मुख पहुँची। वहाँ कुछ दूसरी साध्वियां भी थीं जो श्वेताम्बरीजी के इशारे पर चलती थीं। उनके हाथ में कुछ बैनर भी थे अर्थात श्वेताम्बरीजी ने पूरी तैयारी कर रखी थी। उसे देखते ही श्वेताम्बरीजी ने तेज स्वर में कहा “श्रद्धेश्वरी मैं तुम्हें एक अवसर और देती हूँ। एक बार फिर से विचार कर लो। तुम इस तरह आश्रम के मुख पर कालिख मलकर नहीं जा सकतीं”।

  श्रद्धा ने उन्हें बीच में रोक कर कहा “दीदी माँ एक दिन आपने मुझे अपने आश्रम में स्थान देकर मुझे मान दिया था। शुक्रगुजार हूँ मैं आपकी। पर मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं जिन्हें पूरा किये बिना मेरी तपस्या अधूरी है”।

   ” अधूरी है से क्या मतलब है तुम्हारा” दीदी माँ ने बीच में ही रोक कर तेज आवाज में चिल्ला कर कहा,   ” ये दिव्याश्रम है कोई सराय नहीं कि जब जी चाहे आ गए और जब जी चाहा चल दिये। कुछ मान – सम्मान है कुछ मर्यादा है यहाँ की। कल को तुम बाहर जाकर अय्याशी करोगी तो लोग क्या कहेंगे कि दिव्याश्रम की साध्वी के कर्म ऐसे हैं”।

“दीदी माँ” श्रद्धा ने कड़े स्वर  में श्वेताम्बरीजी को वहीं रोक दिया और शान्त मगर कठोर स्वर में बोली,”दीदी माँ बहुत इज्जत थी आपके लिए मेरे मन में। पर आज मुझे पता चला कि आप मात्र स्व हित देखती हैं अगर ऐसा न होता तो जब आपकी सास ने आपकी विधवा देवरानी को दुधमुँहे बच्चे के साथ  रात के दस बजे घर से बाहर निकाल दिया था

तब आपको ये ख्याल क्यों नहीं आया कि लोग क्या कहेंगे? जवान औरत नन्हें से बच्चे के साथ रात में कहाँ जायेगी? और आज मैं स्वेच्छा से जा रही हूँ वो भी दिन के समय, अपने परिवार के पास, तो आपको ये चिन्ता सता रही है कि लोग क्या कहेंगे। आपने मेरे विरोध के लिए बैनर तैयार कर लिए और साध्वी रुचिरा ये कालिख जो लिए खड़ी हो, जल्दी से मेरे मुँह पर लगा कर अपना पवित्र कार्य सम्पन्न करो।

ताकि मैं यहाँ से शीघ्र प्रस्थान कर सकूँ। पर याद रखिये दीदी माँ, मैं वही कर रही हूँ जो वेदों  में लिखा है, जो गीता में लिखा है। अपने कर्तव्य का पालन करने जा रही हूँ मैं। अपने पति के छूटे अधूरे काम को पूरा करने जा रही हूँ। अपने पति के परिवार की सेवा करने जा रही हूंँ मैं। चाहे इसके लिए आप मुझे जो चाहे कह सकती हैं”।

                          श्वेताम्बरीजी कुछ कह नहीं सकीं। अपनी निरीह विधवा देवरानी का चेहरा आँखों के सामने आ गया। वे चुपचाप वहीं बैठ गईं। रूचिरा ने हाथ का बर्तन फेंककर दौड़ कर श्रद्धा को गले लगा लिया। दूसरी साध्वियाँ भी पास आकर खड़ी हो गईं। रूचिरा ने कहा, “चलिए दीदी आपको द्वार तक छोड़ने मैं स्वयँ चलूँगी”।

  दूसरी साध्वियों ने भी श्रद्धा को गले से लगाकर विदाई दी और आश्रम के द्वार के पट श्रद्धा की विदाई के लिए खोल दिये गये। टैक्सी आ गई थी,श्रद्धा ने एक बार दिव्याश्रम के मुख्य द्वार को देखकर प्रणाम किया और टैक्सी में बैठने लगी कि तभी दीदी माँ श्वेताम्बरीजी की आवाज आई, “श्रद्धा,जरा रुको”। आज दीदी माँ ने उसे श्रद्धा कहकर बुलाया था।

सबको भय हुआ कि अब और क्या बाकी है। श्रद्धा चुपचाप खड़ी हो गई। दीदी माँ ने आकर उसे गले से लगा लिया। “तुमने सही कहा श्रद्धा, हमें अपने कर्तव्य कभी नहीं भूलने चाहिएं। जो भूल मुझसे हुई उसे मैं अब लौटा तो नहीं सकती, पर अबसे दिव्याश्रम जनसम्पर्क में रहेगा और जनसेवा करेगा। अगर हो सके तो एक बार मेरी देवरानी से मिलकर मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।

कहना कि मैं उसे और उसके बेटे को देखना चाहती हूंँ”। आँख के आँसू पोंछ कर दीदी माँ ने श्रद्धा को टैक्सी में बैठाकर टैक्सी का द्वार बन्द कर दिया।  टैक्सी के आँख से ओझल होने तक साध्वियाँ हाथ हिलाती रहीं।

    दिव्याश्रम का विशाल द्वार श्रद्धा की भावभीनी विदाई का मौन साक्षी बन गया।

 

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