“राघव क्या तुम पूर्वजन्म या पुनर्जन्म में मानते हो?” आनंद पूछता है।
“हाँ आनंद.. हम लोग सिर्फ विज्ञान नहीं अध्यात्म को भी साथ लेकर चलते हैं। थोड़ा सा आध्यात्मिक होकर सोचें तो संबंधों का विज्ञान, मनोविज्ञान और सामाजिक ज्ञान स्वयं ही अनुभवित हो सकता है। अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे के बहुत हद्द तक पूरक हैं। हमारी गीता भी पुनर्जन्म को परिभाषित करती है। विज्ञान को यदि अध्यात्म से जोड़ा जाए तो समझना और उसका अनुसरण करना आसान हो जाता है।” राघव विश्लेषण करते हुए समझाता है।
“हाँ.. ये तो है.. तर्कपूर्ण अध्यात्म और तर्कपूर्ण विज्ञान जीवन के लिए जरूरी है।” चंद्रिका राघव के कहे का समर्थन करती हुई कहती है।
“और तो और कुछ अनुसंधान भी पुनर्जन्म को परिभाषित करते हैं।”राघव बताता है।
“बेंगलुरु की नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत डॉ. सतवंत पसरिया ने इस विषय पर शोध किया था। उन्होंने अपने इस शोध पर एक लिखा, जिसका नाम दिया गया “श्क्लेम्स ऑफ रिइंकार्नेशनरू एम्पिरिकल स्टी ऑफ कैसेज इन इंडियास”… इस किताब में 1973 के बाद से भारत में हुई पाॅंच सौ पुनर्जन्म की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। ऐसे ही पुनर्जन्म पर अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. इयान स्टीवेंसन ने चालीस साल तक इस पर शोध कर एक किताब ‘रिइंकार्नेशन एंड बायोलॉजी’ लिखी थी, जिसे सबसे महत्वपूर्ण शोध किताब माना गया है।
इन सबकी स्टडी के बाद हम मनोवैज्ञानिक भी पुनर्जन्म को नकार नहीं सकते हैं.. इस आधार पर कह सकते हैं कि व्यक्ति का जीवन कई कड़ियों में बंधा है और प्रत्येक कड़ी दूसरी कड़ी के साथ जुड़ी हुई है इसलिए एक जन्म के कार्यों का प्रभाव दूसरे जन्म के कार्यों पर भी पड़ता है।” अपने पेशे से संबंधित आलेखों का जिक्र कर राघव चुप हो गया।
“फिर तुम्हारा अगला कदम क्या है राघव?” रिया राघव की बातों में रुचि दर्शाती हुई पूछती है।
“पहले तो अपने सीनियर्स से डिस्कस करूँगा। उसके बाद ही कोई स्टेप लूँगा। भाभी… दिव्या जगे और असहज महसूस करे या कुछ भी दिक्कत लगे तो तुरंत मुझे कॉल कीजिएगा। अभी हमलोग चलते हैं।” राघव रिया के सवाल का जवाब देता चंद्रिका की ओर भी मुखातिब होता है।
“लंच करके जाइए आपलोग।” चंद्रिका, राघव और रिया को जाने के लिए तत्पर देख कहती है।
“नहीं भाभी, परेशान मत होइए। मैं विमला से सबके लिए लंच तैयार रखने के लिए कह कर आई थी। हम लोग लंच घर पर ले लेंगे। आपलोगों के लिए विमला से भिजवा देती हूँ। आपलोग दिव्या का ध्यान रखिए।” रिया मुस्कुरा कर चंद्रिका से कहती है।
रात के लगभग एक बजे राघव की कॉल आती है। वो बताता है कि उसके सीनियर से उसकी बात हुई है। कल दिन के बारह बजे उसके साथ दिव्या के उपचार के लिए वीडियो कॉल पर वो भी रहेंगे।
“ठीक है.. दिव्या को अभी बताऊँ!” आनंद राघव से घड़ी की ओर देखता हुआ पूछता है।
“नहीं.. नहीं.. उसे मैं खुद सुबह की सैर पर बताऊँगा।” राघव की दृष्टि भी घड़ी की ओर जाती है और दोनों एक दूसरे को शुभ रात्रि बोल कॉल बंद कर देते हैं।
दिव्या खुद को जानने समझने के लिए इतनी व्यग्र थी कि सुबह दस बजे से ही तैयार होकर राघव के इंतजार में लग गई।
“दिव्या बेटा… नाश्ता करके थोड़ा आराम कर लो” चंद्रिका उसकी व्यग्रता देखकर कहती है।
“आराम ही तो कर रही हूँ.. ना स्कूल.. ना कोई और एक्टिविटी, बारहवीं के पेपर भी हैं.. उसकी भी तैयारी नहीं हो रही है। चाचा जी ने बारह बजे का समय दिया है।” दिव्या सिर झुकाए झुकाए ही जवाब देती है।
“कुछ दिनों की बात है मेरी बच्ची। फिर जो मन आए सो करना” दिव्या की दादी दिव्या को बहलाती हुई कहती हैं।
चंद्रिका दिव्या को नाश्ता करा कर उसके कमरे में भेज देती है।
“बहू.. नाश्ता कर लो.. कल से तुमने कुछ नहीं खाया है।” अपनी बहू के लिए फिक्रमंद होती हुई दिव्या की दादी कहती हैं।
“कुछ खाया ही नहीं जा रहा है माँ। डर लग रहा है कहीं दिव्या हमसे दूर ना हो जाए।” चंद्रिका अपने डर से सास को अवगत कराती हुई कहती है।
शुभ शुभ सोचो बहू, सब अच्छा होगा। देखना दिव्या को उसकी मुश्किलों से छुटकारा मिल जाएगा।” दादी चंद्रिका को ढ़ाढस बढ़ाती हुई कहती है।
राघव सवा ग्यारह बजे दिव्या के घर आ गया। आनंद को घर पर ही रहने और किसी तरह की आवाज़ ना हो, इसका ध्यान रखने कह राघव दिव्या के कमरे की ओर बढ़ गया।
दिव्या राघव को देखते ही खुश हो गई । राघव उसके साथ इधर उधर की बातों के साथ पुनर्जन्म के बारे में भी थोड़ी बहुत बातें करता है। राघव के सीनियर मि. जॉन से भी दिव्या की बात होती है। उनके पूछने पर कि क्या किसी रक्षंदा या प्रियंवदा को जानती है तो दिव्या असहज होकर मना कर देती है।
धीरे धीरे दिव्या गहन ध्यान में चली गई। इस बार वो दिव्या बोलने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही थी।
मि. जॉन राघव से प्रियंवदा के नाम से पुकारने और बात करने कहते हैं।
जैसे ही राघव ने प्रियंवदा कहा, दिव्या की मुखाकृति जो अभी तक कसी हुई थी, वो मुस्कुराहट में तब्दील हो गई।
जैसे जैसे मि. जॉन बता रहे थे। राघव उसी तरह से दिव्या से सवाल पूछ रहे थे। इसका उन्हें फायदा भी हो रहा था। जहाँ से उन्होंने प्रक्रिया को विराम दिया था, वही से राघव ने फिर से शुरू किया।
“और प्रियंवदा मेला कैसा लग रहा है और तुम अभी मेले में क्या कर रही हो?” राघव बातचीत के हल्के लहजे में दिव्या से पूछता है।
“मेला तो बहुत अच्छा है। लेकिन हमें स्वच्छन्द होकर घूमने नहीं दिया जा रहा है। बहुत सारे सिपाही हमें घेर कर चल रहे हैं। इसीलिए मेला मेला जैसा नहीं लग रहा, आनंद नहीं आ रहा है।” प्रियम्वदा बताती है
“तुम्हारी माँ और मौसी कहाॅं हैं?” राघव चर्चा आगे बढ़ाता हुआ पूछता है।
“माँ का तो चेहरा एकदम भावविहीन है। लग रहा है जैसे माँ बिना मन के मेला देखने आई हैं। मौसी आपस में हँसी ठिठोली कर रही हैं। लेकिन उन्हें भी ना तो घेरे से बाहर जाने दिया जा रहा है और ना ही किसी से बात करने की आज्ञा है।” प्रियंवदा नाराजगी भरे शब्दों में माॅं के बारे में बताती है।
“अब आगे भी बताओ।” राघव थोड़ा ठहर कर फिर कहता है।
“संध्या की बेला है और माँ के कहने पर अब हम लोग घर की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। मैं माँ से हठ कर रही हूँ कि मुझे अकेले घूमने के लिए छोड़ दें। मैं बाद में घर आ जाऊँगी।” प्रियंवदा की आवाज में हठ का पुट भी था।
“माँ ने कठोरता से कहा ये सम्भव नहीं है। मैं हठ पर अड़ी हुई हूँ और कई लड़कियाँ भी अकेले ही मेला में आई हैं, घूम रही हैं।। बताओ माँ, मैं क्यूँ नहीं ऐसे घूम सकती हूॅं। मैं क्रोधित होती हुई कहती हूॅं।” प्रियंवदा आगे का हाल बताती है।
माँ ये कहते हुए कि उनकी किस्मत अच्छी है, आगे बढ़ गई। मजबूरी में मैं भी माँ के कदम के साथ कदम मिलाती हुई घर पहुँच गई।
प्रियंवदा… तुम्हारी माँ ने ये क्यूँ कहा कि उन लड़कियों की किस्मत अच्छी है। इसके बारे में कुछ बता सकोगी।” राघव प्रियंवदा के चेहरे को गौर से देखता हुआ पूछता है।
“हाँ क्यूँकि माँ इस राज्य की देवदासी हैं। राज्य की जो सबसे सुन्दर लड़की होती है, उसे देवता की सेवा के लिए देवता के चरणों में अर्पित कर दिया जाता है। माँ के लिए यह हमेशा घृणित कार्य की तरह रहा है।” प्रियंवदा के स्वर में क्रोध स्पष्ट झलक रहा था।
माँ का कहना है कि अपनी इच्छापूर्ति के लिए राजा महाराज, नवाब देवता को भी नहीं छोड़ते हैं। अपनी अय्याशी के लिए उन्हें बदनाम करते हैं।
“माँ मेरी चिंता में हमेशा उदास रहती है क्यूँकि मुझे राज्य की सबसे सुन्दर लड़की की उपाधि मिली है। साथ ही मेरी जान नृत्य में बसती है। मैं नृत्य प्रवीण हूॅं। जिस दिन राजा का कोई संदेशवाहक माँ के बुलावे का संदेश लेकर आता है, उस दिन सजी सँवरी माँ को देखकर डर लगता है। उनका चेहरा बिल्कुल पत्थर सा कठोर हो जाता है। मुझे देखकर गहरी साँस लेकर चली जाती हैं।” प्रियंवदा बुझे स्वर में बता रही थी।
राघव अब सेशन यही समाप्त करना चाहते थे। लेकिन दिव्या आज जैसे सारी तहें खोलने का मन बना कर बैठी थी। अब राघव के बिना सवाल किए ही अपनी अंतर्चेतना को उधेर रही थी।
“मेला से आकर अभी हम लोग आराम कर ही रही थी कि एक दासी ने आकर बताया कि अभी ही माँ को और मुझे रानियों ने अंतःपुर में मिलने बुलाया है।” प्रियंवदा आगे कहती है।
रानियों की बात टाली नहीं जा सकती है तो दासी के साथ ही मैं और माँ अंतःपुर में पहुॅंची। हमें देखकर उन्होंने ऐसा मुँह बनाया जैसे हमसे कितनी नफरत करती हो।
माँ उन्हें दुआ सलाम कर बुलाने का मकसद पूछ रही हैं।
“दासियों को बुलाने के लिए मकसद की ज़रूरत नहीं होती है।” उनमें से एक ने कहा।
“उनलोगों ने ना जाने माँ से क्या क्या कहा। मैं इतना ही समझ रही थी कि सब माँ से बहुत घृणा करती हैं..पर क्यूँ.. ये समझ नहीं आया…शायद उनलोगों के व्यंग्य बाण खत्म हो गए.. उन्होंने हमें तुरंत अंतःपुर छोड़ने का आदेश दिया। शायद उनके मनोरंजन की बेला समाप्त हो गई।” प्रियम्वदा धाराप्रवाह आगे बताती जा रही है।
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आरती झा आद्या
दिल्ली