अभी खाना डाइनिंग टेबल पर लगाया ही था कि.. डोरबेल “ डिंग-डाँग..”
मैं देखती हूँ.. कह कर मैंने मेन डोर खोला तो… “ब्लिंकिट” का डिलीवरी बॉय था.. “ जी मेम आपका सामान.. “इधर रख दो “ मैंने सोफ़े के पास रखने को कहा..
“ क्या माँ… तुम्हारा कितना ऑर्डर आता हैं…कभी bbnew . कभी blinkit, कभी naykka तो कभी amozon। तुम ऑन-लाइन शॉपिंग से थकती नहीं हो ना…”
तड़ाक….तड़ाक…. तड़ाक
किसी ने गाल पर लगातार आठ-दस तमाचें जड़ कर #दिन में तारें दिखा दिया हो जैसे।”
ख़ुद बाज़ार जाना नहीं… ऑफिस कर इतना थक जाते कि.. कुछ कहो मत.. कोई दिन भर ऑफिस का काम तो कोई रात भर ऑफिस का काम करता… एक मैं ही तो ख़ाली बैठी-बैठी खाती हूँ..
कितनी बार समझाया कि—-“ यह सब मेरे अकेले का नहीं हैं… पैसठ साल की उम्र में … क्या उम्मीद करते हो हमसे.. तुम सब कि.. मैं नहीं थकती कभी??”
महीने भर का राशन -पानी , घर में क्या है??? क्या नहीं?? इनसबकी चिंता रहती है सदैव। तुम सब तो घर में प्रवेश करते ही अम्मा क्या बनाया है???,ऑफिस जाते समय “ अम्मा आज़ ड़िनर में ये बनाना… नित्य दिन एक नयी फ़रमाइश….कभी सोचा भी हैं… कहाँ और कैसे आता है यह सब.. पैरेंट्स को यह उम्मीदें रहती है कि…. बच्चों को उनकी आवश्यकता है और सच तो यह भी है कि … बच्चों को भी उनकी जरुरत होती है।
अपने बड़ों से सुना था कि…हम माता पिता अपने बच्चों को बचपन में जितना सपोर्ट और प्रेम करते हैं उसी अनुपात में वो बुढ़ापे मेंहमें लौटाते हैं… लेकिन पति अजय सदैव कहते थे—“ अपने आप को आर्थिक रूप से हमेशा मज़बूत रखना…..बुढ़ापे में यहीं तुम्हारी ताक़त है।”
मैं ही दस बरस पूर्व पति के अचानक चले जाने से … माँ और पिता दोनों की ज़िमेदारियाँ निभाने लगी।
कभी भी बच्चों से पैसे नहीं माँगे , घर खर्च में आज तक बराबर का योगदान कर रही, हंसी-ख़ुशी पूरी पेंशन खर्च कर देती कि.. बच्चे अपनी-अपनी सैलरी से कुछ बचत कर ले अपने भविष्य के लिए… जब तक मैं जीवित हूँ।
नित्य-प्रतिदिन छोटी-छोटी बातों को अनसुनी कर देती कि.. बच्चे प्राइवेट नौकरी करते -करते थक जाते हैं… मुझे तो आराम से घट बैठे हज़ारों की पेंशन मिल रही हैं.. पति के जाने के बाद.. बच्चों को कोई तकलीफ़ ना हों… पिता की कमी महसूस ना हों… यह भूल ही गई कि… इस पेंशन के बदले… कितनी बड़ी रक़म( पति को खो कर) चुकायी हैं।
आज तो हद ही हो गई…इतना सब कुछ करने के बाद.. ये शब्द सुनने को मिल रहे हैं… “ कितना खुला हाथ है तुम्हारा.. कितना सामान मंगाती हों…फिर कहती हों… सारी पेंशन खर्च हो गयी… हम सब भी कितना करे..”दोनों बेटे एकसाथ बोलने लगे…
समाज में पैसे को इतना महिमा-मंडित किया गया है, कि इस दुनिया में पैसे से बढ़कर कुछ है ही नहीं ! आज कल तो ऐसा माहौल बनाया गया है, कि इंसान का वजूद उसके रिश्ते-नाते सब कुछ पैसे से ही तय होता है ! अगर हमारे पास पैसा नहीं है — तो मानो कुछ भी नहीं है। आज तो… # दिन में तारे दिखाने के साथ-साथ आत्मसम्मान भी हिला दिया इन बच्चों ने… अब और नहीं … मि.सिन्हा( अजय) तुम्हारी क़सम… “आज मैं भी इनको दिन में तारें दिखाऊँगी…”मन ही मन में बड़बड़ायी मैं।
टीसब भी मेरी एज बात कान खोल काट सुन लो अब…ताउम्र माँ होने का फ़र्ज़ निभाया, पिछले दस बरस से पिता का भी फ़र्ज़ निभा रही… लेकिन क्या तुम दोनों बी संतान होने का फ़र्ज़ निभाया??? इस उम्र में तुम दोनों को सुबह बेड-टी से लेकर रात डिनर तक बनाती हूँ मैं .. कभी सोचा कि माँ भी थकती होगी…वीकेंड पर दोनों जा अपना-अपना घूमने का कार्यक्रम होता है .. कभी सोचा कि.. माँ का भी मन करता होगा … बाहर जाने और बाहर खाने का… कभी सोचा कि.. माँ ने बहुत किया हैं.. अब मेरा कर्तव्य है कि.. माँ के लिए कुछ करूँ।
“ वो आपका फ़र्ज़ था.. पैदा किया है तो करना ही होगा.. पैदा ना किया हो.. ता… माँ… आपने”
बीच में ही बात काटते हुवे बोली मैं..
“ऐसा करो तुम अपना इंतजाम कहीं और कर लो” ।” मेरा पति गया हैं, पर मेरे सिर पर छत देकर गया है “।
यह कह कर मैं खाने की थाली लेकर अपने कमरे में चली गयी
संध्या सिन्हा