सुशीला माई घर का काम करके जा चुकी थी। माधवी ने अपने ऑंसू बड़ी मुश्किल से रोक रखे थे, वह जानती थी कि अगर सुशीला माई ने उसकी ऑंखों में ऑंसू देखे तो उन्हें बहुत दु:ख होगा। वह सुशीला माई को दु:खी करना नहीं चाहती थी। दूसरी बात यह कि वह सुशीला माई के आगे, झूठ भी नहीं बोल पाती थी
,वे उसका झूठ पकड़ लेती थी। उसे डर था कि कहीं माई को कल गुस्से -गुस्से में कही, अरूण की किसी बात की भनक भी लग गई तो उसका दिल टूट जाएगा। माधवी और अरूण ने अपने परिवार के विरूद्ध जाकर शादी की थी। दोनों परिवार इस शादी के खिलाफ थे। मगर दोनों पर तो जैसे दीवानगी छाई थी,
परिवार की चिंता न करते हुए दोनों ने कोर्ट में जाकर शादी की थी। हालाकि दोनों के व्यक्तित्व में जरा भी गम्भीरता नहीं थी।दोनों के बीच प्यार भी क्या था? एक बाह्य आकर्षण था, अपरिपक्व सोच थी। न कोई गहराई न कोई सामन्जस्य। सबकुछ उथला- उथला था। शादी के चार वर्ष बाद ही, बाह्य आकर्षण कम हो गया,जीवन में आने वाली छोटी बड़ी परेशानियों में एक दूसरे पर दोषारोपण करते।
दोनों को अपने परिवार का साथ तो मिल नहीं रहा था। अपनी खीज एक दूसरे पर उतारते। दोनों ही अहं के पुतले कोई झुकने को तैयार नहीं। दोनों की जिन्दगी बोझिल हो गई थी, कई दिनों तक आपस में बात नहीं करते। अपने शादी के फैसले पर पछताते। कोई साथ नहीं था। ऐसे में दोनों के वार्तालाप का माध्यम थी सुशीला माई।
शादी के बाद दोनों ने अपने परिवार से दूर एक शहर में अपना आशियाना बनाया। अरूण पढ़ा- लिखा लड़का था। एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी लग गई। अच्छा वेतन मिलता था। माधवी भी कण-कण जोड़कर आशियाने को सजाने की कोशिश करती। सुशीला माई तभी से उनके घर में काम करती थी,
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जब वे दो कमरो वाले किराए के मकान में रहते थे, आज तो स्वयं का पूर्ण सुविधा सम्पन्न घर था। मगर कहते हैं ना जल्दी में, भावुकता में लिए फैसले हमेशा दुखदायी होते हैं। शादी के कुछ वर्षों बाद ही दोनों को एहसास होने लगा कि उन्होंने इस त्वरित निर्णय में क्या खोया है। उन्हें अपना अतीत याद आता, परिवार याद आता वे दु:खी होते और अपना सारा रोष एक दूसरे पर उतारते। ये भी नहीं सोचते कि अब वे दो से चार हो गए हैं।
रिया और गगन की जिम्मेदारी भी है उनपर। माधवी पर घरकार्य का बोझ बड़ गया था और अरूण को उनकी परवरिश के लिए पैसे कमाने की चिंता रहती। अरूण सोचता इसे क्या चिंता है, आराम से घर में रहती है, मैं दिन भर परिश्रम करता हूँ। माधवी को लगता कि वह दिन भर घर के काम में कटती है और अरूण आराम से नौकरी करके आता है और उसपर आदेश फरमाता रहता है। छोटी- छोटी बातों के कारण दोनों के बीच तकरार हो जाती।
दोनों की तकदीर अच्छी थी कि सुशीला माई उनके घर काम करती थी। उसके परिवार में कोई नहीं था।उसके माता पिता बचपन में ही शांत हो गए थे। भाई भौजाई ने दुगनी उम्र के लड़के से विवाह कर, किनारा कर लिया। गरीब घर की लड़की थी, ससुराल वालों ने भी दिल से नहीं अपनाया।
पति की मृत्यु के बाद उसे घर से निकाल दिया। वह अकेली रह गई। उस समय उसकी उम्र बयालिस साल की होगी। काम की तलाश में निकली तो संयोग से माधवी से मुलाकात हो गई, वह भी अपने घर के काम बर्तन, झाड़ू, पौछा आदि के लिए कामवाली की तलाश में थी। उस समय दोनों बच्चे रिया और गगन छोटे थे।
बीस वर्षों से वह इस घर का काम कर रही थी, और घर के सदस्य की तरह हो गई थी। वह हमेशा अरूण और माधवी के रिश्तों में सामन्जस्य बनाने की कोशिश करती, अपने अनुभव से दोनों को समझाती, उसकी वाणी में जैसे जादू था। माधवी और अरूण के दाम्पत्य जीवन में मधुरता आ गई थी। दोनों उसका आदर करते थे।
वह बच्चों को और उन दोनों को हमेशा अच्छी बातें बताती और इनके घर को अपना घर समझकर, हर तरह से अपने कार्यों के द्वारा उनकी मदद करती। वह सुबह नौ बजे से शाम की पांच बजे तक इनके छोटे- मोटे काम करती। बदले में उसे दोनों समय का भोजन और पर्याप्त वेतन मिलता था। माधवी अपने जीवन में सुशीला माई की अहमियत को समझती थी। हर त्यौहार, हर कार्यक्रम में उसके लिए कपड़े, शाल, स्वेटर, छाता उसकी जरूरत की चीजे उसे लाकर देती थी। अरूण के प्रमोशन होते गए और उसके साथ ही वह सुशीला माई के उपकारों को नजरअंदाज करने लगा।
माधवी का सुशीला माई का इतना ध्यान रखना उसे अखरने लगा। अब उसके बच्चे रिया और गगन बड़े हो गए थे, कॉलेज में पढ़ाई कर रहै थे। अब उसे सुशीला माई की जरूरत महसूस नहीं होती थी। वह यह भूल गया था कि सुशीला माई……वही सुशीला माई जिन्होंने उसके बच्चों का इतना ध्यान रखा,उनकी बिखरती गृहस्थी में प्राण फूंके अब वृद्ध हो गई है, और उसे सहारा देने की जरूरत है।
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कल जब माधवी ने अरूण से सुशीला माई की दवाइयाँ लाने के लिए कहा तो वह भड़क गया बोला-‘तुम्हे हर समय सुशीला माई की चिंता लगती है, घर में काम करने वाली है, वैसे ही व्यवहार करो। पैसे देते हैं ना हम उनके काम के, उसी से दवा ले लेगी। क्या रिश्ता है तुम्हारा उससे, मुझे तुम्हारा यह बावरापन पसन्द नहीं है।’ माधवी ने कहा -‘आज हम जो जीवन जी रहे हैं, वह उन्ही की देन है, अगर उनका सहयोग और मार्गदर्शन नहीं मिला होता तो शायद हमारे रिश्ते की डोर कबकी टूट गई होती।
हमारी बुद्धि में परिपक्वता कहाँ थी, कहाँ था ठहराव, दोनों जिद्दी थे उन्होंने हमारे रिश्ते को, हमारे बच्चों को, हमारे परिवार को सम्हाला है। मैं उनका एहसास नहीं भूल सकती। आज वे वृद्ध हो गई हैं, उन्हें हमारी जरूरत है, हमारे सिवा उनका है कौन? उनसे खून का रिश्ता नहीं है मगर दिल का रिश्ता है जो इतना मजबूत है कि टूट नहीं सकता।
आप उनसे रिश्ता भले ही तोड़ दें मैं नहीं तौड़ सकती।’ अरूण को अपनी गलती का एहसास हो गया था, वह बोला ‘ठीक है मैं कल दवा ले आऊंगा।’ अरूण तो यह कहकर आराम से सो गया। मगर अरूण की सोच पर माधवी को पता नहीं कैसे विचार आ रहै थे और ऑंसू रूकने का नाम नहीं ले रहै थे।
ये ऑंसू माधवी के दिल के उस जुड़ाव को बयान कर रहै थे जो उसका सुशीला माई के साथ था। दूसरे दिन जब सुशीला माई काम करने के लिए आई तो माधवी ने बड़ी मुश्किल से अपने को संयत किया। ऐसा होता है दिल से दिल का रिश्ता।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित