“सुनो! कैसे दिए भैया दिया।”
“बीस के दस।” मुस्कुरा कर जवाब दिया उसने।
“अरे!इतने महंगे?” उनकी आंखें फैल कर बड़ी हो गयी।
“क्या करें बहनजी। सब कुछ तक महंगा हो गया है।”
“तो! इसका क्या मतलब? कौन सा मिट्टी खरीदनी पड़ती है तुम्हें। मुफ्त की मिट्टी मुफ्त का पानी। फिर भी इतना महंगा बेचते हो।”
“मिट्टी भी खरीदनी पड़ती है बहनजी। शहर में ऐसी मिट्टी मिलती कहाँ है, और रहा पानी, वो भी सरकार मुफ्त कहाँ देती है। फिर आजकल बिजली वाले चाक हो गए हैं तो बिजली बिल भी देना पड़ता है। फिर मेहनत भी तो लगती है। भट्टे में पकाना भी पड़ता है। कितना खर्च है देखिए। मुश्किल से कुछ बच पाता है।” दुकानदार ने सारा हिसाब समझाया।
“ठीक है भैया। फिर भी कुछ तो डिस्काउंट बनता है ना। मैं पचास दिए ले लूंगी।” उन्होंने पचास ऐसे बोला मानो पांच सौ हों।
“बहन जी! नब्बे रुपए दे दीजिएगा।” दुकानदार को ग्राहक छोड़ना उचित नहीं लगा।
“बस! अस्सी के दो भैया। इससे एक रुपये ऊपर नहीं दूंगी मैं।” थोड़ा अकड़ कर उन्होंने कहा।
“न बहन जी। नहीं हो पायेगा।” दुकानदार ने विनम्रता से हाथ में पकड़ा पैकेट पीछे कर लिया।
महिला ताव से घूमी और कार में बैठकर ये जा वो जा।
दूसरा दृश्य:-
बड़ा सा मॉल। दीवाली की सजावट से जगमग हो रहा। बर्तन, क्रॉकरी, सजावट की चीजें, और भी जाने क्या क्या अटा पड़ा है। भीड़ इतनी की चलने को जगह नहीं। ट्रालियों में सामान भरे हुए लोग बिल काउंटर के आगे लाइन लगाए खड़े हुए हैं। कुछ लोग घण्टो से खड़े हैं।
“अरे देखिए! दिए तो भूल गए लेना।” महिला ने पति से कहा।
एक किनारे में टेबिल पर पैकेट्स में सजे हुए दिए रखे हुए हैं। बोर्ड लगा हुआ है- “नदी की मिट्टी से बने हुए दीपक 100 रुपए के दस, ऑफर प्राइज 50 रुपये।”
महिला ने बिल काउंटर पर लगी हुई लाइन को देखा और जल्दी से पांच पैकेट ट्राली में रख लाइन में लगने के लिए बढ़ गयी।
ट्राली में पड़े हुए दिए कुम्हार की किस्मत पर हंस रहे थे।
©संजय मृदुल