धिक्कार – डाॅ संजु झा : Moral stories in hindi

मनुष्य की उन लोलुप इच्छाओं को धिक्कार है,जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रहीं हैं।उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए  मनुष्य नित नए हथकंडे अपनाते रहता है।इसमें नशे का व्यापार  सर्वाधिक  लाभप्रद है,जिसमें व्यक्ति अनैतिक तरीके से अपना जमीर बेचकर जल्द ही लाखों की कमाई कर लेता है। इस धंधे में व्यक्ति की मानवता पूरी तरह मर जाती है।किसी का परिवार  भले ही तहस-नहस हो जाएँ,परन्तु इससे उसकी आत्मा पर कोई बोझ नहीं पड़ता है,बस मुनाफे पर इन मौत के सौदागरों की नजरें गिद्ध की भाँति लगी रहतीं हैं।कथानायिका सुखिया का परिवार भी इन्हीं मौत के सौदागरों की भेंट चढ़ चुका है।

सुखिया का घर दलितों की बस्ती में है।उस बस्ती में करीब सौ घर हैं।सभी दिनभर मेहनत -मजदूरी करते थे और आराम से  जिन्दगी गुजर-बसर करते थे,परन्तु कुछ दिनों से गाँव का माहौल बिगड़-सा गया था,क्योंकि गाँव के बाहर देसी शराब की फैक्ट्री लग गई थी।सुखिया का पति मोहन भी मेहनत-मजदूरी कर परिवार का पेट पालता था,परन्तु जब से  गाँव में शराब की फैक्ट्री लगी है,मोहन भी हमेशा रात में शराब पीकर घर आने लगा था।सुखिया के टोकने पर मोहन कहता था -“देख सुखिया!मुझे टोका-टोकी पसन्द नहीं है।हरारत दूर करने के लिए थोड़ी-सी ले लेता हूँ।”

सुखिया पति के समक्ष खामोश-सी हो जाती।उसका जीवन बेहद गरीबी में गुजर रहा था।मुश्किल से दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो पाता था।कुछ समय पूर्व उसने साहूकार से ब्याज पर कर्ज लेकर दोनों बेटियों की शादी की थी।उसके लिए संतोष की बात थी कि उसका बेटा गणेश अब जवान हो चुका था।उसे भरोसा था कि बाप-बेटे दोनों की कमाई से घर की  माली हालत सुधरेगी।

 कुछ दिनों से सुखिया के पति और बेटे दोनों कमाने लगे थे।अब सुखिया को दिन बहुरने का आभास होने लगा,परन्तु हाथ में पैसे आने से उसका बेटा गणेश भी दारु पीने लगा।इस कारण  सुखिया बहुत चिन्तित रहने लगी।उसके जीवन का आधार-स्तंभ पति और बेटा ही तो था,मगर कुछ दिनों से उसे परिवार का स्तंभ हिलता नजर आने लगा।दोनों बाप-बेटा नशे की गिरफ्त में आ चुके थे।सुखिया सिर पर हाथ धरे हुए  सोचती है -” क्या करुँ?बेटा भी बाप की राह चल चुका है?”

 लोगों से काफी सलाह-मशविरे के बाद  वह बेटे की सुधरने की उम्मीद में उसकी शादी करवा देती है।

बेटे की शादी के बाद घर का माहौल बदल सा जाता है।घर में बहू की चूड़ियों की खनक के साथ उसकी पायल की मधुर ध्वनि गूँज उठती है।सुखिया बहू को बड़े ही प्यार से रखती है।उसे घर के काम-काज  नहीं करने देती है।उसे महसूस होता है कि बहू के काम करने से उसके गोरे-गोरे हाथों की मेंहदी जल्द ही उतर जाएगी।जितने दिनों तक उसके हाथों में मेंहदी रहेगी,उसका सुहाग उतना ही अमर रहेगा!उसका बेटा गणेश भी काम पर से आने के बाद  नवविवाहिता पत्नी के आस-पास ही डोलता रहता था।सुखिया बेटे-बहू की जोड़ी देखकर खुशी से फूले नहीं समाती।उसका पति मोहन भी घर में बहू के आने के बाद से दारु कम पीने लगा था।सुखिया को अब अपने दिन घूरने की पूरी उम्मीद थी।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

पानी के बुलबुले जैसे रिश्ते 

उस दिन उसकी बस्ती में भजन-कीर्तन का आयोजन था।सभी गाँववालों को शामिल होने का आमंत्रण था।सुखिया ने अपने पति और बेटे से कहा था -“तुम दोनों भजन-कीर्तन में शामिल होने चले जाओ।मैं नई बहू को अकेली घर में छोड़कर नहीं जाऊँगी।”

 सुखिया उन्हें  जल्द  लौट आने की हिदायत  भी देती है।उसके पति और  बेटे उस आयोजन में शामिल होने चले जाते हैं।भजन-कीर्तन समाप्त होने पर वहाँ प्रसाद  वितरण होता है। कुछ दिनों में चुनाव  होनेवाला था।उसके बाद वोट की राजनीति के कारण नेता की शह पर शराब के ठेकेदार गाँववालों को मुफ्त में देसी शराब पिलवाता

 है।मुफ्त का माल मिले तो फिर लोगों को होश कहाँ रहता है?गाँववालों के साथ सुखिया का पति और बेटा दोनों छककर दारु पीते हैं और लड़खड़ाते हुए घर आते हैं।उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर सुखिया गुस्से से चुपचाप कमरे में जाकर सोने कहती है।

कुछ ही देर में बस्ती में मौत का हाहाकार मच जाता है।हरेक घर से चीख़-पुकार की आवाजें आने लगतीं हैं।सुखिया सास-बहू भी अपने पतियों को अपनी बाँहों  में सँभालने की नाकाम कोशिशें करतीं हैं,परन्तु पलभर में बाप-बेटे की गर्दन दूसरी ओर लुढ़क जाती हैं।देखते-देखते जिन्दा इंसान लाशों में तब्दील होने लगा।बस्ती के प्रत्येक घर से एक-दो लोगों की मौत हो गई थी।चारों तरफ चीख-पुकारें,सिसकियाँ और आँसू बिखरे पड़े थे।सुखिया चिल्लाते हुए कभी तो अपने पति को जगाने का प्रयास करती,कभी अपने बेटे का मुँह पकड़कर फफककर रो उठती।बड़ा ही हृदयविदारक दृश्य उपस्थित हो उठा था।चारों तरफ लाशें बिछी हुईं थीं।करीब सौ से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकीं थीं। 

     अचानक से हँसते-खेलते गाँव में मौत का सन्नाटा पसर जाता है।कितनी ही औरतों की माँग और कोख उजड़ जाती है!कितनी ही लड़कियाँ नव-वधू थीं,जिनके हाथों में अभी भी लाल-लाल सुहाग की चूड़ियाँ तथा मेंहदी लगी हुई थी।उनके करुण-क्रन्दन  से लोगों के हृदय विदीर्ण हो रहे थे।उनके  चीत्कारों से धरती का दिल  और आसमान का भी कलेजा फट रहा था।लोगों को अनुमान हो चुका था कि रात में जहरीली शराब  पीने से लोगों की मौतें हुईं हैं।ये मौत के सौदागर  कोई बाहरी दुनियाँ के लोग नहीं थे,बल्कि उन्हीं के समाज के लोग थे,जो अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे घुल-मिलकर जहर घोलने का काम करते थे।बस्ती के अशिक्षित लोगों को नशे का आदि बनाकर अपना उल्लू सीधा करते थे।धिक्कार है समाज के ऐसे कलंकित लोगों को।

हरेेक बार की तरह इस बार  भी साँप भाग जाने पर पुलिस  लाठी पीटने आती है।पुलिस  हरकत में आ जाती है।पुलिस  की गाड़ियाँ सायरन बजाती हुई  गाँव में प्रवेश करती हैं।पुलिस  तत्परता से लाशों को गाड़ियों में भरने का काम करती है।सरकार  को भय था कि कहीं विपक्ष और मीडिया इस घटना को तूल न दे दें!इस मौत के भयानक तांडव के बाद  अपनी साख बचाने हेतु पुलिस-प्रशासन  और नेताओं की नींद खुलती है। लोगों के गुस्से को दबाने के लिए सरकार ने मुआवजे की रकम की घोषणा कर लोगों के  जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश  की।सुखिया के हाथों में भी प्रशासन की ओर से चेक दिया गया।सुखिया हाथ में मुआवजे की रकम का चेक भींगी आँखों से एकटक देखती है फिर  वह अपने चेहरे पर दृढ़ भाव लाते हुए  मुआवजा अधिकारी को चेक वापस करते हुए बोल उठती है-“सर!क्या इस रकम से मेरे पति और बेटा वापस आ जाऐंगे?”

इस कहानी को भी पढ़ें: 

रिश्ते की डोर -हरेंद्र कुमार

मुआवजा अधिकारी -” जानेवाले कभी लौटकर नहीं आते हैं।सरकार  की तरफ से  पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद है।”

सुखिया -” सर!आपसे मेरी गुजारिश है कि ये रकम वापस ले लो,परन्तु सरकार से कहकर दारू की फैक्ट्री बन्द करवा दो,जिससे फिर गाँव में मौत का तांडव न मचे।”

सुखिया की मार्मिक बातों से वहाँ उपस्थित  सभी अधिकारी की आँखें नम हो जातीं हैं।

सत्य बात तो यह है कि सरकार  शराब  माफियाओं के खिलाफ तो सख्त कानून बनाती है तथा सख्त सजा का भी ऐलान करती है,परन्तु वही ‘ढ़ाक के तीन पानेवाले कहावत चरितार्थ  होती है।कुछ दिनों तक हो-हल्ला मचाने के बाद फिर स्थिति पूर्ववत् हो जाती है।पुलिस  और नेताओं की मिली-भगत से अवैध शराब का धंधा धड़ल्ले से चलता रहता है।धिक्कार है समाज के ऐसे दुश्मनों को जिसके कारण सुखिया जैसे कितनों के परिवार बर्बाद हो जाते हैं,परन्तु इनके कान पर जूँ तक नहीं रेगतीं हैं।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा (स्वरचित)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!