धिक्कार – आरती झा ‘आद्या’ : Moral stories in hindi

“देखिए मिसेज दत्ता, मैं आपको अधिक से अधिक दवा ही दे सकती हूॅं। आपकी दिनचर्या तो आप ही सुधार सकती हैं। देखिए आपका कोलेस्ट्रॉल, शुगर सब की रिपोर्ट गड़बड़ है। सुबह-शाम की नित्य सैर आपके लिए, आपके स्वास्थ्य के लिए बहुत ही आवश्यक है।” डॉक्टर माया क्लिनिक में नीरा दत्ता की रिपोर्ट्स देखती समझा रही थी।

“जी डॉक्टर, अब ध्यान रखूॅंगी।” चालीस साल की मिसेज दत्ता बच्चों की तरह मासूम सा चेहरा बनाती हुई कहती हैं।

“ये तो आप हर बार कहती हैं। मिस्टर दत्ता बाहर हैं, तो उन्हें अंदर बुलाइए।”

“जरा धीरे बोलिए, मैं कर लूॅंगी, इसमें उनकी क्या जरूरत”… डॉक्टर के आदेश पर नर्स को रोकती हुई नीरा कहती है।

नीरा के मुॅंह की बात पूरी भी नहीं हुई थी और नर्स मिस्टर दत्ता को बुला चुकी थी।

देखिए दत्ता जी, आपकी पत्नी की रिपोर्ट्स में बहुत ही गड़बड़ी है। दवा भी तभी काम करेगी , जब ये अपनी दिनचर्या सुधरेंगी। मुझे तो लगता है ये दवा भी समय से नहीं लेती हैं। भले ही धीमे कदमों से करें, लेकिन सुबह और शाम की एक घंटे की सैर इनके लिए आवश्यक है।” मिस्टर दत्ता से चिंतित भाव से डॉक्टर माया कहती है।

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“आज रहने दीजिए, कल से चलूॅंगी। मेरी नींद पूरी नहीं हुई है।” सुबह पति के जगाने पर नीरा बहाने बनाती हुई कहती हैं।

“ऐसे कैसे काम चलेगा नीरा, शाम से मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। सैर पर नहीं चलना चाहती तो मेरे साथ योगा क्लास ही चला करो।” नाश्ता करते हुए मिस्टर दत्ता पत्नी से आदेशात्मक स्वर में कहते हैं।

“डॉक्टर का क्या है, ऐसे ही कुछ कह देती है। दिनभर घर के काम में ही योगा, सैर सब हो जाता है।” नीरा नाश्ता करते हुए आराम से कहती है।

“ये बच्चों वाली बात कर रही हो नीरा। चलो शाम में बात करते हैं। दवा ले लेना।” कहते हुए मिस्टर दत्ता दफ्तर के लिए निकल गए।

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“कितनी थकी थकी सी लगने लगी हो नीरा, थोड़ा बाहर निकलो। शरीर में प्राकृतिक हवा पानी का लगना भी जरूरी है। अब तो बच्चे भी अपने अपने काम में लगे हैं। खुद पर ध्यान दो।” एक दिन पत्नी नीरा से मिस्टर दत्ता कहते हैं।

“इंसान को अब थकान भी ना हो।” नीरा बात मजाक में उड़ने की कोशिश करती है।

“बात सिर्फ थकान की नहीं है नीरा। खुद को देखो चालीस साल की उम्र में पचास की लगने लगी हो।” खीझते हुए मिस्टर दत्ता कहते हैं।

“ओह तो ये कहिए ना, आपके साथ मैं जमती नहीं अब। मेरे साथ अब आपको शर्म आती है।” नीरा पति के कथन से आहत होकर मोटे मोटे अश्रु धारा के साथ कहती है।

“बात का बतंगड़ मत बनाओ नीरा, मैं ये तो कदापि नहीं कह रहा था। समझ ही नहीं आता है कि अपना ध्यान रखने में तुम्हें क्या दिक्कत है। मैं जा रहा हूं सैर पर।” मिस्टर दत्ता शाम की चाय समाप्त करते हुए बिना पत्नी की ओर देखे निकल गए।

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“हूं, हूं, हूं, अभी तो मैं जवान हूॅं।” ट्रैक सूट में सुबह की सैर और योगा की क्लास के लिए तैयार होते पैंतालीस साल के मिस्टर दत्ता, जो इस उम्र में भी चुस्त दुरुस्त तीस साल के लगते थे, दर्पण के सामने खड़े हुए खुद को परफ्यूम से सराबोर करते गुनगुना रहे थे और उनकी गुनगुनाहट को ध्यान से सुनती उनके क्रियाकलाप को बंद ऑंखों से भी महसूस करती नीरा खीझ रही थी।

अब मेरे लिए शाम की चाय मत बनाना। पार्क में ही दोस्तों के साथ पी लूंगा, तुम अपने लिए बना लेना कहकर मिस्टर दत्ता दरवाजे खोल नीरा को बिना बाई किए गुनगुनाते हुए निकल गए। मिस्टर दत्ता का अब ये सुबह शाम का नियम हो गया था, नीरा के साथ ना बैठना, ना ही कुछ पूछना, खुद में मस्त रहना और मुस्कुराते रहना। 

“ये आपके बालों को क्या हुआ।” 

“अच्छे लग रहे हैं, जवान लोगों के संग रहने के लिए जवान तो रहना ही होगा ना।” नीरा उनके नए डिजाइन में कटे बालों को देख पूछ रही थी कि बालों पर अदा से हाथ रखते हुए मिस्टर दत्ता नहाने के लिए बाथरूम में घुस गए।

 

कहीं इनका कोई चक्कर, इतना सज सॅंवर कर कौन सैर के लिए जाता है। पता तो करना ही होगा, रंगे हाथ पकड़ कर सबक सिखाती हूं।

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आज की सुबह अनोखी ही थी, मिस्टर दत्ता के सैर पर निकलते ही नीरा झट से बिस्तर से उठी और अति शीघ्रता से छुपते छुपाते उनके पीछे चल पड़ी। इसी तरह एक महीना गुजर गया, लेकिन नीरा के हाथ कोई सबूत नहीं लगा और अब वो थकने लगी थी।

“नीरा सुनो आज मेरा लंच मत बनाना। आज दोस्तों के साथ सिनेमा और लंच दोनों है।” अपने बालों में जेल लगाते हुए मिस्टर दत्ता नीरा से कहते हैं।

“आप और सिनेमा, कब से।”

“जब से उसका रंग चढ़ा है, मतलब सिनेमा का रंग चढ़ा है।” मिस्टर दत्ता अपनी बात संभालते हुए कहते हैं।

“अब तो पानी सिर पर से चला गया है, कल सुबह हर हाल में पता करना ही होगा। कहीं वो जो लड़की इनके बगल में दौड़ती रहती है, वो तो नहीं है। छिः बेटी की उम्र की लड़की।” पति के जाते ही सिर पकड़ कर बैठी नीरा खुद में खोई सोच रही थी।

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“आप ठीक हैं अंकल, लगी तो नहीं।” एक लड़की मिस्टर दत्ता को सहारा देती हुई बेंच पर बिठा रही थी और नीरा नजरें गड़ाए हुए आगे बढ़ रही थी,

“हो ना हो, वही लड़की है, एकदम साथ साथ कैसे दौड़ रहे थे और अब देखो कैसे हाथों में हाथ डाले बैठ रहे हैं। बस अब बहुत हुआ।”

“तो ये गुल खिलाए जा रहे हैं। शर्म नहीं आती आपको, बेटी की उम्र की लड़की के साथ”…

“अरे, अरे आंटी, ये क्या कहे जा रही हैं। इनका पैर पत्थर में लगा और ये लड़खड़ा गए, इसलिए मैं इन्हें सहारा देकर बिठा रही थी।” मिस्टर दत्ता के कुछ बोलने से पहले ही वो लड़की बोल पड़ी।

“झूठ के पाॅंव नहीं होते हैं। कितना भी छुपा लो, भाग नहीं सकता। मैं दो महीने से रोज तुम दोनों को साथ दौड़ते देख रहे हूं।” नीरा कमर पर दोनों हाथ रखती हुई कहती है।

“दो महीने से, मैं तो आज पहली बार इनसे मिली हूं। चारों ओर नजर घुमा कर देखिए, मेरी जैसी कई लड़कियां दिख जाएंगी आपको। अंकल आप कुछ बोलते क्यों नहीं और हैं कौन ये।” वो लड़की भी ताबड़तोड़ नीरा को जवाब दे रही थी।

“मेरी पत्नी है बेटा, थैंक्यू बेटा, तुम जाओ बेटा।” मिस्टर दत्ता उस लड़की से कहते हैं।

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और उसके जाते ही जोर से हॅंसते हुए नीरा का हाथ पकड़ कर बिठा लेते हैं, “दो महीने की सैर का असर दिख रहा है तुम पर। शरीर को हवा पानी की खुराक मिलने से मोटापा भी घटा है और मेरे लिए तुम्हारा प्यार आज भी बदस्तूर जारी है, ये भी दिख रहा है।”

“क्या मतलब आपका!”

मतलब ये कि तुम्हारी इस सैर के लिए मुझे कौन कौन से पापड़ नहीं बेलने पड़े। मेरा प्यार तो तुम्हें यहाॅं तक नहीं ला सका, लेकिन शक के कीड़ा ने काट काट कर तुम्हें यहाॅं तक पहुॅंचा ही दिया।

“और सिनेमा”…

“कौन कमबख्त सिनेमा गया, मैं तो शहर की सैर पर निकल गया। वैसे तुम्हारे चक्कर में मैं सच में थोड़ा और युवा दिखने लगा हूं, है ना।” पत्नी को चिढ़ाते हुए मिस्टर दत्ता कहते हैं।

“हूं, ऐसा कुछ नहीं है।” नीरा ऑंखें तरेरती हुई कहती है।

पर, ये सब आप मेरे लिए”…

“जी, तुमने कैसे सोच लिया तुम्हारे अलावा मेरे जीवन में कोई और आएगी। घर के लिए, हमारे लिए, हमारे जीवन के लिए तुम्हारा स्वस्थ्य होना जरूरी है, इसलिए तुम्हें थोड़ा मानसिक कष्ट झेलना पड़ा।” दोनों कानों को पर हाथ लगाते हुए मिस्टर दत्ता पत्नी से कहते हैं।

“नहीं, नहीं, शर्मिंदा तो मैं हूं, मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है। आपने मेरे लिए ये सब किया और मैं आप पर बेवजह शक करती रही, संशय करती रही।” कातर नजर से पति की ओर देखती नीरा कहती है।

“तो इस धिक्कार का यह फल होना चाहिए कि अब ये रवानी कभी रुकनी नहीं चाहिए।” मिस्टर दत्ता नीरा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि के साथ कहते हैं।

“आज पता चला सब्र का फल ही नहीं धिक्कार का फल भी मीठा होता है।” नीरा की सहमति देते ही उसका सहारा लेकर खड़े होते हुए मिस्टर दत्ता मुस्कुरा कर कहते हैं।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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