सुबह होती है शाम होती है जिंदगी बस यूँही तमाम होती है– जिंदगी का सफर चलता जाता है अनवरत रुकता नही।जैसे भोर हुयी फिर दोपहर हुयी और फिर साँझ गहराने लगी– मन में अपने अपने भाव के अनुरूप समाहित होने लगी।
सुखिया और उसके पति एक गाँव में रहते थे।वही खेतीबाड़ी थी– बहुत जमीन थी उनकी।चार बेटे थे और दो बेटियाँ।बच्चे धीरे धीरे बड़े होने लगे।पढ़लिख गए शहर जाकर।बड़ा बेटा इंजीनियर बन गया और उसकी बम्बई मैं अच्छी नौकरी लग गई। थोड़े दिन बाद उसने अपने साथ ही इंजीनियर एक लड़की से प्रेम विवाह करलिया और वहीं बम्बई में ही सैटिल होगया।तीज त्यौहार पर घर आजाता अपनी पत्नी को लेकर। और बेटे भी अच्छी नौकरियों में लग गए। दोनों बेटियाँ भी अच्छे परिवारों में ब्याही गई क्योंकि सुन्दर भी थीं और पढ़ी लिखी भी।
सुखिया और उसके पति सुरेश अपने गाँव में ही रहकर अपनी खेतीबाड़ी संभालते– क्योंकि दोनों स्वस्थ थे तो सब का जीवन सुचारुरूप से चल रहा था– कोई तकलीफ नही थी। दोनों करीब पचास बरस के थे।गाँव के स्वच्छ वातावरण में बढ़े हुए थे इसलिए निरोग थे– ये उनके जीवन का सबसे बड़ा वरदान था।खूब अच्छा खाते और मोटा पहनते।खुशहाल जीवन गुजर रहा था।बेटे भी यदाकदा आजाते।अब तो सबके पास अपनी अपनी पूरी गृहस्थी होगई थी।सब पर दो दो बच्चे थे।वे दोनों पति पत्नी अपने नाती पोतों को बहुत दुलार करते थे
और उनके सब नाती पोते भी दादी दद्दु पर अपनी जान छिड़कते थे।जब वे आते तो सुखिया उनके लिए कभी बाजरे की रोटी और सरसों का साग बनाती– सब बच्चे बड़े खुश होते घर के निकले गाय के मक्खन के साथ खाते– दद्दु के साथ सुबह खुली हवा में घूमने जाते– बहुत खुश रहते गाँव में आकर।
समय हवा के झोंकों की तरह उड़ा जा रहा था।अब दोनों पति पत्नी थोड़े अस्वस्थ रहने लगे लेकिन फिर भी वे दोनो अपने काम में लगे रहते।बेटियाँ भी कभी कभी आजाती– दो चार दिन रह जाती लेकिन उनकी अपनी गृहस्थी थी –तो ज्यादा नही रह पातीं।
दिन बीतते जा रहे थे जवानी अधेड़ावस्था बीत गई और अब साँझ भी ढ़लने को थी।हालांकि ढलती साँझ का एक अपना अलग ही सौंदर्य और आनंद होता है– जब साँझ आती है तो तन-मन में थोड़ा विश्राम लाती है।जीवन भर के थके मन को इस साँझ में एक शाँति की आवश्यकता होती है।यदि वो मिल जाती है तो साँझ भी आनंददायिनी बन जाती है।
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एकदिन अचानक ही सुखिया काम करते हुए गिर गई और उसके कूल्हे की हड्डी टूट गई। अब तो उसके पति सुरेश को बहुत ही परेशानी होगई– उसने अपने बेटी बेटों को खबर दी कि ,”सुखिया बीमार है– उसके कूल्हे की हड्डी टूट गई है– डाक्टर ने प्लास्टर करदिया है लेकिन तुम्हारी माँ उठ बैठ नही पा रही है–
तुम लोग समय निकाल कर आ जाओ,” उनके बच्चे वैसे तो कम आते थे लेकिन माँ की बीमारी की खबर सुनकर तुरंत ही सब बच्चे गाँव आगये। बच्चे संस्कारी थे।वे इस समय अपने माता-पिता को अकेले नही छोड़ सकते थे।सुखिया के अस्वस्थ शरीर में तो मानों जान पड़ गई। उसे लगा कि ,”ढलती साँझ– जो कि कभी मायूस करती थी उसको आज बहुत खूबसूरत लग रही है,”।
उसके सब नाती पोते अपनी दादी को घेर कर बैठ गए और कोई दादी को सूप पिलाता और कोई रोटी का कौर खिलाता।कभी बेटी अपनी माँ की पसंद की कोई चीज बनाती तो कभी कोई बहू अच्छा सा पकवान।सबकी सेवा से सुखिया तीन चार महीने में ठीक होगई और अब धीरे धीरे वाकर के सहारे चलने लगी लेकिन बहू और दोनों बेटियाँ एक एक करके अपनी माँ की सेवा में ही रहीं।बच्चों की भी छुट्टियाँ थी सो वे भी अपनी दादी के पास रहते– कभी दादी से कहानी सुनते और कभी दादी को अपनी मजेदार बातें सुनाकर खूब हँसाते दादी को– दादी उन सब की सेवा और प्रेमपूर्ण व्यवहार से अब पूर्णत: स्वस्थ होगई।
वो सुखिया जो कभी ये सोचती थी कि उसके बीमार होनेपर कौन उसकी सेवा करेगा क्योंकि सभी व्यस्त थे– आज उसकी विचार धारा बदल गई। उसको अपने जीवन की #ढलती साँझ आनंद और उल्लास से भरी लगी।ढलती साँझ का ढलता सूरज अस्त होते हुए भी अपनी स्वर्णिम आभा विकीर्ण कर रहा था।ऐसे ही सुखिया के जीवन की साँझ के पड़ाव में आज आनंद की स्वर्ण किरणें विकीर्ण होरही थीं।
ढलती साँझ आज अपनी पूरी गरिमा के साथ आनंददायक लग रही थी सुखिया को।।
लेखिका
डॉ आभा माहेश्वरी अलीगढ