सॉंझ ढल रही थी। सूर्य धीरे-धीरे अस्त हो रहा था। अविनाश की नजर दूर क्षितिज पर टिकी थी ,जहाँ अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा फैली हुई थी। वहाँ देखकर ऐसा लग रहा था जैसे जमीन और आसमान दोनों मिल रहे हैं। वह सोच रहा था, यह एक आभास ही सही, जो कुछ देर रहता है, पर कितना सुखद है। कुछ देर बाद रात की चादर फैल जाएगी और धरती सो जाएगी रात की आगोश में।
नगर के बाहर इन छोटी-छोटी पहाड़ियों से यह दृश्य बहुत ही सुन्दर लगता है, कई लोग आते हैं इस प्राकृतिक दृश्य को देखने के लिए। मगर अविनाश तो इन पलों में अपने को खोने के लिए आता है, कई यादें जुड़ी है उसके जीवन की इस स्थान से। वह चाहता है कि ऐसा कुछ हो कि वे पल कुछ समय के लिए ही सही आए और वह उन्हें जी सके।उसके मुख से अनायास निकला ‘अवनी कहाँ हो तुम….।’उसकी आवाज शून्य में खो गई। उसने एक गहरी निश्वास ली।मन अवनी की याद से बैचेन हो गया था।
सर्दी का मौसम था। ठण्डी हवाओ के थपेड़ों से अविनाश का शरीर कंपकंपाने लगा था। वह भारी मन से उठा और घर जाने लगा, सोच रहा था घर पर भी तो एकाकी जीवन के थपेड़े खाना है, कोई भी तो नहीं है जो मेरा इन्तजार करे, जिससे मैं अपने सुख-दु:ख की बात कर सकू। सूने घर की दीवारे उसे काटने के लिए दौड़ती है। पर शिकायत करे तो किससे? माता -पिता का देहांत हो गया। भाई बहिन कोई है नहीं। एक अवनी……। नहीं उसके बारे में नहीं सोचूँगा वरना पूरी रात पीछा नहीं छोड़ेगी। उसने डाइनिंग टेबल पर देखा, नन्दू टिफिन रखकर जा चुका था।
उसने हाथ मुंह धोए और बेमन से खाना खाया, शरीर के लिए भोजन तो जरूरी है,जब तक जीवन है, जीना तो है। भोजन करने के बाद वह बिस्तर पर कम्बल ओढ़ कर रोज की आदत के अनुसार एक कहानी की किताब पढ़ने लगा। टीवी देखने का उसे शोक नहीं था।
किताब पढ़ना अच्छा लगता था । और खाली समय में वह इसी में व्यस्त रहता था। सुबह दस बजे ऑफिस पहुँच जाता दिन भर कम्प्यूटर पर काम करने, बास के निर्देश सुनने और अपने जूनियर्स को काम सिखाने में बीत जाता। घर आकर चाय पीता और निकल जाता उन टीलों की ओर वहाँ एक नियत स्थान पर बैठकर खोया रहता, अपने आप में जब तक अंधेरा नहीं होता घर जाने का नाम नहीं लेता।
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अविनाश कहानियाँ पढ़ रहा था, उसमें एक कहानी के किरदार उसे अवनी और उसके जैसे लगे। वह ध्यान से पढ़ रहा था, सोच रहा था कहानी की नायिका की तरह अवनी भी तो मेरा जॉब लगने तक मेरा इन्तजार करने को तैयार थी। पर उसके माता- पिता को उसके विवाह की जल्दी थी,इसलिए उसका रिश्ता दूसरी जगह कर दिया और वह अविनाश से मिल न सके, इसलिए उससे दूर अन्य नगर में रहने चले गए। अवनी विवश थी कितना रोई थी वह जाने के एक दिन पहले, जब वह अविनाश से उस टीले पर मिलने आई थी।
अविनाश का पूरा कंधा भींग गया था, अविनाश ने उसे बस यही कहकर दिलासा दिया था, अवनी मैं हमेशा तुम्हें याद करूँगा। तुम जब आवाज दोगी मैं तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तुम जहाँ भी रहो खुश रहो बस एक बार मुस्कुरा दो, वह नहीं मुस्कुरा सकी। अवनी चली गई ठीक कहानी की पात्र धरा की तरह। अविनाश की ऑंखें भींग गई थी।
उसने किताब को बंद किया और कमरे में टहलने लगा, मगर कहानी के किरदार उसे अपनी तरफ खींच रहै थे,उसने फिर से कहानी को पढ़ना शुरू किया।कहानी में धरा के जीवन में कई उतार चढ़ाव आए और किस्मत ने उसे कहानी के नायक से फिर मिला दिया। अविनाश के मन में एक छोटी सी आशा की किरण ने जन्म लिया कि क्या कहानी के पात्रों की तरह वह और अवनी भी….। उसने अपने दिमाग को झटका दिया,’क्या बेकार की बाते सोचता रहता हूँ मैं भी ।’ और किताब बंद करके सो गया। दूसरे दिन वह फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया।
पर कार्य करते समय भी वह कहानी उसके दिमाग में घूमती रही उम्र पचास पार कर गई थी, उसने शादी नहीं की थी उसने अवनी से जाते समय वादा किया था कि वह जब पुकारेगी वह उसके पास आ जाएगा। यह उसके सच्चे प्यार की पुकार थी,या महज एक संयोग। आज जब वह उस पहाड़ी पर गया तो उसने देखा जिस टीले पर वह रोज बैठता था, वहाँ एक युवती बैठी हुई थी उसने बैंगनी रंग की चुन्नी से अपने सिर को ढक रखा था। उसके दिल के तार झनझनाए, कहीं यह अवनी….? नहीं वह नहीं हो सकती उसकी तो शादी हो गई होगी। अविनाश एक दूसरे टीले पर बैठकर आकाश की ओर देखने लगा मगर आज उसका मन बैचेन हो रहा था। न चाहते हुए भी नजरे बार- बार उस युवती की ओर जा रही थी।
सूर्य अस्त हो गया था, सांझ ढल रही थी, मन की बैचेनी को कम करने के लिए वह आज जल्दी ही उठ गया, घर जाने के लिए मुड़ा ही था कि उसके कानो में आवाज आई ‘अविनाश…।’ उसने सोचा मेरा भ्रम होगा, वह जैसे ही आगे बड़ा फिर आवाज आई ‘तुमने ही कहा था ना जब मैं आवाज दूंगी तुम मेरे पास आ जाओगे, आज मैं तुम्हें आवाज दे रही हूँ।’ अविनाश ने पीछे मुड़कर देखा वह बेंगनी दुपट्टे वाली युवती ठीक उसके पास पड़ी थी। उसने आश्चर्य से देखा बोला-‘अवनी तुम…. यहाँ कैसे?’ फिर धीरे से बुदबुदाया
‘हे ईश्वर क्या आपने मेरी मौन पुकार को साकार किया है?’ हॉं मैं ही हूँ, बिलकुल अकेली हूँ, मेरी जिससे शादी होने वाली थी, वह एक एक्सिडेंट का शिकार हो गया। शादी की पूरी तैयारी हो गई थी, पत्रिका भी बट गई थी। पापा यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और चल बसे। माँ और मैं अकेले रह गए। मैंने एक स्कूल में नौकरी की और माँ का और मेरा जीवन चलता रहा मैंने माँ से मना कर दिया था कि अब मैं विवाह नहीं करूँगी। छह महीने पूर्व माँ भी मुझे छोड़कर चली गई। पता नहीं यह कैसा बंधन था जो मुझे यहाँ खींच लाया।
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तुम्हे यहाँ देखकर इतना विश्वास तो हो गया कि तुम मुझे अभी तक भूले नहीं हो क्या हम…. फिर से…।’ ‘अवनी इस दिल को शायद तुम्हारा ही इन्तजार था। मेरे मम्मी-पापा भी नहीं रहै, रोज आता हूँ यहाँ, ऐसा एक दिन भी नहीं गुजरा, जब मैंने तुम्हें याद न किया हो। शायद भगवान को मुझपर दया आ गई होगी, तभी उन्होंने मेरी इस ढलती उम्र में तुमसे मिलाया। ढलते हुए सूर्य देव ने मुझे तुम्हारे रूप मे इतना सुन्दर उपहार दिया है। आज मुझे यकीन हो गया है कि जमी और आसमॉं भले ही कभी न मिल पाए, मगर बिछड़े हुए दिल कभी-कभी मिल ही जाते हैं। उस ढलती सॉंझ ने अवनीश और धरा का जीवन रंगीनियों से भर दिया था।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित