कमला जी की जिंदगी ढ़लती साॅंझ बन गई है,जहाॅं से रात ही शुरू होनेवाली है।अपने बड़े से घर में एकाकी जीवन जीते हुए उनके मन में तरह-तरह के ख्याल आते रहते हैं। व्यक्ति की जिंदगी में बालपन सुबह की प्यारी धूप की तरह होती है,जहाॅं सब कुछ सुनहरी आभा से लिपटा हुआ महसूस होता है। युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में वही सुनहली आभा जिंदगी के कठिन संघर्ष में प्रखंड सूर्य की किरणें बन जाती हैं।
फिर जब ज़िन्दगी की साॅंझ आती है, तो व्यक्ति अपने विगत जीवन का पुनरावलोकन करने लगता है। बालपन और युवापन तो हॅंसते-खेलते कट जाता है। प्रौढ़ावस्था जिम्मेदारियाॅं पूरी करने में बीत जाती है, परन्तु जैसे ही जीवन की साॅंझ आती है, व्यक्ति के जीवन में उथल-पुथल मच जाती है।कुछ तो बुढ़ापे में भी अपनी जिंदगी का मकसद ढ़ूढ लेते हैं और कुछ लोगों की जिंदगी दूसरों पर बोझ बनकर बेमक़सद बन जाती है।
मेड मीरा के जोर-जोर से दरवाजा पीटने से कमला जी की सोच को विराम लग जाता है। धीरे-धीरे अपने -आप से बोलते हुए कि जब देखो तब घोड़े पर सवार होकर ही आती है। उन्होंने दरवाजा खोल दिया, फिर मीरा को डाॅंटते हुए कहा -“तुझे जरा भी सब्र नहीं है।जानती है कि जीवन की ढ़लती साॅंझ है, घुटने में दर्द रहता है,तो धीरे-धीरे चलती हूॅं।।”
रोज की तरह कान पकड़कर मीरा कहती हैं -“अच्छा माॅं जी!कल से धीरे-धीरे दरवाजा खटखटाऊॅंगी।”
मेड मीरा कुछ देर में चाय बनाकर लाती है,और कमला जी के पास में बैठकर चाय पीते -पीते कमला जी की दुखती रग पर प्रहार करती हुई कहती हैं -“माॅं जी!पिछले हफ्ते यह घर कितना हरा-भरा लगता था,आज देखो कैसी वीरानी-सी छाई हुई है?”
पिछले हफ्ते कमला जी के बच्चे इंग्लैंड वापस चले गए थे।
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कमला जी अपनी ऑंखों में आए हुए ऑंसू को छिपाते हुए कहती हैं -“मीरा!तुम चुपचाप जाकर अपने काम करो।हाॅं!आज से दो रोटी और ज्यादा बना देना।”
मीरा पूछती है -“मॉं जी! अब दो रोटी और ज्यादा किसके लिए?खुद तो दो रोटी खाती हो और बनवाती हो दस। फिर अब बारह क्यों?”
कमला जी -“मीरा!तू सवाल बहूत करती है।सुन ले,दो रोटी तुम्हारी,दो मेरी,दो पगली भिखारिन की,दो गाय की और चार डाॅगी की।”
मीरा -“माॅं जी! डॉगी के लिए तो अबतक दो ही बनती थी,अब चार क्यों?”
कमला जी -” देखती नहीं है कि जब डॉगी के चारों पिल्ले उसकी छाती से चिपककर दूध पीते हैं, तो कैसे कूं-कूं आवाजें निकालते हैं?मूझे महसूस होता है कि उनका पेट नहीं भरता है!”
मीरा -“मॉं जी! खिलाने से क्या फायदा?एक दिन ये बच्चे भी मॉं को छोड़कर चले जाऐंगे।”
कमला जी-“जा तू अपना काम कर। बेकार की बहस मत कर।”
कमला जी अब कुर्सी पर बैठकर बंद ऑंखों से अतीत में विचरण करने लगती हैं।पति सरकारी अफसर थे। ज़िन्दगी में कोई कमी नहीं थी। बेटा-बेटी पढ़ -लिखकर भविष्य के सपने बुनने विदेश चले दिए। दोनों बच्चे अपने परिवार के साथ विदेश में अपने भविष्य निर्माण कर रहे थे।कमला दम्पत्ति भी जीवन की ढ़लती साॅंझ में एक-दूसरे के सहारे खुशी से जीवन व्यतीत करते थे। छुट्टियों में बच्चे आते,तो उनके घर और जीवन में बहार आ जाती।
बच्चों के जाने पर सूना घर उन्हें काटने को दौड़ता।उनके सूने मन को ढ़ॉंढ़स बढ़ाते हुए उनके पति गगन जी कहते -“कमला! मन को समझाओ।पता नहीं! क्यों नई पीढ़ी को विदेश ही रास आने लगी है?नई पौध विदेशी चकाचौंध में गुम-सी हो रही है।एक ही झटके में अपना घर-परिवार, माता-पिता और अपने देश को छोड़कर परदेस में बसने का निर्णय ले लेती है। हम बस बेबस से देखते रह जाते हैं।”
पति के प्यार और सहयोग से कमला जी बच्चों के आने के इंतजार में समय खुशी से व्यतीत करतीं। अचानक से ज़िन्दगी की ढ़लती साॅंझ में उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा सदमा आ खड़ा हुआ। उनके पति की हृदय गति रुकने से मौत हो गई।पति के अभाव में उनकी जिंदगी वीरान और बदरंग हो उठी। उनके मन पर अन्यमनस्कता के बादल घिरने लगें।पिता के देहांत पर बच्चे विदेश से आए।सभी काम खत्म होने पर बेटा अमन ने जिद्द करते हुए कहा -“माॅं!अब आप हमारे साथ इंग्लैंड चलो।यहॉं अकेले रहने का क्या मतलब?”
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अकेलेपन के डर से कमला जी ने जाने की हामी भर दी।बेटे ने धीमी आवाज में घर बेचने की भी बात की, परन्तु कमला जी ने अपने दिल की बात बेटे-बहूऔर बेटी के सामने कहा –“बच्चों!अभी तो घर के ऊपरी हिस्से में किराएदार हैं,वो घर की देखभाल कर लेंगे।अभी मेरे जेहन में इस घर की खुबसूरत स्मृतियॉं बसी हुईं हैं। तुम्हारे पिता की सुगंध और तुम दोनों भाई -बहन का खिलखिलाता बचपन और यौवन के रंग चहुंओर बिखरे पड़े हैं।अभी मैं उन यादों से बाहर नहीं निकल पा रही हूॅं।कुछ समय बाद इस पर विचार करेंगे।”
बच्चों ने भी मॉं के अंतर्मन के दर्द को महसूस करते हुए तत्काल घर बेचने की बात छोड़ दी।
कुछ समय पश्चात् मेड मीरा ने उनकी सोच को विराम देते हुए कहा -“मॉं जी!कहॉं बीते दिनों में खो गई हो?अब स्नान -ध्यान तो कर लो।”
कमला जी अतीत से वापस लौटकर पहले डॉगी को एक बार फिर से देखने जाती हैं। पिल्ले उन्हें देखकर कूं-कूं करते हुए उनके आस-पास उछल-कूद करने लगते हैं और फिर जाकर मॉं से चिपक जाते हैं। उसे देखकर कमला जी कीऑंखें यह सोचकर भर उठतीं हैं कि बचपन में उनके बच्चे भी तो इसी तरह उनसे चिपके रहते थे।
तभी भीख मॉंगने वाली पगली जोर-जोर से आवाज देते हुए कहती हैं -“अम्मा!रोटी दे दो।”
मेड मीरा हॅंसते हुए कहती हैं -” देखो मॉं जी! कितने हक से रोज रोटी मॉंगने चली आती है!”
कमला जी कहती हैं -“मीरा!तुम नहीं समझती हो,इसी बहाने तो घर में चहल-पहल बनी रहती है!”
कमला जी दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर जब बिस्तर पर लेटती हैं, फिर से बीती यादें उन्हें घेर लेती हैं।पिछली बार बेटे-बहू की बात मानकर इंग्लैंड तो चली गईं थीं, परन्तु वहॉं उनका मन बिल्कुल नहीं लगता था।वहॉं का अकेलापन भयंकर नागपाश की तरह उन्हें दिनोंदिन जकड़ता जा रहा था। बेटे-बहू तो सुबह-सुबह दफ्तर चले जाते और बच्चे स्कूल। उनके लिए समय बिताना कठिन हो रहा था। आरंभ में तो स्कूल से आकर उनके पास बैठते थे।वो भी मन बहलाने के लिए बच्चों के काम कर देतीं।समय किसी तरह कट रहा था।
एक दिन बच्चों का काम करते देखकर बहू ने कहा -” अम्मा!आप बच्चों की आदतें बिगाड़ रहीं हैं। इन्हें अपना काम खुद करने दीजिए।”
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पत्नी की बातों का समर्थन करते हुए बेटे ने भी कहा -“अम्मा!ये इंडिया नहीं है।यहॉं शुरू से ही बच्चों को आत्मनिर्भर बनाया जाता है,ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।”
कमला जी ने बेटे से कहा -“क्यों बेटा! दसवीं तक मैंने तुम्हारे बाल नहीं सॅंवारे और मौजे नहीं पहनाऍं?”
बेटा -” अम्मा!आप तो हाउस वाइफ थीं।आपको बाहर काम नहीं करना पड़ता था।उसपर से दिनभर महरी लगी रहती थी।यहाॅं महिलाओं को खुद सारे काम करने पड़ते हैं!”
बेटे की बात सुनकर कमला जी ख़ामोश हो जाती हैं। यहॉं उन्हें खाने-पहनने की कोई दिक्कत नहीं थी, परन्तु मन का क्या करें,जो पराए देश में रमने को तैयार नहीं था। छोटे -छोटे पौधों को तो जड़ से उखाड़कर कहीं भी लगाया जा सकता है, परन्तु वटवृक्ष को जड़ से उखाड़कर अन्यत्र लगाना कहाॅं संभव होता है!उसपर से परदेस का कानून और मौसम भी उन्हें काफी परेशान करता था।कभी जोर से भजन सुनने पर पड़ोसी शिकायत कर देते,तो कभी साड़ी बाल्कनी में फैलाने पर बहू नाराज हो जाती।हरेक बातों में बेटा अपनी पत्नी का समर्थन करता। उन्हें महसूस होता कि निगोड़ी बुढ़ापे के कारण कहॉं परदेस में आकर फॅंस गई ं हैं!
वहाॅं न तो किसी से बात कर सकतीं थीं,न ही उनकी भाषा समझ में आती थी। बेटे-बहू कभी-कभी शाम में पास के पार्क में ले जातें, परन्तु घुटने दर्द के कारण ज्यादा घूम नहीं पातीं, वहाॅं भी चुपचाप बैठी ही रहतीं।जिसको देखो बस ममुस्कराकर हाथ हिलाते निकल जाता।अपने देश में तो दिनभर कोई -न-कोई आता-जाता रहता था।कभी पड़ोसी,कभी किराएदार,कभी महरी,कभी रिश्तेदार।इतना एकाकीपन अपने देश में नहीं खलता था।
उसपर से वहॉं का ठंड का मौसम उन्हें जानलेवा लगता था। ठंड के मौसम में गहराती शाम के साथ आसमान भी काला होने लगता।ऐसा प्रतीत होता था मानो ठंड से सिकुड़कर शहर जल्द ही सिमट जाता और अंधकार छाने लगता।उस मौसम में घुटने का भी दर्द बढ़ जाता। ऐसे समय में उन्हें अपने घर के अंदर-बाहर आती हूं धूप की बहुत याद आती।धूप सेंकते हुए पड़ोसियों से भी बात-चीत हो जाती।
तीज-त्योहारों की भी जानकारी मिल जाती।वहॉं तो तीज-त्योहार,निर्जला एकादशी, गुरु पूर्णिमा, सरस्वती पूजा,माघी पूर्णिमा कब आकर चले जाते ं,कुछ पता ही नहीं चलता।हॉं! कुछ बड़े त्योहार भारतीय जरूर मनाते थे, परन्तु उनमें भी भारतीयता कम विदेशीपन की ही अधिक झलक दिखाई देती। रह-रहकर उनका मन अपने देश,अपने। शहर की गलियों में भटकता रहता था।
अपने शहर का गंगा घाट,गंगा घाट की आरती की सुमधुर कर्णप्रिय ध्वनि सुनाई देती।कभी गंगा घाट पर स्नान करते हूं लोगों की हर-हर गंगे की ध्वनि कानों में गूॅंजतीं।उन सभी बातों को जितना भूलने की कोशिश करतीं,उतनी ही याद आतीं।
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जीवन की ढ़लती साॅंझ में अकेलेपन और उदासी की चुभन व पीड़ा और वतन की यादें उनके मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख देतीं। उन्हें महसूस होता कि पंख लगाकर अपने वतन उड़ जाऊॅं, परन्तु बेटे से अपने दिल की बात कह नहीं पातीं।
कहां जाता है कि जहॉं चाह,वहॉं राह!संयोग से कुछ दिनों बाद उनकी भतीजी की शादी थी।भाई ने बड़े आग्रह के साथ सभी को आने का आग्रह किया था। सभी के साथ वे भारत वापस आ गई।वापस लौटते समय बेटा ने चलने के लिए जोर देते हुए कहा -“अम्मा! जीवन की ढ़लती साॅंझ में आपका यहॉं अकेले रहना ठीक नहीं है। साथ ही चलो।”
परन्तु इस बार कमला जी ने ठान ली थी कि जिंदगी की संध्या वेला अपने वतन में ही गुजारनी है। उन्होंने मना करते हुए कहा -” बेटा! मैं यहॉं अकेली कहॉं हूॅं?पड़ोसी से लेकर रिश्तेदार, किराएदार सब हैं। तुमलोग आते-जाते रहना।जिद्द मत करो।”
मेड मीरा चाय बनाकर उन्हें चिन्तन से जगाती हैं।कमला जी उठकर चाय पीती हैं। ज़िन्दगी की ढ़लती साॅंझ को सुखमय बनाने के लिए कमला जी ने मेड मीरा को परिवार समेत अपने घर के पीछे बने घर में रहने के लिए बुला लिया और उसके बच्चों की पढ़ाई में मदद कर खुश रहने लगीं।कुछ समय पश्चात् डॉगी के बच्चे बड़े होकर अपनी दिशा चले गए। डॉगी मॉं भी उन्हें कुछ देर तक देखने के बाद दूसरी दिशा चली गई। उन्हें जाते देखकर मेड मीरा कहती हैं -“देखा मॉं जी!जानवर अपने बच्चों के चले जाने पर दुखी नहीं होते हैं।हम इंसान पहले अपने बच्चों को जिंदगी की उड़ान दिखाते हैं, फिर उड़ान सीख जाने पर उनके जाने का ग़म मनाते हैं!”
मीरा की बातें सुनकर कमला जी मन-ही-मन सोचती हैं -“मीरा अनपढ़ होकर भी इतनी बड़ी बात समझ गई है और हम पढ़े-लिखे होकर भी नहीं समझ पाते हैं कि बच्चों का अपना भविष्य है ,उनकी अपनी दुनियॉं है। हमारी तो जिन्दगी ढ़लती साॅंझ है। अपने स्वार्थ की खातिर उनकी उड़ान को रोक नहीं सकते।अपने बुढ़ापे का इंतजाम हमें खुद करना पड़ेगा। विदेश में बसे माता-पिता को बच्चों का मोह छोड़कर उनके प्रति एक सकारात्मक नजरिया अपनाना होगा।”
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा स्वरचित।