Moral stories in hindi : अक्सर लोग विपरीत परिस्थितियों के आगे हार मान लेते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो उनका डटकर मुकाबला करते हैं और अपनी एक विशेष पहचान बनाने में कामयाब हो जाते हैं।उन्हीं में से एक थी नंदा सावरकर।
अपने तीन भाई-बहनों में नंदा सबसे छोटी थी।देखने में सुंदर और पढ़ाई में होशियार।जब वह बारह बरस की थी, तब एक दिन स्कूल से आकर बच्चों के साथ खेल रही थी।खेलते-खेलते बच्चे सड़क पर आ गये, न जाने कहाँ से एक बाइक वाला आया जो नशे में चूर था, नंदा को टक्कर मारकर भाग गया।
सड़क पर खून ही खून फैल गया।नंदा दर्द से कराह कर बेहोश हो गई।पिता दौड़कर आये और बेटी को लेकर अस्पताल दौड़े।वहाँ डाॅक्टर ने कहा कि दाहिने पैर में मल्टीपल फ़्रैक्चर है, आप बच्ची को बड़े शहर में ले जाईये।आनन-फ़ानन में एक पिता अपनी बेटी की जान बचाने के लिये उसे लेकर दिल्ली गया।ईश्वर की कृपा से ऑपरेशन सफ़ल हुआ।
महीने भर बाद प्लास्टर खुला और नंदा जब चलने का अभ्यास करने लगी तो उसे चलने में परेशानी होने लगी।वह ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी।डाॅक्टर ने चेकअप करके बताया कि कुछ दिनों में दर्द तो ठीक हो जायेगा लेकिन…।
” लेकिन क्या डाॅक्टर साहब…।” पिता अनहोनी की आशंका से काँप उठे।
डाॅक्टर आश्वासन देते हुए बोले,” हड्डियाँ बुरी तरह से टूट गईं थीं, हमारे लाख प्रयास के बाद भी…नंदा अब दाहिने पैर से सीधी कभी नहीं चल पाएगी।”
नंदा और उसके पिता के लिये यह एक बहुत बड़ा सदमा था।दोनों ने एक-दूसरे को संभाला और घर आ गये।उस दिन से ‘ लंगड़ी ‘ शब्द नंदा की पहचान बन गई।स्कूल में उसके सहपाठी इसी शब्द से उसे पुकारते।उसकी सहेलियों ने उससे दूरी बना ली लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी।अब कानों में रुई डालकर वह पढ़ाई करने लगी और दसवीं कक्षा में उसने अपने स्कूल के तीनों सेक्शन में टाॅप किया।
उसकी बड़ी बहन और भाई जिस काॅलेज़ में पढ़ रहे थें, उसी में नंदा भी दाखिला लेना चाहती थी लेकिन उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि हमें सब लंगड़ी की बहन-भाई कहेंगे।नंदा सहनशील थी, उसने स्वयं को समझाया कि मुझे पढ़ाई अच्छे-से करनी है,काॅलेज़ चाहे कोई भी हो।बीए करने के बाद वह बीएड करके अपने पैरों पर खड़ी होना चाहतीं थी लेकिन माँ ने कह दिया,” अपने घर जाकर जो जी में आये…करना।” पिता ने भी उसे समझाया कि हमारे बाद तो तू यहाँ अकेली पड़ जाएगी।भाई-भाभी कब तक..।निशांत अच्छा लड़का है,तेरा ख्याल रखेगा।”
नंदा ने पिता की बात मान ली और निशांत जो एक सरकारी स्कूल में अध्यापक के पद पर कार्यरत था, से विवाह करके ससुराल चली गई।
शुरु के कुछ दिन तो नंदा के बहुत अच्छे रहे, लेकिन फिर निशांत अपने रंग दिखाने लगा।बात-बात पर नंदा को नीचा दिखाने का प्रयास करता।बेवजह उसकी गलतियाँ निकालता और घर-खर्च देने में भी कंजूसी करता।उसे लंगड़ी कहकर उसकी विकलांगता का एहसास कराने का वह एक भी मौका नहीं छोड़ता था।सास तो थी नहीं, ससुर ही उसके ज़ख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास करते।
एक दिन नंदा से रोटी थोड़ी जल गई तो निशांत ने उसपर हाथ उठा दिया।उस दिन नंदा बहुत रोईं थी।वह समझ गई कि पति का प्यार एक छलावा था।
बेटे के व्यवहार से नंदा के ससुर दुखी होकर बीमार रहने लगे और एक रात ऐसे सोये कि फिर कभी नहीं उठे।फिर तो निशांत की मनमानी और भी बढ़ गई।एक दिन तो वह नंदा का गला ही दबाने लगा था, किसी तरह से नंदा ने खुद को उसके चंगुल से बचाया और एक कमरे में बंद हो गई।उसने एक बैग में अपने कपड़े और कुछ पैसे रखे।अगली सुबह निशांत के जागने से पहले ही उसने घर छोड़ दिया, तब वह दो माह की गर्भवती थी।
नंदा बदहवास-सी अकेले चली जा रही थी कि अचानक वो एक कार से टकरा गई।वह पेट के बल ही गिर पड़ी और उसका गर्भपात हो गया।कार एक डाॅक्टर की थी।वे नंदा को अपनी कार में बिठाकर क्लीनिक ले गये और उसकी ड्रेसिंग की।नाम-पता पूछने पर वह फूट-फूटकर रोने लगी।संक्षेप में अपने बारे में बताते हुए वह बोली कि मैं आप पर बोझ नहीं बनना चाहती…बीए पास हूँ..हर काम करने में सक्षम हूँ।”
” लेकिन तुम्हारे पैर..कैसे कर पाओगी..।” डाॅक्टर साहब ने उसके पैर की तरफ़ देखा।
” साहब….मेरा एक पैर ही तो अक्षम है,बाकी शरीर तो स्वस्थ है और फिर काम तो मुझे दिमाग से करना है।”
नंदा के जवाब से डाॅक्टर साहब बहुत खुश हुए। उसे अपने घर ले गये।दो दिन बाद उन्होंने नंदा को अपने मित्र के गार्मेंट फ़ैक्ट्री में काम दिला दिया।वहाँ पर काम करने वाले स्टाफ़ ने उसके पैर को देखकर पहले तो हँसी उड़ाई लेकिन फिर उसकी मेहनत- लगन को देखकर और उसके सरल स्वभाव से सभी बहुत प्रभावित हुए।
डाॅक्टर साहब की मदद से ही उसे रहने के लिए एक कमरा भी मिल गया।फ़ैक्ट्री से वापस आने के बाद वह आसपास के गरीब बच्चों को पढ़ाने लगी जिसके कारण लोग उसे टीचर दीदी कहकर पुकारने लगे।इतने सालों से वह अपने लिये लंगड़ी संबोधन सुनती आई थी, अब नये नाम से उसकी पहचान होने लगी तो उसे बहुत खुशी हुई।
नंदा की खोली(कमरा) के आसपास कई ऑटोरिक्शा चालक रहते थें।एक दिन उसने गोपाल से पूछ लिया, “भईया…क्या मैं ऑटोरिक्शा नहीं चला सकती?”
” हाँ- हाँ…क्यों नहीं।आपको तो ई-रिक्शा तुरंत मिल जायेगा।आप कहे तो मैं अपने साहब से बात करूँ?”
” हाँ भईया….लेकिन मुझे तो ऑटोरिक्शा चलाना नहीं आता।” नंदा ने अपनी असमर्थता व्यक्त की।
” आप अकेले हमारे बच्चों को पढ़ा रहीं हैं, हम सब मिलकर आपको ऑटोरिक्शा चलाना नहीं सिखा सकते हैं क्या…।” हँसते हुए गोपाल ने कहा तो नंदा को भी हँसी आ गई।
भगवान एक द्वार बंद करते हैं तो दस द्वार खोल भी देते हैं।दस दिनों के अंदर ही नंदा ने ऑटोरिक्शा चलाना सीख लिया।उसने ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया और गोपाल की मदद से उसे ई-रिक्शा भी मिल गया।शुरु-शुरु में एक पैर से लाचार लड़की को ई-रिक्शा चलाते देख लोगों ने उसका खूब मज़ाक उड़ाया; उसे सवारी भी नहीं मिलती थी।फिर धीरे- धीरे महिलाएँ उसके रिक्शे में बैठकर सहज होने लगी, पैरेंट्स अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिये उसे ही बुक करने लगे।फिर तो उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
नंदा अब सीएनजी ऑटोरिक्शा चलाने लगी।वह रात के ग्यारह बजे भी सवारियों को उसके गंतव्य तक पहुँचाने में ज़रा भी नहीं हिचकती थी।लोग जब उससे पूछते,” आपको डर नहीं लगता..।” मुस्करा कर वह कहती,” संघर्ष करने वाले कभी डरते नहीं क्योंकि संघर्ष बिना पहचान नहीं मिलती।”
‘ऑटो वाली दीदी ‘ के नाम से वह प्रसिद्ध हो गई थी।एक रात नंदा अपनी सवारी को उसके घर तक पहुँचाकर वापस लौट रही थी कि तभी उसकी नज़र एक लड़की पर पड़ी जो हेल्प-हेल्प कहकर सड़क पर दौड़ती जा रही थी, उसके पीछे तीन लड़के भी थे।फिर तो उसने
अपने ऑटोरिक्शा की गति तेज कर दी, लड़की को अपनी ऑटो में बिठाया और उन तीन लड़कों को खदेड़ दिया।
अगले दिन अखबार के मुखपृष्ठ पर हेडलाइन छपी, धाकड़ दीदी ने गुंडों को खदेड़ा….’ साथ में उसकी फ़ोटो भी छपी थी और इस तरह ‘ धाकड़ दीदी ‘ नंदा की पहचान बन गई।बचे हुए समय में वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती और कभी-कभी विकलांग-केन्द्र जाकर वहाँ के लोगों को हिम्मत न हारने और कुछ काम करके अपनी पहचान बनाने के लिये प्रेरित करती।
विभा गुप्ता
# पहचान स्वरचित
इंसान चाहे तो अपने धैर्य और परिश्रम से अपनी कमज़ोरियों पर विजय पाकर समाज में अपनी एक अलग पहचान बना सकता है, जैसा कि नंदा ने किया।उसने अपने अंदर की जिजीविषा को कभी मरने नहीं दिया।