“सरिता, यह तुमने क्या किया? अपनी दुध मुंही बच्ची को मंदिर के पीछे छोड़कर आ गई हो। शर्म आनी चाहिए तुम्हें।” लक्ष्मी देवी अपनी बेटी को बहुत डांट रही थी।
सरिता-“मां, आप मुझे मत सिखाओ। मुझे जब डॉक्टर ने बताया कि वह आगे चलकर मानसिक रूप से कमजोर रहेगी। तो मैं उसका क्या करती। हमारे पास इतनी दौलत भी तो नहीं कि उसका इलाज करवाते।”
लक्ष्मी देवी-“सरिता, तुम उस बच्ची को मुझे सौंप देती, मैं उसकी देखभाल कर लेती। काश !मैंने तुम्हें कूड़े के ढेर से उठाकर, तुम्हारा पालन पोषण ना किया होता। पर उस समय मुझे क्या पता था कि तुम हमारे परिवार के नाम पर धब्बा लगा दोगी।”
सरिता को यह सुनकर तेज धक्का लगता है।”यह तुम क्या कह रही हो मां, तुमने मुझे कूड़े के देर से उठाकर——”
लक्ष्मी देवी-“हां बेटा, मैं तुम्हें यह कभी बताना नहीं चाहती थी लेकिन तुमने उसे बच्ची के साथ जो अनर्थ किया है इसी कारण मुझे तुम्हें यह बात बतानी पड़ी।
सोचो, अगर तुम वही पड़ी रहती तो तुम्हारा क्या होता, तुम्हारे साथ कुछ भी हो सकता था और तुमने तो अपनी ही बच्ची के साथ——-”
सरिता जोर से रो पड़ी और बोली-“मां मुझे माफ कर दो और मेरे साथ जल्दी चलो। कहीं मेरी गुड़िया को कोई ले ना जाए।”
दोनों भागी -भागी मंदिर के पीछे वाले हिस्से में पहुंची। वहां पर बच्ची सही सलामत सो रही थी। दोनों ने भगवान का धन्यवाद किया और गुड़िया को लेकर वापस आ गई।
स्वरचित अप्रकाशित
गीता वाधवानी दिल्ली