देवकन्या (भाग-23) – रीमा महेन्द्र ठाकुर : Moral stories in hindi

जिज्ञासा “”””

इनको सुनकर

पवन के दबाब से् दृव एंव पदार्थों मे घर्षण होती है,जिससे स्वर निकलता है, जो स्वाभाविक क्रिया है”परन्तु अर्थहीन होते है ये स्वर”जिनका कोई सार नही”””पुत्री

परन्तु बाबा”””‘ इनको सुनकर ऐसे मन उद्देलित होता है,जैसे पग मे  कुछ बांधकर  दौड जाऊं”और उससे कुछ ऐसा स्वर झकृत हो ,जैसा स्वर  इस घर्षण से उत्पन्न होता है””

वो कौतूहाल वश बाबा की तरफ देखती हुई बोली””

राजनायक उसके मन के भाव समझ चुके थे!

परन्तु  समान्य भाव से बोले”””

पुत्री ,मन चंचल होता है,क्षण मात्र में  वो आपको भ्रमित कर देता है,सदैव मस्तिष्क के विपरीत प्रवाह मे बहता है””

अम्मो मन को अधिक समय नही देना चाहिए “जीवन कुंठित हो जाता है”””

आजा चल भोजन कर ले””

ये कहते हुऐ ,राजनायक आगे बढ गये!

परन्तु अम्बा प्रकृति के उठते संगीत मे खुद को खोज रही थी!

समझने का भरसक प्रयास कर रही थी,

उसे बाबा ने आजतक उनसे निकलते हुऐ  सुर का अर्थ न समझाया”””अमरा की जिज्ञासा  बढती जा रही थी!

पूरा दिन ओहपोह मे बीत गया “” संध्या काल का समय  रात्रि मे परिवर्तित हो रहा था,पक्षी अपने घोषले मे वापस आ गये थे! अमरा चारपाई पर सो रही थी”उसकी निश्छलता अलौकिक  प्रतीत हो रही थी!

चंद्रमा   का प्रकाश उसके मुख को और भी तेजस्वी बना रहा था! तभी कुटिया मे दक्षांक  ने प्रवेश किया!

दृष्टि अमरा  पर पडी अधर मुस्कुराने  को आतुर हो उठे ,परन्तु  उन्हेने  स्वयम् को संभाल लिया “

और धीरे से समीप जाकर वात्सल्य भाव से उसके सिर पर हाथ फेर कर स्वयंम् से बात करने लगे””

तेरे भीतर का स्त्रीत्व अंगड़ाई लेने लगा है पुत्री”   मै चितिंत हूं”””कही”””कुछ “””” परन्तु मै क्या करूं “समाज स्त्री के स्वछंद विचरण को” प्रथामिकता देने में संक्रीण है”इसलिऐ  तेरे बालपन को तुझसे विरक्त करने का पाप तो नही कर सकता””

परन्तु, जितना मुझमे सामर्थ्य है,उतना तो कर सकता हूं!

एक बार पुन: वात्सल्य भरा हाथ फेर ,उठकर खडे हो गये””

अमरा ने खुद को समेट रखा था “”” वो निद्रा के आगोश मे निरिह सी लग रही थी!

दक्षांक ने उसे चद्दर उढा दिया!

और स्वयंम्  नीचे बिछे कुश की शैया पर सोने का प्रयास करने लगे”””पुत्री अमरा  के बारे में सोचते सोचते  कब निद्रा  आगोश मे समा गये “पता ही न चला!

भोर की किरणें राजनायक  के गृह पर पडती है!

दक्षांक प्रतिदिन के दैनिक कार्य से निर्वत हो ,इधर उधर देखते है फिर पास ही नीम के पेड से एक छडी तोड ,उसमे से दातुन तोड दांत मे दबा लेते है”””

तभी उन्हें  ,पुत्री अमरा की याद आती है,आज वो उन्हे  नजर नही आयी!

लगता है  आज भोर से ही चल दी”अम्मो  ,अम्मो “” सदैव प्रकृति अवरण मे ही विस्मित रहती है””तनिक देखूं तो कहां है””लम्बी  सांस छोडते हुऐ झरने की ओर बढ गये राजनायक दक्षांक  “

गृह से उतरते ही मार्ग मे झरने तक बूमर के बहुत से” वृक्ष  पंक्ति बांधे खडे थे!   जिनकी पतली फलियों के बीच फलियां सूख गयी थी!!वायु के वेग से सूखी फलियों मे छन छन की आवाज दूर तक सुनाई देती थी””लगता जैसे नववधू हौले हौले लजाकर चल रही हो”आज दक्षांक को उन फलियों की छनछनाहट  कुछ ज्यादा उद्देलित कर रही थी””जैसे जैसे कदम आगे बढाते  वैसे वैसे ,पुत्री अमरा के द्वारा बोले शब्द उनके स्मृति में कौधं उठते””””बाबा बूमर ,कभी बूमर की  फलियों  मे गूजते स्वर को सुनो ,मेरा मन करता है, इन फलियों को पग मे बांधकर दौड जाऊं””

हा पुत्री  “”” वो आसपास देखता है””वहां उसे कोई नजर नही आता””उसका मन वात्सल्य से भर उठता है

वो वही बैठकर कांटो के बीच से बचाकर फलिया चुनने लगता है “फिर श्वेताम्बर के अंग रखे के अति नम छोर मे सहेज कर बांध लेता है! और गीली आंखें पोछकर आगे बढ जाता है!

उसे दूर से ही पुत्री अमरा नजर आ जाती है””” जो कही गहन विचार में  खोई हुई थी”””अम्मो “”आवाज शायद उस तक नही पहुंचती, ,वो आगे बढ जाता है””

अमरा  सुन्दर सरोवर के समीप अपलक कमल के पुष्प को निहारे जा रही थी””जिसकी सुकोमल कलियां,अंकुरित हो खिलने को आतुर हो रही थी!

अमरा के हाथ स्वत:उस और बढ गये,कौतूहाल वश उसने जैसे ही ऊंगली से स्पर्श किया””तभी”””

दक्षांक ने आवाज दी “

“पुत्री मै कबसे तुम्हें  पुकार रहा हूँ!

राजनायक  ने अमरा  को पुष्प स्पर्श करते देख लिया  था”””

वो गूढ रहस्य न समझ जाय इसलिऐ  राजनायक   ने उसे आवाज दी”और वो सफल भी हुए, अम्मो “”” उस निरिह बलिका ने पीछे मुडकर देखा “” उधर वो कली देखते ही देखते,पुष्प मे परिवर्तित हो गयी””देवकन्या   उस कली को पुष्प बनते न देख पायी!

उस घटना से  अनभिज्ञ शांत और स्थिर बलिका ने बाबा की ओर देखा “””

बाबा “”””

देख अम्मो   तेरे लिए उपहार लाया हूं! तुझे पग मे नूपुर बांधनी थी न “””

अमरा उसी शांत चित्त से बोली””नूपुर क्या होता है बाबा””

एंव इसे पग मे क्यूँ बांधते है!

दक्षांक अपनी वात्सल्यता को छुपाकर ,श्वेताम्बर की गांठ खोलने मे व्यस्त  हो गये!

तनिक ठहर जा पुत्री   अम्मो””

वो कौतुक दृष्टि से से खुलती गांठ को देखने लगी””

तदैव दक्षांक ने उसमे से धागे से पिरोयी हुई फलियों की  दो मालाऐं निकाली,फिर बोले””ला पग आगे धर तनिक “

अमरा  ने अबूझ ,से देखा””फिर पग आगे बढा दिया”

दक्षांक ने दोनों  मालाऐं ‘ नूपुर की तरह पग मे बांध दी”

और बोले”””पुत्री इसे ही नूपुर कहते है!

तुझे इन्हें  बांधकर दौडना था न”निरीह बछिया की तरह””

अमरा-ने   हा ,मे शीश हिलाती है”

जा दौड ले अब””

उसके अधर मुस्कुराने  को उद्देलित  होते है”

तभी बाबा की आवाज सुन उनकी ओर देखती है”

अम्मो  स्मरण रहे,अधर स्थिर,नेत्रो शांत रहे””

एकबार पुन; वो शीश हिलाती है “””

जा अब””””

वो दौडकर सरोवर के किनारे की  ओर बढ जाती है”

छन छन के स्वर से ही जैसे उसके अधर मुस्कुराते है”

सरोवर के सारे पुष्प खिल उठते है”””

ये देखकर दक्षांक के ललाट पर बल पड जाते है”””

वो मन ही मन सोचते है”””ये नही मानेगी”””

जो हठ न करें वो बाल पन ही कैसा”अब कदाचित इतनी निष्ठुरता उचित नही”””

इसका बालपन न छीनूंगा””

हास्य एंव वेदना से दूर रखने का प्रयास करूंगा”

बालपन ,कदाचित ये आयु दुबारा जीने का मौका नही मिलेगा”””

खिलते हुए कमल दल के मध्य दौडती हुई देवकन्या,   ,धीरे धीरे सरोवर मे उतरने लगी”””उसे आनंद की अनुभूति हो रही थी!

वो बार बार जल से निकलकर सूखी जगह  दौड लगाती और फिर जल मे प्रवेश करती। छन छन  का स्वर उसे उन्मुक्त  कर रहा था “”” कभी जल मे अपना प्रतिबिम्ब देखती ,और कभी सरोवर मे पग रख  लहरो का भंवर जाल बनाती”

वो खिलते फूलों को छोडकर  झरने की ओर बढ गयी””””

रीमा महेंद्र ठाकुर

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