स्नेहा सरप्राइज …… सुमित ने अॉफिस से आते ही एक लिफाफा स्नेहा को पकड़ा दिया | लिफाफा खोलते ही स्नेहा के माथे में लकीरें उभर आईं | यह क्या तुम खुश नहीं हुईं, आखिर तुम्हारे मायके की टिकट हैं |
स्नेहा चुपचाप किचन में जाकर डिनर की तैयारी करने लगी |सुमित सोच में डूब गया कि जो स्नेहा गर्मियों की छुट्टी से एक महीने पहले ही मायके जाने की तैयारी शुरू कर देती थी, आज चुप क्यों?
उसकी खामोशी काफी दिनों से थी| जिसे वह सरदर्द के बहाने टाल जाती थी क्योंकि सास-ससुर के सामने वह मायके की बातें नहीं बताना चाहती थी|
न चाहते हुए भी स्नेहा दोनों बच्चों के साथ मेरठ को रवाना हो गई | उसने अपने आने की सूचना भी माँ -पापा को नहीं दी |
सुबह करीब 5बजे ट्रेन मेरठ पहुँची |स्नेहा टैक्सी लेकर रवाना हो गई | पिताजी गेट पर ही मिल गये| यह क्या तुमने आने की कोई सूचना नहीं दी स्नेहा? दोनों बच्चे नाना जी से लिपट गए |
गेट के अन्दर जाते ही आँगन के बीचों-बीच खड़ी दीवार को देखकर स्नेहा की आँखें नम हो गईं, बोली पापा यही कारण था मैं आना ही नहीं चाहती थी, पापा भी अपनी आँखें पोंछ रहे थे |माँ दूर से सारा नजारा देख रही थी और आने का साहस नहीं जुटा पा रही थी |
स्नेहा के दोनों भाइयों में बँटवारा हो चुका था| उसको समझ नहीं आ रहा था अपना सामान लेकर कहा जाए? माँ बरामदे में बने कमरे में स्नेहा का हाथ पकड़कर ले आई जिसमें माँ -पापा रहते थे|
लंच छोटे भाई के घर करने के बाद डिनर बड़े भाई के घर पर था| भाइयों व भाभियों ने स्नेहा की ख़ातिरदारी की कोई कमी नहीं की, लेकिन स्नेहा गुमसुम सी हो गई थी | बचपन की यादें उसका पीछा नहीं छोड़ रहीं थी| उसने बड़े भाई ये कहा “भैया घर का बँटवारा तुमने तो कर दिया, अब माँ -पापा को मेरे हिस्से लगा दो|” एेसा कहकर वह चुपचाप माँ के कमरे में आ गई |
बच्चे मिलकर खुशी से कूद रहे थे, कभी इधर कभी उधर और जोर -जोर से बातें कर रहे थे कि पता नहीं ताऊजी व पापा ने मिलकर दीवार क्यों खड़ी कर दी |अब हम क्रिकेट कैसे खेलेंगे? इतने छोटे आँगन में |स्नेहा अन्दर से बोल पड़ी,”बेटा दीवार बच्चों के दिल में नहीं होती बड़े होकर बन जाती है |दोनों भैया -भाभी अपने-अपने कमरों में बैठे सब सुन रहे थे |
सुबह स्नेहा की आँखें खट -खट की आवाज़ से खुली दीवार तोड़ी जा रही थी |
हेमलता पंत