दिसंबर का वो आखिरी दिन…. – रूचिका राणा

अपने ऑफिस में बैठा सुबह से ही फाइलों में उलझा हुआ था कि तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज हुई और चपरासी ने आकर बताया कि बाहर कोई मेरा इंतजार कर रहा है। कहीं ना कहीं मैं जानता था कि कौन होगा लेकिन फिर भी यह जानने को उत्सुक था कि कौन होगा।

    मैं तेज कदमों से चलता हुआ रिसेप्शन तक पहुंचा। वह बैठी हुई थी देखकर हौले से मुस्कुराई। नीले रंग की साड़ी में गजब की खूबसूरत लग रही थी मानो सफेद दूधिया आसमान में नीलाभ लिए तारे। मैंने भी उसे एक हल्की सी स्माइल दी और थोड़ा सा दूर से ही ‘हाय’ कहा। दिल तो चाह रहा था कि हाथ मिलाकर ‘हेलो’ किया जाए लेकिन जो अभी तक नहीं हुआ, वह होने से कहीं सिचुएशन खराब ना हो जाए यह सोच कर खुद को रोक लिया मैंने। मैंने धीरे से रिसेप्शनिस्ट से कुछ कहा और उसे 5 मिनट इंतजार करने के लिए बोलकर, अपने ऑफिस में जाकर अपना सामान ले आया।

अगले 2 मिनट के बाद हम दोनों मेरे ऑफिस से बाहर खड़े थे।

वो मेरी तरफ़ पलटी और बोली –

“तो! कैसा लगा मेरा सरप्राइज…?”

“कमाल हो यार तुम तो!! एक साल पहले किया हुआ वादा तुम्हें याद रहा….”

“हां! याद रहा…. जानते हो न तुम, मुझे वादा तोड़ना नहीं आता।”

“हां! जानता हूं वह तो मेरा काम है है न….”

मैंने उसका मूड ठीक करने की कोशिश करते हुए कहा।

“कहां लेकर चलोगे…..?” उसने पूछा।

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“जो आपका हुकुम हो आका। अब पर्सनल गाड़ीवाले तो हम हैं नहीं, पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाले हैं जहां आप बोलोगी ले चलूंगा। बताओ कहां चलोगी….?”

मैंने उसकी चमकती गहरी आंखों में देखते हुए पूछा।

उसने अपनी नज़रें घुमा लीं।

“यहां पास में कोई कैफे है….?”  उसने पूछा।

“हां! यहां से थोड़ी ही दूरी पर एक बहुत अच्छा कैफे है। चलोगी….?”




“हां! चलो….!”

हमने एक ऑटो रोका और बैठ गए।

साल का आखिरी दिन और दिसंबर का भी। तापमान काफी गिरा हुआ था। सन-सन करती हवा ऑटो में दोनों तरफ से आ रही थी और वह ठंड से बचने की कोशिश करते हुए खुद में ही सिमटती जा रही थी।

     यार कम से कम आज तो जींस पहन लेती। थोड़ा-सा ठंड से तो बचती और ऐसे मौसम में भी ये साड़ी….मैं मन ही मन उसको डांट रहा था।

खैर, कैफे बहुत दूर नहीं था। अगले 6,7 मिनट में हम लोग कैफे पहुंच गए और अंदर जाकर एक टेबल पर बैठ गए।

वह मेरे सामने बैठी थी।

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“देखो! सारे कपल्स एक-दूसरे के साथ बैठे हैं कितने पास-पास और तुम कितना दूर बैठी हो मुझसे।”

“हम कपल्स थोड़ी हैं!”

ऐसा लगा जैसे सर्दी से लाल गालों पर किसी ने जोरदार थप्पड़ रख दिया हो। पता नहीं उस की बात सही थी या नहीं लेकिन यह एक विचारणीय मुद्दा था इसलिए मैंने इस पर आगे बात करना ठीक नहीं समझा। वैसे भी वह कभी गलत बोलती ही कब थी हर बात का उसके पास एक सही और सटीक जवाब होता था।

“क्या लोगी….?”  मैंने पूछा।

“चाय….”

वह बोली और हमने दो कप चाय और सैंडविच ऑर्डर कर दिए।

“अच्छा लगा…. आज तुम आईं।”

“जानते थे….मैं आऊंगी….?”




“पूरी तरह तो नहीं! लेकिन याद था मुझे….तुम्हारा वादा, जो आज ही के दिन किया था तुमने। मैं भूल भी जाऊं लेकिन मेरा दिल नहीं भूल पाया। कहीं ना कहीं इसे उम्मीद थी कि तुम आओगी।”

“सच बोल रहे हो….?”

“हां! अगर यकीन मानो….तो!

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सुबह से जाने कितनी बार ऑफिस की खिड़की से सड़क पर झांकते हुए तुम्हारा इंतजार किया है मैंने। लेकिन तुम बिल्कुल नहीं बदलीं।

“क्यों….कैसे….?”

“अरे! अगर आ ही रही थी तो मुझे बता देती न। अभी हफ्ते भर पहले तो बात हुई थी हमारी।”

“डिसाइड नहीं था।”

“मैं नहीं मान सकता। तुम्हारा हर काम प्री डिसाइडेड होता है।”

“अच्छा….?”

“हां! और क्या…..”

“लेकिन मैं बता देती और अगर कहीं ना आ पाती तो…..?”

“दिल टूट जाता…..”

“जानती थी। इसी लिए नहीं बताया वरना दिल टूटने का इल्जाम मेरे सिर आता।” कहते-कहते उसके होठों पर हल्की-सी मुस्कान और आंखों में शरारत तैर गई।

“तुम बिल्कुल नहीं बदलीं। अपनी बातों में ऐसा फंसाती हो कि सामने वाले के पास हारने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। लेकिन, एक बात बताओ…. अगर मैं आज लीव पर होता तो…..?”

“तो…..मेरा दिल टूट जाता!”

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उसने घबराई-सी आंखों से मुझे देखते हुए कहा।

“और यह दिल टूटने का इल्जाम मैं अपने सिर पर नहीं लेना चाहता था…..”




हम दोनों अपनी-अपनी चाय पी चुके थे। अब इस कैफे से विदा होने की बारी थी और हमारे जुदा होने की भी।जब इस समय को सबसे धीरे चलना चाहिए, तभी ये इतनी तेज रफ्तार से क्यों भागता है…? जी भरकर बातें भी न हो पाई थीं अभी….मैं मन भर कर देख भी न पाया था उसे…. अभी तो उसके कानों की बालियों, सुर्ख होठों की लाली को आंखों में बसाना था मुझे…. उसकी जुल्फों की खुशबू को सीने में कैद कर लेना था…. उसके आंचल की हवाओं को अपनी सांसो में बसा लेना था…. अब, जब वह नहीं होगी…. उसकी ये सौगातें ही तो होंगी मेरे पास….अभी मेरा शायर-मन ख्यालों के पुलिंदे सजा ही रहा था कि वह मेरे चेहरे के सामने हाथ हिलाते हुए बोली- “कहां खो गए… ऑल ओके..?”

“हां! हां! सब ओके…”  मैं जैसे हड़बड़ा कर किसी नींद से जागा। और बोला – “यह मुलाकात याद रहेगी….”

“और मैं नहीं…..?”

“फिर से तुम्हारी वही चतुर वाकपटुता!”  मैं झुंझलाते हुए बोला।

“अच्छा! अच्छा! सॉरी….” वह हंसकर बोली तो मेरी सारी झुंझलाहट फुर्र हो गई।

“कह देते कि तुम याद रहोगी…. तो अच्छा लगता!”

“भूलती ही कहां हो तुम…जो तुम्हें याद करने की जरूरत पड़े….” कहते-कहते मन भीतर ही भीतर पिघलने-सा लगा मन हुआ कि उसका हाथ अपने हाथों में थाम लूं लेकिन एक बार फिर कुछ सोच कर रुक गया।

“कितनी सर्दी है…. देखो, मेरे हाथ कितनी ठंडे हैं…. देखो तो….” कहते हुए अपनी दोनों हथेलियां उसने मेरे सामने रख दीं। मेरे लिए यह उसकी तरफ से आनेवाले नए साल के किसी तोहफे से कम नहीं था। मैंने झट से अपने दोनों हाथ उसकी हथेलियों पर रखे और उन हाथों को थाम लिया। लगा…. जैसे किस्मत मुट्ठी में हो गई हो।

कुछ पल तक मैं उसके हाथों को यूं ही अपने हाथों में लिए बैठा रहा।

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“यह आनेवाला नया साल तुम्हारे लिए ढेर सारी खुशियां लाए….तुम खूब आगे बढ़ो….खूब तरक्की करो….हमेशा खुश रहो…..” वह बोल रही थी और मैं केवल उसके होंठों को हिलते हुए देख रहा था।

हमेशा खुश रहो….. केवल यही आखिरी शब्द थे, जो मेरे कान सुन पाए।

“यकीनन! अब तुम्हारा साथ और हाथ जो मिल गया…..” मैं बस इतना ही कह पाया।

कहना तो बहुत कुछ चाहता था तुम्हें। गले से लगाकर तुम्हें नए साल की दुआएं देना चाहता था मैं…. लेकिन नहीं कर पाया।

फिर एक बार हम जुदा हो गए, जाने कब तक के लिए।

ये जनवरी…..जिस उतावलेपन से दिसंबर से गले मिलती है, दिसंबर जनवरी को उतना ही इंतजार क्यों कराता है…. फिर उस से मिलने के लिए…. वहीं कैफे के बाहर खड़ा हुआ मैं सोच रहा था और उसे जाते हुए देख रहा था।

स्वरचित व मौलिक

रूचिका राणा

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