डार्लिंग!कब मिलोगी” (भाग -65)- सीमा वर्मा : Moral stories in hindi

हिमांशु …

आज नैना का फोन आया है। उसने मुझसे अपने गृहप्रवेश  की पूजा में आने का आग्रह किया है।

मैं जाना भी चाहता हूं।

उन दिनों जब मैं बहुत अकेलापन महसूस कर रहा था।

वो नैना ही तो थी जिसने अपने सूर्ख रंग से मुझे फिर से रंगारंग कर दिया था।

अब मां गुजर चुकी है मेरे चारों ओर अनंत अंधकार फैला है। हर वक्त एक थकान सी हावी रहने लगी है।

आश्चर्य होता है।  इस  घोर  निराशापूर्ण वातावरण में भी नैना की उपस्थिति मात्र से शरीर और मन में हर्ष की लहर दौड़ जाती है।

मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूं।  हमारी इतने दिनों की तृषित और  कमनीय इच्छाओं के उच्छंखृल आकांक्षाओं की पूर्ण प्राप्ति में अब कौन सी रुकावट रह गई है ।

रात इतनी लंबी मालूम होती है मानों खत्म ही नहीं होगी।  रात के उसी वीराने में नेपथ्य में कहीं दो जोड़ी करुण आंखें दिख पड़ती।

वो पिता की आंखें !

मैं भय, भ्रान्ति और विस्मय की उस अवस्था में पसीने-पसीने हो उठता।

मैं किससे अपनी व्यथा कहता।  माया के पास वक्त नहीं रहता और नैना ?

उस बिचारी को इस कीचड़ में क्यों घसीटूं ?

बहरहाल ,

एक दिन इसी उहापोह में माया से कह बैठा,

” एक ही जगह रहना मुझे सूट नहीं कर रहा है। मैं पिता के पास जाना चाहता हूं “

मेरी इच्छा माया को पीड़ा पहुंचाने की नहीं थी ,लेकिन मेरी मजबूरी है।

जानता हूं…

“जब तक एक बार उनसे मिल नहीं लेता मेरा चित्त स्थिर नहीं होगा “

“तो कल ही क्यों नहीं चले जाते हो ? “

मैं चकित हो उसे देखता रह गया।

इतनी सहजता से वो तैयार हो गईं ,

“दरअसल मुझे भी चेन्नई जाना है , तुम एक बार पिता से मिल आओ तो शायद स्वस्थ मन से आगे बढ़ पाओ “

माया के भीतर क्षण भर के लिए एक ठंडी सिहरन सी दौड़ गई , वो कमरे से बाहर अनमने भाव से निकलते हिमांशु को देख रही है।

”  माया, शायद मेरी बुरी लत से परिचित हो चुकी है “

हिमांशु की दशा इस समय नींद में चलने वाले रोगी की तरह हो रही है। कुछ क्षण के लिए नैना के साथ कटी सुख- दु:खमयी अनुभूतियां उसके भीतर विकलता का सृजन करने लग रहे हैं।

वह सोचने को विवश है। कितनी मनमोहक आशाओं और आकांक्षाओं से भरा हुआ उसका जीवन किस प्रकार भयंकर भीषण मानसिक गहराई में डूबते-उतराते बीतने को है।

एक ही व्यक्ति के जीवन-स्तर में यह कैसा दुर्लभ व्यवधान आ कर खड़ा हो गया है।

इसमें क्या पारिवारिक परिस्थितियों अथवा प्रकृति का दोष है ?

या फिर स्वयं उसके भाग्य का ?

खैर …

आगे यात्रा की तैयारी करने में तीन- चार दिन लग गए।

जिसमें एक निराले सुख का अनुभव हो रहा था।

” जब प्रकृति को यही मंजूर है तो बुराई  क्या है ?”

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