दरियादिल – नीलम सौरभ

कार्यालय में अपनी सीट पर बैठी हुई मोहिनी गहरी सोच में डूबी दिख रही थी। बेटी ऋत्विका की आज सुबह नाश्ते के टेबल पर हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही गयी बात उसके दिमाग़ में बड़ी देर से गूँज रही थी।

“ममा! कल हमारी क्लास के कॉमेडी स्टार मधुप ने फिर से ख़ूब हँसाया था सबको….!”

सैंडविच खाती वह अचानक कुछ याद आने पर बोली थी।

“क्या किया इस बार ?” मोहिनी और बेटा ऋषभ एक साथ आतुरता से बोल पड़े थे।

“ममा! मधुप लड़कों को सिखा रहा था, “किसी लड़की को पसंद करते हो और प्रपोज़ करते डरते हो कि कहीं चप्पल निकाल कर न मार दे, तो….पहले तो पीछे से जाकर उसको पकड़ लेने का, फिर उसका रिएक्शन देखने का! अगर हँसी तो समझो फँसी!….अगर गुस्सा होती दिखी तो तुरंत छोड़ देने का… ताली बजाते, उछलते, हँसना स्टार्ट कर देने का, “दीदी डर गयी!, दीदी डर गयी!!”



ऋत्विका खिलखिलाती, ताली बजाती हुई मधुप की एक्टिंग करती बोली तो साथ में केवल ऋषभ की ही हँसी शामिल हुई, मोहिनी साथ नहीं दे पायी थी आज। उसका ध्यान तत्क्षण घोष बाबू तथा जीवन जी की ओर चला गया था। बहुत दिनों से वह महसूस कर रही थी कि ऑफिस के ये दोनों लोग उसे इशारों में चारा डालने की कोशिश करते रहते हैं। पति से सम्बन्ध-विच्छेद करके बच्चों के साथ अकेली रह रही महिला उन्हें आसान शिकार लगती होगी शायद। उसका मिलनसार, हँसमुख होना भी उन लोगों की घटिया सोच की पुष्टि करता होगा।

तलाकशुदा मोहिनी, सादे तबीयत के साथ आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी, घमण्ड जिसे छूकर भी नहीं गया है, अपने दोनों बच्चों की सबसे अच्छी दोस्त है। वह कामकाजी माँ पूरी कोशिश करती है कि उन्हें सुख-संसाधनों के साथ-साथ पिता की कभी कमी महसूस न हो। दसवीं में पढ़ने वाली ऋत्विका, छठवीं में पढ़ने वाला ऋषभ दोनों ही बड़े ख़ुशमिज़ाज हैं। वे दोनों भी अपनी प्यारी माँ को भरसक ख़ुश रखते हैं, विभिन्न उपायों से हँसाते रहते हैं। कुल मिलाकर आपस में बहुत ख़ुश, छोटा सा सुखी-संतुष्ट परिवार है उनका।

            पर कुछ समय से कार्यालय में कुछ बातें मोहिनी की चिंता का कारण बनती जा रही हैं। सेवानिवृत्ति के कगार पर पहुँच चुके एकाउंटेंट घोष बाबू मोहिनी को 2-3 बार द्विअर्थी कथनों से जतला चुके हैं कि अगर वह उनकी बात मान ले, तो किसी को कानों कान ख़बर नहीं होगी और उसका अकेलापन दूर जायेगा। जब भी कभी मोहिनी उन्हें अकेली मिल जाये तो उनके मुँह से तोता रटन्त कुछ वाक्य निकलते हैं, “पति छोड़ दे तो औरत की क्या हालत होती है, समझता हूँ मैं!,…अकेली औरत कटी पतंग की तरह होती है,…हर कोई लूटने को तैयार…कोई मदद चाहिए तो सबसे पहले मुझको बोलना!….मेरे होते अपने-आपको कभी अकेली नहीं समझना!”



कमोबेश ऐसे ही विचार दबे-छुपे शब्दों में उसके बॉस जीवनजी ने भी एकांत में अवसर पाकर कई बार प्रकट किये हैं। वह उन जाल फेंकते लोगों से चीख-चीख कर कह देना चाहती है,

“मैं अपने बच्चों के साथ पूर्णतः संतुष्ट हूँ;… ज़िन्दगी खुलकर जी रही हूँ! हसबैंड ने नहीं बल्कि मैंने छोड़ा उसे, क्योंकि ज़िंदगी काटना नहीं, जीना था मुझे!…और और….!!

एकाएक मोहिनी की तन्द्रा भंग हुई, घोष बाबू के चाशनी में लिपटे फुसफुसाते से स्वर को सुनकर।



“तुम चिंता में दिख रहा मैडम? क्या हो गया? किसी चीज का कमी है तो मुझसे बोलो, बन्दा तुम्हारे लिए हमेशा एक टाँग पर खड़ा है!”

गहरी नफ़रत की एक हिलोर सी उठी मोहिनी के दिलो-दिमाग़ में। घिन सी आने लगी, इस बेतुकी सहानुभूति के पीछे छुपी मंशा को समझ कर।

उसने अब तक दोनों के घृणित प्रस्तावों की उपेक्षा करके ही अपनी अस्वीकृति जतायी है। परन्तु कब तक? वह समझ चुकी है, मुँह खोले बिना वह चैन से नहीं रह पायेगी।

“तो क्या अभी ही सही अवसर नहीं है?” उसने अपने आप से पूछा मानों।

“हाँ, अभी ही! अभी नहीं तो पता नहीं कब! जीवन जी भी अपने केबिन में बैठ चुके हैं और काँच का गेट खुला हुआ है, वे भी साफ-साफ सुन लेंगे!”  उसे अपने भीतर से स्पष्ट स्वर सुनाई दिया।

       अंतरात्मा का समर्थन पाकर वह एकाएक मजबूत शब्दों में तेज आवाज़ के साथ बोल पड़ी, “घोष बाबू!…..मिसेज घोष मिली थीं कल, घर के पास वाले सब्जी मार्केट में! पाँवों में सूजन के कारण बहुत कष्ट में लग रही थीं, एक तरह से पैर घसीट कर चल रही थीं, फिर भी सब्जियों का भारी थैला लादी हुई थीं…. अगली बार मिलीं तो तारीफ़ कर ही दूँगी आपकी दरियादिली की!…बोलूँगी, ये सब काम अपने दरियादिल पतिदेव से क्यों नहीं करवातीं….घोष बाबू जब दूसरों के काम के लिए एक टाँग पर…..!”

घोष बाबू की हकलाती आवाज मुश्किल से निकल रही है अब  “त..तुमने गलत समझ लिया बहन! म..मेरा कहने का मतलब वह नहीं था…मैं तो केवल इंसानियत के नाते तुमसे…!”

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स्वरचित, मौलिक

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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