दर्द भरी आह !” – -गोमती सिंह

-जनवरी का महीना था सुबह के लगभग 6 बज रहे थे , यानि कि एकदम कंपकपाती ठंडी का मौसम।  लेकिन मौसम चाहे जैसा भी हो दैनिक जागरण तो निर्धारित समयानुसार हो ही जाता है। 

        नीलम भी काॅलेज जाने की फिक्र में बिस्तर छोड़कर मेन गेट के पास सूर्योदय का आनंद ले रही थी ।

            उसी वक्त एक महिला सायकिल से ठीक नीलम के सामने आकर खड़ी हो गयी, जिसे देखकर स्पष्ट पता चल रहा था कि यह महिला गर्भवती है ।

        ऐसी अवस्था में स्थिर गति से चलना, एक एक शब्द  ठहर -ठहर कर बोलना ऐसा स्वभाव स्त्रियों में सहज ही आ जाता है ।

       जैसे सूरज की किरणों का धरा पर पड़ते ही चिड़ियों का चहचहाना,ताल में कमल का खिल जाना , फूलों का चटकना और इंसानों का नींद से जाग जाना कितना स्वाभाविक होता है , फिर सगर्भा स्त्री तो नवजात शिशु को अनुकूलता देने के लिए हर संभव प्रयास करती है ।

                इसीलिए वह महिला भी एकदम आहिस्ता से गेट के पास खड़ी हो गयी।  उसे देखकर नीलम बड़े ही स्नेहिल आवाज़ में बोली-” देखो लता दीदी! घर में हम सभी लोग हिदायत दे चुके हैं कि अब काम पर आना बंद कर दो । “

           आपके गर्भ में पल रहे मासूम  को धरा पर आते तक हम लोग घर का काम मिलजुल कर कर लेंगे। 




       नीलम की माँ और भाभी  लोग भी बहुत आश्वासन देकर समझाए थे कि अब सातवाँ महीना चल रहा है बच्चे के पैदा होने तक आराम करो । आप निश्चिंत रहो हमलोग फिर से आपको ही काम पर रखेंगे। 

         मगर बेचारी लता गरीब थी।  वो सोंचती थी कि दूसरी कामवाली रख लेंगे तो फिर घर -घर जाकर काम ढूँढना पड़ेगा।  इसी चिंता में वह काम बंद नहीं कर रही थी । नहीं नीलू बहन मैं धीरे-धीरे काम कर ले रही हूं।

    

तब नीलम ने कहा -तेरे पति मना नहीं करते इस तरह  दूर साइकल चलाकर काम करने मत जाया करो ।लता कुछ बोलना नहीं चाह रही थी मगर रोज-रोज क्या बहाना करती है आज उसका मुंह खुल ही गया लता कहने लगी क्या बताऊं बहन मेरी मजबूरी मैं और मेरा भगवान ही जानते हैं फिर लता और नीलम वही धूप में लगे कुर्सी  में बैठ गए । और लता जैसे पानी अपनी ढाल में  स्वत: ढल जाता है उसी प्रकार से सहानुभूति और प्रेम की ढाल में लता की आंतरिक दर्द  ढलने लगी ।

      क्या बताऊँ बहन मेरे पति 5 बजते ही आवाज़ देकर  उठाने लग जाते हैं । ” जा लता तुम्हें काम पर जाना है न कितना सोएगी चल उठ जा । “

  तब नीलम ने टोकते हुए कहा – क्या तेरे पति कुछ काम नहीं करते ? तीन चार महीने अकेले की कमाई से घर का खर्च नहीं चला सकते ? अगर नहीं चला सकते तो ऐसे निकम्मे आदमी से तूमने शादी क्यों कर ली !

तो क्या करती बहन ! हमलोग जिस स्तर के हैं वहाँ पुरूष लोग काम ही नहीं करते । ये हमारे स्तर की तयशुदा जिंदगी है । सरकार  दो रूपये किलो में चांवल दे देती है जिससे महीने भर का खर्च चल जाता है बल्कि बच जाता है जिसे मध्यमवर्गीय परिवारों में 20) किलो के हिसाब से बेंच कर शराब पी जाते हैं और हम महिलाएं रोज कुछ न कुछ मजदूरी करके कुछ पैसे कमा लेती हैं जिससे बाकी की जरूरतें पूरी हो जाती है।




         नीलू बहन ! सूरज-चांद का रोज रोज आना जाना तय रहता है ठीक उसी तरह हमारा जीवनचर्या तय रहता है। ” हाँ लता दीदी! मैं भी क्या बोल सकती हूँ।  नीलम ने कहा । “

       अच्छा चलो धीरे-धीरे काम कर लो मुझे भक काॅलेज जाना है। 

        इस तरह दिन गुजर रहे थे फिर एक दिन वही हुआ जैसा नीलम के घर  के सभी लोग अंदाजा लगाते रहते थे। 

        शाम का समय था 4 बजे लता सायकिल से आ रही थी ठीक उसी मोड़ पर एक बाइक वाले से टकरा कर गिर गई । इत्तेफाक से उस  वक्त भी वहां नीलम ही खड़ी थी  , नीलम ने झट से उसे संभाला । बाइक वाले तेज रफ्तार से निकल गया।  नीलम दूर तक उसे घूरती रही ।

मगर वो समझ गई कि हालत ऐसी है कि घुरने से कुछ हासिल नहीं होगा। 

बल्कि लता कि यथायोग्य उपचार किया जाए।

और उसे ड्राॅइग रूम में लेटाकर आराम करने को कहा ।

    और नीलम ” दर्द भरी आह ” भरते हुए वही बैठते हुए कहने लगी कि क्या होगा हमारे देश में ऐसे लोगों का!

              ।।इति।।

          -गोमती सिंह

        कोरबा,छत्तीसगढ़

     स्वरचित,मौलिक,अप्रकाशित 

 

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