दर्द का रिश्ता – विमला भंभाणी लखवाणी: Moral stories in hindi

“हैलो आंटी जी, मुझे माफ कीजियेगा| आप मंडे को मेरी ऑफिस में मुझ से मिलने आई थीं| उस वक्त मैं मीटींग में था| मैं जल्द ही आपसे रूबरू आकर मिलूँगा| बहुत बिज़ी था, इसलिए आपको बी बी एम भी नहीं कर पाया|”

“आपका शुभ नाम?”

“जी, मैं आकाश|”

“आप कौन?”

“जी, मैं तारा|”

“तारा जी, ये नंबर तो संध्या आंटी का है| प्लीज़ मेरी उनसे बात करवाईए| कल रात मैंने उन्हें फोन किया था,पर उन्होंने फोन नहीं उठाया|”

“आकाश जी, वो अपना मोबाइल यहाँ छोड़ कर गई हैं, वो जहाँ पर गई हैं, वहाँ पर कुछ भी लेकर जाने की सख्त मनाही है|”

“आकाश जी, आप डेली न्यूज़ पेपर पढ़ते हैं?”

“जी नहीं, इतना वक्त ही नहीं मिलता|”

“प्लीज़, अपने कीमती समय में से एक पल के लिए आज के न्यूज़ पेपर टाईम्स ऑफ इंडिया के पेज नंबर 12 पर एक नज़र डालिए|”

इतना कहकर तारा ने फोन काट दिया|

“आकाश सर, रजनी मैडम ने आपको अपनी कैबिन में बुलाया है|”

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मैं न्यूज़ पेपर पर बिना एक नज़र डाले रजनी मैडम की कैबिन में चला गया| शाम को पाँच बजे टी ब्रेक मिला, तब न्यूज़ पेपर देखा| कल रात को संध्या आंटी का देहांत हो गया और आज शाम को चार बजे दाह- संस्कार| मैं घबरा गया|

हररोज़ रात को ऑफिस से लौटते-लौटते 11 बज जाते| सुबह को 7.30 बजे ऑफिस पहुँचना होता| रजनी मैडम से एक घंटे की छुट्टी लेकर मैं संध्या आंटी के घर गया|

“सर, आप यहाँ!”

पीछे मुड़कर देखा तो सामने रवि को खड़ा पाया|

“तारा जी, ये मेरे आकाश सर हैं|”

“नमस्ते|”

“आकाश जी, आपको तो आज मैंने पहली बार देखा है| संध्या जी, अक्सर आपका ज़िक्र किया करती थीं| पर पिछले चार साल से मैंने तो आपको ना किसी त्यौहार पर देखा, ना ही किसी खास मौके पर| ना कभी उनके गम में शामिल हुए, ना ही कभी उनकी किसी खुशी में शरीक| आकाश जी, ये अवसर तो नहीं है पर फिर भी ये सौगात और डायरी मैं आपको दे रही हूँ| इसलिए कि, आप से फिर कभी मुलाकात हो भी या कभी नहीं|”

“ये तोहफा संध्या जी, आपको अपने हाथों से देना चाहती थीं| इसलिए वो आपके ऑफिस आई थीं| लौटते वक्त उनका एक्सीडेंट हो गया| कल रात उनकी सांसों की लड़ी टूट गयी|” कहकर तारा खामोश हो गई|

रवि मुझे बाहर तक छोड़ने आया|

“सर, आप मेरी बुआ को जानते थे?”

“जी हाँ, पर ये आपकी बुआ, ये तो मुझे आज मालूम चला|”

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मैं बोझिल मन से वापिस ऑफिस आया| अधूरा काम पूरा करना था| पर, मेरा काम में मन नहीं लग रहा था| बोझिल मन और भारी कदमों से लौट आया अपने घर| थकावट के बावजूद भी नींद मेरी आँखों से कोसों दूर थी|

इस औरत की बदौलत आज मैं ज़िंदा हूँ और आज मैं उनके अंतिम-दर्शन भी नहीं कर पाया| चार साल पहले जब मैं इस शहर में नया आया था, तब मेरा एक्सीडेंट हुआ था| मैं खून से लथपथ रास्ते पर लावारिस पड़ा था| होश आया तो खुद को होस्पिटल के बेड पर पाया| माँ मेरे दोस्त सुनिल के साथ आई थीं| मेरे होश में आते ही माँ उस अौरत का शुक्रिया अदा कर रही थी जिसका नाम संध्या था|

21 दिन तक मैं होस्पिटल में था| संध्या आंटी हररोज़ सुबह ताज़ा फूलों का गुलदस्ता लेकर आती, जिससे मेरा कमरा फूलों की महक से भर जाता| साथ में हररोज़ नया सुविचार|

 21 दिन बाद मैं होस्पिटल से डिस्चार्ज हो गया| ज़िंदगी पुराने ढर्रे पर आ गई| वो ही ऑफिस में 15 से 17 घंटे काम| संडे को मीटींगस या फिर ट्रेनिंग| दोस्तों से भी सिर्फ फोन पर ही बात होती| संध्या आंटी के साथ भी मेरी मोबाइल पर ही बात होती| सुबह ‘सुप्रभात’ और रात को ‘शुभ रात्री’ बी बी एम से ही होता| इन बीते हुए चार सालों में मैं शायद चार या छ: बार ही उनके घर गया हूँगा वो भी सिर्फ एक या दो घंटे के लिए| प्रोमोशन होने की वजह से ऑफिस में मेरी ज़िम्मेदारी बढ़ गयी| धीरे- धीरे उनसे मेरा मोबाइल पर बात करना भी कम होता गया| सिर्फ बी बी एम होता ‘गुडमार्निंग’ का| रवि ने दो साल तक ऑफिस में मेरे साथ काम किया| समझदार और मेहनती| छ: महीने पहले उसने इस्तीफा दिया था| उसकी बुआ होस्पिटलाइज़ थी| उनकी देखभाल के लिए उसे छुट्टी चाहिये थी पर, उसकी छुट्टी नामंज़ूर हुई|

“आजकल नौकरी मिलना कितनी मुश्किल है|” मैंने उसे समझाया था|

“सर, जानता हूँ कि, पैसा ज़रूरी है| बगैर पैसे के इंसान अपाहिज| कल क्या होगा? ये तो मैं नहीं जानता| पर, आज मेरी बुआ को मेरी ज़रूरत है| मैं पैसों के लिये रिश्तों को दाव पर नहीं लगा सकता|” कहकर वो चला गया था|

आज पता चला कि,रवि की बुआ संध्या जी, छ: महीने पहले होस्पिटलाईज़ थीं|

डायरी खोली| पहले पेज पर ही लिखा था| ‘ये तोहफा जन्म-दिन के दिन पर ही खोलना|’

किस्मत भी बड़े अजीब खेल खेलती है| चार साल पहले मैं गौरव (मेरा बेटा) का दाह-संस्कार करके लौट रही थी कि, तुम्हें बीच सड़क पर खून में लथपथ देखा| तुम्हारे वालेट से आई डी मिला|

नाम: आकाश|

जन्म तिथि: 4.4.1981

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वो ही जन्म-दिनांक, वो ही महीना और वो ही साल| पल भर के लिए मैं सकते में आ गई| मेरे बेटे गौरव और तुम्हारा जन्म-दिन|

तीसरे दिन मेरे गौरव का जन्म-दिन था| सुबह को उसकी अस्थियां परवान करके मैं तुम्हारे पास केक लेकर अाई| मेरी ज़िन्दगी का चिराग तो बुझ चुका था| तुम उस अकेली माँ का एकमात्र सहारा हो| शाम को प्रार्थना सभा थी| मेरी वीरान ज़िंदगी में तुमने दस्तक दी|

चार साल के इस लंबे अर्से में, मैं तुम्हें इतना जान नहीं पाई| ना ही तुमने मुझे कभी जानने की कोशिश की| तुम्हारे और मेरे बीच एक मामूली सी पहचान| जिसे किसी रिश्ते का नाम नहीं दिया जा सकता| गौरव ही मेरा एकमात्र सगा था इस दुनियाँ में| अंजली, रवि, तारा इनका आपस में कोई खून का रिश्ता नहीं| ना ही मेरा इनसे कोई खून का रिश्ता| पर, फिर भी मैंने उनमें अपनापन पाया| इंसान इस दुनियाँ में तो अकेला ही आता है| रिश्ते तो इस दुनियाँ में बनते हैं| कोई निभाने में सफल होते हैं, तो कोई असफल|

रवि के माँ-बाप मेरे पड़ोसी| अपनों से भी कहीं अधिक अपनापन था उनमें| ट्रेन एक्सीडेंट में उनकी मौत हो गयी| तब से रवि मेरे घर का सदस्य बन गया|

रवि ने बिना किसी सिफारिश के अपने बलबूते पर ये नौकरी हासिल की थी| मैं जानती थी वो तुम्हारे साथ काम करता है|

अंजली विधवा हुई, तो ससुरालवालों ने उससे नाता तोड़ दिया| ये कैसी रीत? अंजली पढ़ी लिखी युवती आज अपने पैरों पर खड़ी है|

अंजली की ऑफिस में नौकरी करनेवाली तारा हालात से जूझते – जूझते टूट गई और खुदकुशी करने की कोशिश की| पर, रब की महर से बच गई| एक नए सिरे से जीने की उसने शुरूआत की|

एक छोटे से आशियाने में एक दूसरे के सुख-दुख में बराबर के भागीदार बनकर हम ज़िन्दगी बसर करते हैं|

मेरा बेटा गौरव विदेश में रहता था| चार साल के लंबे अर्से के बाद वो वापिस आ रहा था कि, कार एक्सीडेंट में वो चल बसा| मौत पर किसीका इख्तियार नहीं| जीवन और मौत के बीच का सफर कितना लंबा होगा, ये तो रब के सिवा कोई नहीं जानता|

डायरी पढ़ते-पढ़ते कब आँख लग गई| सुबह को अलार्म पर आँख खुली| मेरे मोबाइल पर बी बी एम था – परसों सुबह को 9 बजे गुरुद्वारे में संध्या जी की आत्मा की शांति के लिए सुख्मनी का पाठ है| वक्त मिले तो आइयेगा|

परसों सुबह को मुझे मुंबई जाना था| शाम को मुंबई ऑफिस में मेरा प्रेज़न्नटेशन था|

मैंने राहुल सर को बताया “कल मैं मुंबई नहीं जाऊँगा|”

“आकाश इतनी मेहनत की है आपने जानते हैं ना आप कि, इस पर आपका प्रोमोशन डिपेंड करता है|”

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“सर, नहीं चाहिए मुझे प्रोमोशन|”

“आकाश क्या हो गया है आपको? मैं जानना चाहता हूँ, उस औरत से आपका क्या रिश्ता था जिसकी वजह से आपको प्रोमोशन की परवाह नहीं|”

“सर, दर्द का रिश्ता|” अब जब मुझे होश आया तो जाना मैंने दर्द का रिश्ता| कल क्या होगा? मुझे इसकी फिक्र नहीं|”

आज मेरा जन्म – दिन| तोहफा खोला| सुंदर सा, प्यारा सा बर्थडे ग्रीटींग कार्ड, साथ में wrist watch.

अंजली दीदी ने गले लगाकर कहा “जन्म-दिन मुबारक हो| संध्या जी, सदा हमारे साथ हैं और रहेंगी|”

(स्वरचित और मौलिक)

मैं उन सभी पाठकों की आभारी हूँ,जो मेरे लेख एवंम् कहानियों को पढ़ते हैं और अपने अनमोल विचारों से अवगत करवाते हैं|

विमला भंभाणी लखवाणी

1 thought on “दर्द का रिश्ता – विमला भंभाणी लखवाणी: Moral stories in hindi”

  1. विमला जी,
    बहुत सुंदर रचना है। आप की कहानी ने मेरे दिल को झकझोर दिया है। मेरे माता पिता तो अब नही हैं पर मुझे पता है की हमने अपनी तरफ से हमेशा उनको खुश रखने की कोशीश की है। इतनी अच्छी रचना के लिए धन्यवाद। ऐसे ही लिखाते रहिए।

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