—कल हम दोनों पति पत्नी विवाह समारोह में शामिल होने के लिए गए थे । विवाह के सभी रस्मोरिवाज पूर्ण होने के बाद अंत में चर्च के प्रांगण में दूल्हा दुल्हन दोनों पक्ष के माता-पिता तथा सभी सगे-संबंधियों के बीच पास्टर जी आशीर्वचनों से संबोधित कर रहे थे पास्टर जी ने संबोधन जैसे ही पूरे किए पूरे परिवार के लोग खुशियाँ मनाने लगे आतिशबाजी की जाने लगी दूर में हम दोनों पति पत्नी खड़े देख रहे थे।
हुआ ये कि अचानक मेरी नज़र थोड़ी दूर में बैठे दो बच्चे पर पड़ी, वे दोनों कुछ खिलौने अपने सामने सजा कर रखे थे बेचने के लिए । मैंने देखा उन बच्चों की आँखों में दर्द भरी निराशा थी । उनकी आँखों से चूल्हे चक्की की चिंता साफ झलक रही थी ।विवाह समारोह से मेरा मन हट गया, मेरे मन में आया इन बच्चों की कुछ मदद की जानी चाहिए। मैंने अपनें पति महोदय से कहा – चलिए जी वहाँ उन बच्चों से कुछ खिलौने खरीद लेते हैं,
तब पति महोदय नें झिड़कते हुए कहा- क्या इधर-उधर ध्यान लगाती रहती हो जिस काम में आई हो वहाँ मन लगा कर रहो । मै मन मसोसकर रह गई, मगर मेरा दिल नहीं मान रहा था , मैं चुपके से पति महोदय से नज़र बचा कर उन बच्चों के पास चली गई।
मुझे पास देखकर पहले तो बच्चे डरने लगे लेकिन मैंने बहुत ही आत्मीयता से एकदम मृदुजुबान से एक बच्चे से कहा – क्या बात है बेटा! कुछ दुखी नज़र आ रहे हो , मेरा इतना कहना था कि उन बच्चों ने अपनी निजी जिंदगी के बारे में बताना शुरू कर दिया-क्या बताएं मैडम हम लोग बहुत गरीब हैं, आज एक भी खिलौना नही बिका । हम दोनों भाई बहन ऐसे ही किसी समारोह, भीड़ भाड़ वाले जगह में बैठे रहते हैं कोई तो हमारा खिलौना खरीदेगे तो हमारे घर भी भूख मिटाने के लिए कुछ सामान आ जाएगा ऐसा कहते-कहते लड़का सिसकने लगा
मुंह से आवाज़ आते नहीं बन रहा था मै उसके पीठ पर हाथ रखते हुए बोली -दुखी न होओ बेटा – लो कुछ पैसे ले लो और मैं अपने पर्स खोलने लगी तभी वह बच्चा खुद को पूरी तरह संभालते हुए कहने लगा – नहीं ..नही..मैडम हमारे माता पिता ने हमें सिखाया है कि खाली हाथ वापस आ जाना मगर किसी से भीख नहीं लेना । मैंने उन बच्चों को बहुत समझाने की कोशिश की कि बेटा मैं भीख नहीं दे रही हूँ। मेरा मन उन गरीब बच्चों की श्रेष्ठ परवरिश की तारीफ से भर गया ।
मुझे खिलौने की जरूरत नही थी मगर उन बच्चों की मदद हो जाए करके खिलौने खरीदने लगी मैं लगभग तीन चार खिलौने खरीद लिए कीमत पूछने पर उन लोगों ने 50/ कहा मैं उन बच्चों के स्वाभिमान को समझते हुए अधिक पैसे देने की कोशिश नहीं की सिर्फ 50/ ही दी । बच्चों का स्वाभिमान भी रह गया और मुझे दर्द भरा संतोष मिल गया। मेरे मन में यह संतोष हो गया कि कुछ भी करके उन बच्चों की मदद हो गई । हमारे आसपास ऐसे भी गरीब स्वाभिमानी लोग रहते हैं जो अपने बच्चों को स्वाभिमान से जीने की शिक्षा देते हैं ।
#दर्द
।।इति।।
-गोमती सिंह
स्वरचित मौलिक रचना