चिडि़यों की टोली – कहानी-देवेंद्र कुमार

चिडि़यों की टोली उतरती है दोपहर में दो बजे। स्कूल बस ग्लोरी अपार्टमेंट्स के सामने रुकती है। सबसे पहले रजत की आवाज गूंजती है, ‘‘दादी, हम आ गए।’’ हम यानी ग्लोरी अपार्टमेंट्स के फ्लैटों में रहने वाले बच्चे भले ही अलग-अलग हैं, पर दादी सबकी एक हैं। उन्होंने ही बच्चों को नाम दिया है-चिडि़यों की टोली।

दादी यानी उमा देवी हंसती हुई सबको एक-एक थैली पकड़ाती हैं। ‘‘आज मैंने तुम्हारी मनपसंद मिठाई बनाई है। शाम को आना नई कहानी सुनाएंगे तुम्हारे बाबा।“

बच्चों के बाबा हैं उमादेवी के पति अजयसिंह। वह भी एक तरफ खड़े हंस रहे हैं।उमादेवी और अजयसिंह एक फ्लैट में अकेले रहते हैं। उनके दो बेटे हैं-श्यामल और सुरेश। दोनों अपने-अपने परिवार के साथ अमरीका जाकर बस गए हैं। बीच में जब भारत आते हैं तो माता-पिता से एक बार जरूर कहते हैं-‘‘यहां क्या रखा है? अमरीका चलकर रहिए न।’’ दोनों चुप रहते हैं-यानी उत्तर साफ है कि उन्हें कहीं नहीं जाना। दादी और बाबा चिडि़यों की टोली को कैसे छोड़ें! उनका यह मौन उत्तर घर के नौकर बिलासी को भी अच्छा लगता है। आखिर वह कहां जाएगा उमादेवी और अजयसिंह के अमरीका जाने के बाद?

एक दिन उमादेवी ने बच्चों के लिए मिठाई के छोटे-छोटे लिफाफे तैयार किए। लेकिन तभी उनके पेट में दर्द शुरू हो गया। अजयसिंह तुरंत डॉक्टर से दवा लेने चले गए।

दो बजे स्कूल बस सोसायटी के मुख्य द्वार के सामने रुकी। रजत ने पुकारा, ‘‘दादी, हम आ गए?’’

‘‘दादी कहां हैं?’’ नागेश ने इधर-उधर देखते हुए कहा।

बच्चे कुछ देर अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर खड़े रहे, फिर धीरे-धीरे दादी के फ्लैट की तरफ बढ़े।

‘‘दादी, क्या बात है?’’ रजत की आवाज आई तो उमादेवी झट उठ बैठीं। ‘‘जरा पेट में दर्द हो गया। तुम्हारे बाबा जल्दी घबरा जाते हैं, झट डॉक्टर से दवा लेने चले गए।‘’ तभी अजयसिंह हड़बड़ाए से अंदर घुसे, ‘‘अब दर्द कैसा है?’’ देखा उमादेवी बच्चों से घिरी बैठी हंस रही हैं। वह भी हंस दिए, ‘‘तो यह क्यों नहीं कहा कि चिडि़यों की टोली को बुला लाओ। मैं डॉक्टर के पास न जाकर स्कूल चला जाता।’’

एक सप्ताह बाद की बात है। एक सुबह उमादेवी चाय पीकर प्याला रसोईघर में रखने गईं तो फिर बाहर न आई। अजयसिंह ने जाकर देखा, फर्श पर बेहोश पड़ी थीं। तुरंत बिलासी डॉक्टर को बुला लाया, लेकिन उमादेवी फिर न उठीं। बच्चों को दोपहर की मिठाई खिलाने से पहले ही सदा के लिए चली गईं।


1

दो बजे स्कूल बस आकर रुकी। रजत ने आने की खबर दी, ‘‘दादी, हम आ गए!’’दादी के फ्लैट के नीचे भीड़ जमा थी। रजत ने देख लिया, बाबा चुपचाप बैठे थे। ‘दादी कहां है?’ वह सोच रहा था।

शाम को बच्चों ने दादी को सदा के लिए जाते देखा। वे सब एक झुंड में एक तरफ चुप खड़े थे।

बिलासी ने सब-कुछ बता दिया। ‘‘बाबू तो एकदम चुप हो गए हैं। किसी से कुछ नहीं बोलते।’’

‘‘खाना खाते हैं?’’ अणिमा ने पूछा।

बिलासी ने सिर हिला दिया। बोला, ‘‘सबके कहने पर थाली के सामने बैठ जरूर जाते हैं, पर खाते कुछ नहीं।’’

उस शाम रजत ने अपने साथियों को बुलाया और कहा, ‘‘हमें एक बार बाबा के पास जरूर जाना चाहिए।’’

रजत बिलासी से उनके बारे में पूछता रहता था। खुद बिलासी ही आकर बता जाता था कि ‘‘आज बाबू ने चाय नहीं पी, खाना भी नहीं खाया। रात को जब-जब आंख खुली तो उन्हें कमरे में अम्माजी की तस्वीर के सामने खड़े पाया, जैसे उनसे बात कर रहे हों।’’

एक सुबह बस बच्चों को लेकर ग्लोरी अपार्टमेंट्स से चली तो रजत ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मैंने बाबा को देखा था। दरवाजे से दूर एक खंभे के पीछे खड़े हुए थे।’’

‘‘बाबा को भला छिपकर खड़े होने की क्या जरूरत है? क्या वह आकर दरवाजे पर खड़े नहीं हो सकते?’’ अनामिका ने रजत से कहा।

‘‘हमसे बात क्यों नहीं करते?’’ रमेश बोला।

‘‘अगर यह बात है तो हमने ही उनसे कब बात की है। वह अकेले हो गए हैं, परेशान हैं। हम उनके पास कितनी बार गए?’’ रजत ने कहा।

दोपहर में बस दरवाजे पर रुकी। रजत की तेज नजर ने बाबा को खंभे की आड़ में खड़े देख लिया था।

अजयसिंह सुबह बच्चों को स्कूल जाते समय और दोपहर में लौटते समय खंभे की ओट में छिपकर देखा करते थे।

2

अगली सुबह बस घुरघुराती हुई चली गई। खंभे के पीछे खड़े अजयसिंह अंदर जाने के लिए मुड़े तो सब बच्चे उनके सामने मौजूद थे, एकटक देखते हुए।

अजयसिंह हड़बड़ा गए। इधर-उधर देखने लगे।


‘‘आज हमने चोरी पकड़ ली।’’ रजत ने रमेश की तरफ मुड़कर कहा।

‘‘चोरी!’’ अजयसिंह के मुंह से बस एक ही शब्द निकल सका। फिर बोले,‘‘लेकिन तुम सब आज स्कूल क्यो नहीं गए?”

‘‘आपको पकड़ने के लिए ही हमने यह योजना बनाई थी, बाबा!’’ रजत ने कहा।

‘‘हां, आप दादी की तरह मेन गेट पर भी तो खड़े हो सकते हैं। यह लुका-छिपी क्यों?’’ अनामिका कह रही थी।

‘‘दादी की तरह…?’’ अजयसिंह की आंखों से आंसू बह चले।

बच्चे उन्हें घेरकर खड़े हो गए। ‘‘बाबा, आप रोते क्यों हैं?’’ नन्हे संतोष ने कहा और उनका हाथ पकड़कर हिलाने लगा। रजत ने कहा, ‘‘हमें पता है आप सुबह चाय भी नहीं पीते। रात को कमरे में घूमते रहते हैं…क्यों?’’ बाबा हैरान! बच्चे सच कह रहे हैं कि चाय छोड़ दी, खाने का मन नहीं करता और रात में नींद भी नहीं आती। पर बच्चों को यह सब कैसे पता? उन्हें क्या मालूम था कि बिलासी उनकी पूरी दिनचर्या का हिसाब बच्चों को बता देता था।

कुछ देर बाद दादी की चिडि़यों की टोली बाबा अजयसिंह के साथ बड़े कमरे में बैठी चहचहा रही थी, जहां दादी की हंसती हुई तस्वीर लगी थी।

3

थोड़ी देर में अपर्णा अपनी सहेलियों के साथ चाय व नाश्ता बाबा के सामने ले आई।

‘‘और तुम लोग?’’ बाबा ने पूछा।

‘‘अब दादी तो हैं नहीं जो हमें मिठाई खिलाएं। आपको मिठाई बनानी नहीं आती तो…चाकलेट और टाफियां ही दे दीजिए हमें, लेकिन रोज देनी होंगी।’’ रजत मुस्करा रहा था।

‘‘कौन कहता है कि मैं मिठाई बनाना नहीं जानता, कुछ मिठाइयां तो तुम्हारी दादी को मैंने ही सिखाई थी,’’ कहकर बाबा हंस पड़े।

‘‘तो बनाकर खिलाइए।’’ अपर्णा ने कहा।

चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी। रजत बोला, ‘‘बाबा, आप सुबह उठते ही चाय पीकर हमें स्कूल के लिए छोड़ने बाहर आएंगे।’’ अपर्णा बोली, ‘‘दिन में सही समय पर नाश्ता करेंगे।’’ संतोष बोला, ‘‘दोपहर में आप हमें दादी की तरह सोसायटी के दरवाजे पर मिलेंगे।’’ अणिमा बोली,‘‘दोपहर का भोजन हमारे साथ करेंगे आप।’’

‘‘और हां, इस तरह खंभे के पीछे छिपकर नहीं देखेंगे।’’ रजत बोला।

बच्चों की बातें सुन अजयसिंह जोर से हंस पड़े-शायद बहुत दिन बाद पहली बार. “ ठीक है, अब ऐसी गलती नहीं होगी।’’

‘‘बाबा मान गए…’’ शोर मचाते, धम-धम करते बच्चे नीचे उतर गए।

अगली दोपहर स्कूल बस आकर रुकी तो बस का दरवाजा बाबा ने खोला। चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी, ‘‘रात का खाना खाया? नींद ठीक से आई?’’

बाबा मुस्करा उठे, उन्होंने जवाब देने के बाद सवाल दाग दिए, ‘‘नाश्ता किया? होमवर्क मिला? डांट तो नहीं खाई?’’

हर बच्चे को लिफाफा थमाते समय बाबा यह कहना नहीं भूले, ‘‘मिठाई मैंने अपने हाथों से बनाई है। बिलासी ने मेरी कोई मदद नहीं की।’’

दादी गई नहीं थी, बाबा में लौट आई थीं। ( समाप्त )

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