एक समय था जब हम सभी को नानी का घर स्वर्ग के समान लगता था।नाना-नानी की गोद में बैठकर कहानियाँ सुनने और मामा-मामी से छोटी-छोटी चीज़ों के लिये ज़िद करने में एक अलग ही आनंद आता था।
चार भाई-बहनों में मेरी माँ सबसे बड़ी थीं, इसलिये ननिहाल में मैं सबका लाडला था।तीन साल तक तो मैं माँ की गोद में ही लालगंज(मेरा नानी घर)जाता था और फिर वहाँ कौन-कहाँ ले जाता..क्या खिलाता कुछ पता नहीं लेकिन जब स्कूल जाने लगा तब गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल जाना मेरा नियम बन गया था।तब तक मेरी छोटी बहन भी आ चुकी थी..हम दोनों ही मामा-मौसी का खिलौना बन जाते थे…।
वैसे तो मेरा नाम मनीष था लेकिन दोनों मामा और प्रिया मौसी मुझे मनु कहते थे और नानी मनुआ कहकर दुलारती।उन दिनों उनके मुँह से ‘मनुआ’ सुनना एक सुखद अनुभूति देता था।
चौथी कक्षा पास करने के बाद गरमी की छुट्टियों में मैं जब लालगंज गया तो घर में एक नये सदस्य को देखा जो मेरी ही उम्र का था।उसके घुंघराले बाल और बड़ी-बड़ी आँखों में इतनी चमक थी कि कोई भी उसे देखकर मुग्ध हो जाये।मुझे देखकर वो ऐसे मुस्कुराया जैसे बहुत पहले से जानता हो।मैंने उससे नाम पूछना चाहा तभी नानी ने उसे पुकार लिया,” अरे छोटुआ…बाल्टी में पानी नहीं है..।”
” अभी लेकर आवत है नानी..।” कहकर वो तेजी-से रसोईघर की तरफ़ भागा।मैं कुछ सोचता कि तभी मौसी आ गई और मैं उनके साथ हिलमिल गया।अगले दिन नानी ने मुझसे कहा कि अकेले कहीं नहीं जाना..छोटुआ को साथ लेकर ही जाना।मैं खुश..फिर तीन बजे के बाद छोटू को साथ लेकर मैं आसपास टहलने निकल गया।वो मुझे नये-नये मकान दिखाने लगा और पूछने लगा कि आपका सहर कैसा है..मौसा जी काहे नहीं आये…।तब मैंने उसके बारे में जानना चाहा। उसने बताया कि नानी के गाँव में हमारा घर था..बाबू खेत में मजूरी करत रहे..एक दिन उनको ताप हुआ और..।महीना भर बाद माई भी खतम..तब नानी हमको इहाँ ले आई..।कहते हुए उसकी आँखें नम हो गई थी।बस उसी दिन से वो मेरा दोस्त बन गया।
दिन-भर वो चक्करघिन्नी की तरह घूमता रहता..कभी बड़े मामा के कमरे में जाता तो कभी नाना जी की पीठ दबाने पहुँच जाता।कभी-कभी तो वो खाने के बीच में ही ‘ लावत है नानी’ कहकर दौड़ जाता था।एक दिन मैंने उससे पूछा,” छोटू..इतना काम करते हो..थकते नहीं हो..।” कहने लगा,” भईया..हमरी माई कहत रहिन कि काम करे से देह मजबूत होवत है..।” कहते हुए उसने अपने बुशर्ट की दोनों आस्तीनें चढ़ा ली थी।वक्त ने उसे समय से पहले ही बड़ा बना दिया था।
मेरी छुट्टियाँ खत्म हो गई।पापा हमें लेने आ गये।जाते समय मैंने सभी बड़ों को प्रणाम किया और उसे हाथ हिलाकर टाटा कहते हुए कार में बैठ गया।
अब हर छुट्टियों में मेरा लालगंज जाने का कारण नानी से मिलना कम और छोटू के साथ खेलना अधिक होता था।एक दिन मैंने उससे पूछा कि तुम्हारा नाम छोटू किसने रखा तो हँसते हुए बोला,” भईया( वो मुझे भईया भी कहता था)माई-बाबू हमको आकास(आकाश) कहकर बुलाते थे..इहाँ आये तो सबन हमें छोटू- छोटुआ कहने लगे।वो अक्सर मुझसे पूछता कि आपका सहर तो बहुत बड़ा होगा ना..सुना है..उहाँ बहुत भीड़ होती है..।मैं चुपचाप उसकी बातें सुनता..उसके भोलेपन को निहारता रहता।
देखते-देखते चार बरस बीत गये..।मैंने आठवी कक्षा पास कर ली थी।प्रिया मौसी की शादी में मेरा लालगंज जाना हुआ।छोटू को देखा तो एकाएक उसे पहचान ही नहीं पाया।लंबा कद..चेहरे पर मूँछ की पतली रेखा..मैंने हँसते हुए कहा,” अरे छोटू..तुम तो बिलकुल बदल गये हो।” तब वो बोला,” भईया..मूँछ में आप भी बहुत अच्छे लग रहे…।” उसकी बात अधूरी रह गई।छोटे मामा उस पर चिल्लाये,” शादी का घर है और तू यहाँ हा-हा, ही-ही कर रहा है।” वो सहम कर भाग गया।
मौसी की विदाई के अगले दिन माँ सामान बाँधने लगी… छोटू से दो बात करने की इच्छा से मैं उसे ढूँढने लगा कि बड़े मामा के कमरे से आवाज़ आई तो मैं रुक गया।मामा छोटू का कान ऐंठते हुए कह रहें थें, ” खाता तो मन भर का है और काम ऐसे करता है जैसे पाँवों में मेंहदी लगी हो..चल जा..दोनों बोरा उठाकर बाहर वाले कमरे में रख आ।” छोटू ने मुझे देखा तो सकपका गया। मामा से डाँट खाने का तो वो आदती था लेकिन उसे मेरे सामने डाँट पड़ी, इस बात का उसे बहुत दुख हुआ था।मुझे भी अच्छा नहीं लगा था…उसकी मुस्कुराहट के पीछे का काला सच मेरे लिये भी असहनीय था। एकांत पाकर मैंने उससे कहा कि अब तो तुम सयाने हो गये हो..कहीं और क्यों नहीं..।” तब मैंने पहली बार उसकी आँखों में आँसू देखे जो उसके #अनकहे दर्द को छिपाने की असफल कोशिश कर रहे थे।उसने तुरंत अपनी हथेली से आँसू पोंछे और चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोला,” भईया..ई घर तो हमारे लिये मंदिर है..मंदिर छोड़कर चले गये तो माई को क्या मुँह दिखायेंगे।” उसकी आस्था के आगे मैं नतमस्तक हो गया था।
उसके बाद मेरा ननिहाल जाना नहीं हुआ।बड़े मामा की शादी के वक्त मेरी दसवीं बोर्ड की परीक्षाएँ चल रही थी।उसके दस महीने बाद ही छोटे मामा की भी शादी हो गई।माँ और छोटी बहन गई थीं।छोटू का ख्याल मेरे ज़हन में था, फिर भी मैं माँ से उसके बारे में नहीं पूछ सका।
इंजीनियरिंग की परीक्षा हो जाने के बाद माँ ने मुझे बताया कि दोनों मामा पटना में शिफ़्ट हो गये हैं।नाना जी रहे नहीं तो दो महीने पहले बड़े मामा ने खेती-बड़ी का काम विश्वसनीय लोगों के हाथों में सौंप कर नानी को भी अपने साथ पटना ले गये हैं।तब मैंने पूछा,” और छोटू…उसका क्या हुआ?”
” होना क्या है..दिनेश(मामा) तो पहले ही उसे अपने साथ ले गया था।किसी दिन जाकर नानी से मिल आना..तेरे बारे में पूछती रहतीं हैं।” माँ की बात से आश्वस्त हो गया कि अब छोटू थोड़ा पढ़-लिख गया होगा।इसी उम्मीद से एक दिन मैं पटना चला गया।नानी बहुत कमज़ोर हो गईं थीं लेकिन आवाज़ अभी भी बुलंद थी।मैंने जब छोटू के बारे में पूछा तब भड़क गईं,” नाम मत ले उस कमजात का.. सहर की हवा लग गई..चोरी करके एक दिन भाग गया..इतने साल तक खिलाया-पिलाया..सब पानी कर गया।”
छोटू को मैं जितना जानता था, उसमें मैं ये दावे से कह सकता था कि वो चोरी तो कतई नहीं कर सकता था।लेकिन घर में उसकी चर्चा करने का मतलब था, दबी चिंगारी को हवा देना, सो मैं चुप रह गया।
मुझे एक प्राइवेट कंपनी में ज़ाॅब मिल गई और मैं व्यस्त हो गया।बहन की शादी के बाद मेरी भी शादी हो गई और एक बेटे का पिता भी बन गया।पापा रिटायर गये।बहन की शादी से पहले ही नानी चल बसीं थीं।उनके जाने के बाद माँ पटना गईं ही नहीं।
एक दिन माँ मुझसे बोलीं,” मनु..समय निकालकर एक बार मुझे अपने भाइयों से मिला ला ना..।” माँ की बात मैंने कभी नहीं टाली थी।सो उन्हें लेकर मामा के पास चला गया।घर में काफ़ी कुछ बदल चुका था।माँ सबसे मिलकर अपना मन हल्का करने लगी।मैं शहर देखने निकल गया।एक जगह रुक कर मैं चाय पीने लगा कि तभी मेरी नज़र नीले रंग की कार से निकलते ड्राइवर पर पड़ी तो मैं चौंक गया।
ये छोटू ही है, यकीन नहीं हो रहा था।सफ़ेद वर्दी और सिर पर टोपी लगाये छोटू जब शोरूम से बाहर निकला तो मैं चाय आधी छोड़कर ही उसकी तरफ़ लपका।मुझे अचानक देखकर वो भईया कहकर मेरे पैर छूने लगा तो मैंने उसे अपने सीने-से लगा लिया।दोनों की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी थी।उसने एक साथ कई सवाल कर दिये।उसकी स्पष्ट भाषा सुनकर मैं अचंभित था और खुश भी था।मैंने कहा,” आकाश..समय हो तो बैठकर दो बातें कर सकते हैं।” वो चहक उठा,” भईया..आपने मेरा नाम लेकर मुझे खुश कर दिया..चलिये..वहाँ बैठते हैं।”
चाय की दुकान के बाहर रखी बेंच पर हम बैठ गये।उससे कैसे पूछूँ कि…।मेरी कशमकश को वो समझ गया, इसलिये पहल करते हुए बोला,” कुछ साल पहले जब मामाजी मुझे लेकर यहाँ आये तो कुछ दिनों तक सब अच्छा रहा लेकिन फिर…।” उसने गहरी साँस ली और बोला,” नानी जी का कहा मुझे कभी बुरा नहीं लगा लेकिन मामी जी अक्सर ही हाथ उठा देतीं थीं।काम तो हम एक क्या सौ कर दे लेकिन प्यार के दो बोल भी तो कोई मुझसे बोले।कभी-कभी प्रिया मौसी भी अपने पास बुला लेतीं थीं तो मैं चला जाता था।
एक दिन मौसी जी की ननद आई हुईं थीं।उन्होंने मुझे पैर दबाने को कहा।मैंने मना कर दिया तो मुझपर चोरी का इल्ज़ाम लगा दिया।यहाँ आया तो बड़े मामा जी ने मुझे मारा और खूब गालियाँ दी।मैं सब सुनता रहा..सहता रहा।रात भर रोता रहा और कल जाकर गंगा मईया की गोद में समा जाने का निश्चय कर लिया।अगले दिन सब्जी लाने के लिये मामी ने थैला और पैसे दिये तो मैंने दोनों ही तकिये के नीचे रख दिये और खाली हाथ चला गया।
गाँधी सेतु पर जाकर कूदने ही वाला था कि अचानक दो मजबूत हाथों ने मुझे थाम लिया और जीप में बिठाकर अपने घर ले आये।वो पुलिस इंस्पेक्टर एस पी रैना साहेब थे।उन्होंने ही मुझे पढ़ना-लिखना सिखाया। ड्राइंविंग सिखाकर मुझे नौकरी भी दिलवाई।अब जब भी समय मिलता है, मैं उनकी सेवा करने चला आता हूँ।आज मेरी छुट्टी थी तो मैडम जी को लेकर यहाँ आ गया।आप चलिये ना..उनसे मिलाता हूँ।”
अपने ननिहाल की कड़वी सच्चाई जानकर मैं उससे आँखें नहीं मिला पा रहा था।मैंने कहा,” आज नहीं आकाश, फिर कभी..।तुम्हें देखकर बहुत खुशी हो रही है।” उसके चेहरे की चमक देखकर ‘तुम खुश तो हो’ पूछना मैंने मुनासिब नहीं समझा।
” घर में सब कैसे..।” उसने हिचकिचाते हुए पूछा।मैंने कहा कि नानी जी अब नहीं रहीं..मामा-मामी अच्छे हैं।इतना कुछ होने के बाद भी तुम्हें उनकी फ़िक्र..।
” भईया..उन्होंने मुझे दिल में न सही..घर में तो जगह दी थी ना.. ये एहसान तो मैं कभी नहीं भूल सकता।”
” अच्छा..ये बताओ..शादी-वादी की या ऐसे ही…।” मैंने बात को बदल दिया।
चहकते हुए बोला,” नहीं भईया..अब कोई बंधन नहीं बाँधना..।”
” तो फिर अपनी कमाई का क्या करते हो?”
” ज़्यादा तो है नहीं..खाने-पहनने और किराया देने के बाद जो बचता है, पास के अनाथालय में दे देता हूँ ताकि किसी को भी मेरी तरह बेगार की चाकरी न करना पड़े..।” उसके चेहरे पर दर्द की एक रेखा खिंच आई थी।
” फिर मिलता हूँ ” कहकर मैं वापस जाने के लिये मुड़ गया। सड़क किनारे बने ढ़ाबे पर बर्तन धोते नन्हें हाथों पर मेरी नज़र पड़ी तो सोचने लगा,छोटू की व्यथा तो पुलिस वाले ने सुन ली ..क्या इन नन्हें हाथों का अनकहा दर्द कोई देख-सुन पायेगा कभी….।
विभा गुप्ता
# अनकहा दर्द स्वरचित, बैंगलुरु
अपनी सुविधा के लिए अक्सर ही लोग ग्रामीण इलाके से गरीब परिवार के बच्चे-बच्चियों को अपने पास ले आते हैं और उनका शोषण करते हैं।कभी उनकी इच्छाओं और अनकहे दर्द को समझने की कोशिश नहीं करते।एस पी रैना जैसे भले लोग आज भी हमारे समाज में हैं जो मजबूर और कमज़ोर लोगों की मदद करते हैं..उन्हें आत्मनिर्भर बनाते हैं।