“अम्माँ …तू दवा लेने जा रही है न अपनी…मैं भी आता हूँ।”
“नौ बरस का हो रहा है…अब तो अम्माँ का पीछा छोड़…।” दौड़ते हुए आए गोपाला का हाथ पकड़ते हुए अम्माँ बोली।
“अम्माँ मुझे …नयी वाली छतरी चाहिए।” अम्माँ के संग तेज-तेज चलता हुआ गोपाल बोला।
“क्यों रे… अभी-अभी तो सुधरवाई तेरी छतरी… अब समझी मेरे पीछे-पीछे क्यों आया।”
” कितनी बार सुधरवाएगी अम्माँ उसे ही…।”
“अच्छा!…. पूरे अस्सी रुपए दिए हैं सुधारने वाले को… ऐसा था तो पहले ही बोल देता।”
“कैसा सुधारा है उसने तूने देखा है?”
“देखा है मैंने… सड़क पर जरा संभल कर चल।” अम्मा ने उसे अपनी तरफ खींचते हुए कहा।
“अम्माँ… तूने कुछ नहीं देखा… जाने कैसी सुधारी है उसने …. खोलता हूँ तो एक तरफ से ज्यादा उठ जाती है…सब हँसते हैं उसे देखकर।”
“पानी से तो बचाती है न तुझे…।”
” पर अम्माँ अच्छी भी तो दिखना चाहिए… मुझे नहीं चाहिए… कितने दिन से कह रहा हूँ नया चाहिए…नया चाहिए। मैं नही ले जाऊँगा काली मटमैली टुटेली छतरी…।”
वह बुरी तरह से मचल उठा।
” देख गोपाला…सच कहूँ… घर से सोच कर ही निकली थी कि तू बार-बार कहता है तो तेरे लिए अच्छी सतरंगी छतरी खरीदूँगी।”
“सच !अम्माँ…?” उससे खुशी संभाले नहीं संभली… वह किलकारी भरता हुआ जोर से उछल पड़ा।
” कितनी बार समझाया हम सड़क पर चल रहे हैं घर पर नहीं हैं … बस सड़क अब ढंग से पार करना… सामने की दुकान में ही जाना है… उसके पड़ोस वाली दुकान छतरी की…वहीं से ले लेंगे…बार-बार आना होता नहीं ।” अम्माँ ने जोर से उसका हाथ पकड़ कर फिर अपनी तरफ खींचा…।
” हाँ अम्माँ कहीं से भी दिला दे…।” वो खुशी के मारे थोड़ा मटक-मटक कर चल रहा था।
” अम्माँ तू मुझे झूठ ही कह रही थी… पैसे नहीं है पैसे नहीं है…।”
” देख …मेरी दवा बारह सौ रुपए की आती है महीने भर की… रोज खाने की…अब मैं छह सौ की ही ले लूँगी… एक दिन छोड़कर कर खाऊँगी तो महीना निकल जाएगा…वैसे भी अच्छी भली तो हूँ….।”
“पर अम्माँ…।”
“सुन गोपाला…छह सौ में तेरी अच्छी वाली छतरी आ जाएगी…और इधर-उधर लेने भी नहीं जाना पड़ेगा…।”
अम्माँ बटुवे में से पैसे निकाल कर गिनते हुए बोली।
“अम्माँ…मामा ने कहा था न मुझे साईकिल दिलवाएँगे…।”
“हाँ…कहा तो था…।”
“फिर साईकिल में छतरी का तो काम ही नहीं… बस फिर तो भैया वाला रेनकोट पहन जाऊँगा…।”
“देख गोपाला अच्छे से सोच ले …फिर बार-बार आना होता वहीं…।”
“अम्माँ…तू ही बता छतरी लगाऊँगा कि साईकिल चलाऊँगा…।”
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रश्मि स्थापक