अमेरिका-डलास के उपनगर इरविंग का रोडियो पार्क।जनवरी का महीना।तीन डिग्री सेल्सियस तापमान ।तेज हवा के झोंके शरीर में नश्तर की तरह चुभ रहे हैं ।सीमेन्टेड शेड पर पड़ी बेंच पर बैठे वह पार्क के सूने रास्तों को निहार रहे हैं ।पत्ते विहीन सूनी शाख़ों वाले धुंध में निस्तब्ध खड़े वृक्ष उन्हें हमजोली से लग रहे हैं ।पार्क के सूने वृक्षों की भाँति उनके स्वयं के जीवन से भी तो जीवन रस के पत्ते झर चुके थे ।
सुबह के आठ बजने तक घर से पुत्र एवं पुत्रवधू अपनी-अपनी कारों से आफिस निकल जाते थे ।पौत्र स्कूल बस से स्कूल निकल जाता था ।सब के जाने के बाद घर में पसरे सन्नाटे के बीच रह जाते वह स्वयं ।घर की दीवारों से पसरते सन्नाटे की अपेक्षा उन्हें पार्क में ज़्यादा सुकून मिलता ।वह जानते हैं कि इस उम्र में इतनी सर्दी में बाहर निकलना उनके शरीर के लिए ठीक नहीं है ।किंतु उन्हें भरोसा है अपने राम जी पर जो उनकी इच्छा कि वह इस पराये देश की मिट्टी में मरना नहीं चाहते, अवश्य पूरी करेंगे ।वह मृत्यु से नहीं डरते,किंतु उनके शरीर की राख इस फ़िरंगी देश की मिट्टी में मिले ,यह उन्हें स्वीकार नहीं ।
मन की छटपटाहट जब बहुत बढ़ गई तो एक दिन उन्होंने पुत्र से कहा था कि वह इंडिया वापस जाना चाहते हैं ।सुनकर पुत्र ने आश्चर्य से कहा था कि यहाँ क्या समस्या है जो वह इंडिया जाना चाहते हैं ।इंडिया वाले घर में कौन है जो उनकी देखभाल करेगा ।लोग क्या कहेंगे कि इस उम्र में बेटे ने वहाँ मरने को छोड़ दिया ।
इस पर उन्होंने कहा कि वहाँ वह एक नौकर रख लेंगे और फिर वहाँ पुराने परिचित हैं, नाते-रिश्तेदार हैं।इस पर पुत्र ने झल्लाकर कहा था-“ पापा मुझे तो समझ नहीं आ रहा कि आप इस स्वर्ग से उस नर्क में क्यों जाना चाहते हैं ।यहाँ एयरकंडिशन्ड घर है,घूमने को लग्ज़री कार है ।शुद्ध भोजन-पानी है,धूल रहित सड़कें हैं ।वहाँ धूल और गंदगी भरी सड़कों पर आवारा घूमते पशुओं वाले देश में ऐसा क्या है जिसके लिये आप इतने व्याकुल हो रहे हैं ।”
सुनकर वह चुप लगा गये।वह पुत्र से कैसे कहते कि सोने का यह पिंजरा उन्हें रास नहीं आ रहा।वह अपना अंतिम समय उस घर में गुज़ारना चाहते हैं जिसकी एक-एक ईंट पर उनकी पत्नी सविता की यादों की छाप है ।वह घर जिसकी चौखट से सविता नई-नवेली दुल्हन बन कर आई थी,वह घर जिसकी दहलीज़ से सविता की अर्थी बाहर निकली थी,वह घर जिसके आँगन में इसी पुत्र ने लड़खड़ाते-डगमगाते कदमों से चलना सीखा था,वह घर जो उनकी हर साँस में समाया है ।
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पार्क के धुँधले आकाश से कुछ प्रकाश की किरणें फूटने लगीं हैं ।आकाश में कुछ पक्षियों की क़तारें उड़ती हुई पूर्व दिशा की ओर जा रही हैं ।वह सोचने लगे कि क्या यह प्रवासी पक्षियों का झुंड है जो आने वाले शीत की आशंका से अपने सुरक्षित बसेरों की ओर जा रहा है ।वह स्वयं भी तो एक प्रवासी पक्षी ही है, किंतु उनके पंख तो बंधनों में जकड़े है ।काश वह भी इन पक्षियों की तरह उड़ पाते …पर मन की उड़ान को कौन रोक सका है ……मन का पंछी जा उड़ा १२ वर्ष पुराने उन दिनों की ओर …………
समृद्धि के देश अमेरिका की सोफ्टवेयर कंपनी से पुत्र की नौकरी का कॉल-लैटर आया था ।अड़ोस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों से बधाइयाँ मिल रही थी ।अपने इकलौते पुत्र की इस ऊँची छलाँग से वह और सविता फूले नहीं समा रहे थे ।मोहल्ले में ही रहने वाले अवस्थी जी और उनकी पत्नी भी मिलने आए थे ।अवस्थी का लड़का कई वर्षों से अमेरिका में था और पति-पत्नी दोनों स्वयं भी अपने पुत्र के पास अमेरिका रह आये थे ।जब से अवस्थी अमेरिका होकर आए थे तब से मोहल्लेवाले उनका अमेरिकी पुराण सुन-सुन कर थक चुके थे ।अवस्थी को देखते ही मोहल्ले वाले कतराकर निकल जाते थे कि कहीं फिर से अमेरिकी बखान सुनना न पड़ जाए ।
किंतु आज उन्हें अवस्थी दंपति का आना अच्छा लगा ।जिज्ञासु श्रोता को समक्ष पाकर अवस्थी के अमेरिकी ज्ञान का पिटारा खुल चुका था-“ भाभी जी, वहाँ के सड़कों पर कोई आदमी नज़र ही नहीं आता, सड़क पर बस कारें ही कारें।सब से आश्चर्य की बात तो यह कि कोई कार का हॉर्न नहीं बजाता।सड़कें साफ़ और चिकनी,धूल का नामोनिशान नहीं ।क्या मजाल जो सड़क पर कोई एक तिनका भी फेंक दे, ५००डॉलर फ़ाइन लगता है ।और………
कथा को लंबा होते देख उन्होंने बात काटते हुए कहा-“ अवस्थी जी,हमें तो यह बतलाइए कि बेटे के साथ क्या-क्या सामान भेजें
पहनने के कपड़ों के अतिरिक्त कुछ नहीं भेजना ,वहाँ देसी स्टोरों पर सब प्रकार का भारतीय सामान मिलता है ।”-अवस्थी जी ने ज्ञानमय मुद्रा के साथ कहा।
“फिर भी कुछ तो तैयारी करनी होगी ।”-सविता ने झिझकते हुए कहा ।
तैयारी तो आप लोग अपने बेटे के लिए अच्छी सी बहू ढूँढने की करें, कहीं ऐसा न हो कि बेटा वहीं से कोई गोरी मेम ले आए ।अवस्थी जी तो चले गये पर एक चमकीली स्वप्निल दुनिया की ऐसी कहानियाँ छोड़ गए जो उन्हें और सविता को गुदगुदाती रहीं थीं ।
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पुत्र के जाने के बाद कुछ दिन तो घर सूना-सूना सा लगा था, पर धीरे-धीरे जीवन पुनः अपनी नियमित दिनचर्या की पटरी पर दौड़ने लगा था ।अवस्थी जी की सलाह के अनुसार इन दिनों सविता पुत्र के लिए वधु खोज अभियान में व्यस्त थी।किंतु इस खोज अभियान को अचानक पुत्र के ई-मेल ने ब्रेक लगा दिया ।आफिस की सुनंदा देशपांडे को पुत्र ने स्वयं खोज लिया था ।उन्हें और सविता को बस इतनी सांत्वना थी कि पुत्र ने गोरी मेम के स्थान पर देसी मेम को चुना था ।
क्या होता या क्या नहीं होता -इस सोच का क्या कोई औचित्य है ? नियति से कौन लड़ सका है ? बहादुर शाह ज़फ़र तो दिल्ली का बादशाह था और वह स्वयं तो साधारण सेवानिवृत्त सरकारी मुलाजिम ।ज़फ़र अपने वतन की दो गज ज़मीन की हसरत लिए रंगून की जेल में दफ़्न हो गया ।वह भी अपने वतन की मिट्टी के लिए एक परकटे पक्षी की तरह फड़फड़ा रहे हैं ।उम्र के इस पड़ाव पर अकेलापन भोगना यदि उनकी नियति न होती तो असमय सविता ही उन्हें अकेला क्यों छोड़ जाती ।
किंतु सविता भाग्यशाली थी।सविता ने कभी बड़े सपने नहीं पालें।छोटी-छोटी ख़ुशियों में जीवन जीना उसे आता था ।ईश्वर से उसने यदि कुछ माँगा तो बस यह कि उसकी मृत्यु उसके घर-आँगन के बीच सुहागिन रूप में हो।ईश्वर उस पर कृपालु था ।जब सविता की देह चिता पर रखी थी तो आग की लपटों में उसकी माँग का लाल सिंदूर दीप्तमान था ।वह इतने भाग्यशाली नहीं हैं।
पार्क के धुँधलाये आकाश से सूर्य की लालिमा पेड़ की फुनगियों पर ठहरी सी प्रतीत हो रही है ।उन्होंने घड़ी देखी नौ बज रहे थे ।उन्होंने मन-ही-मन गणना की कि भारत में इस समय सांय के सात बज रहे होंगे ।उनके घर के आँगन में अँधेरा घिर आया होगा ।कौन है वहाँ जो उस सूने घर में दिया जलाता ? उन्हें अमेरिका आये एक वर्ष हो रहा है ।अब तक तो उनका वह घर जो कभी उनका मन-मंदिर था धूल-मिट्टी और मकड़ी के जालों से भर चुका होगा ।
कुछ दिन पहले उनके पड़ौस में रहने वाले शुक्ला जी का फ़ोन आया था ।फ़ोन उनके पुत्र ने उठाया था ।शुक्ला जी ने पूछा था कि क्या वह अपना घर बेचना चाहते हैं ? कई ग्राहक आकर पूछ-ताछ कर चुके हैं ।किसी के न रहने से घर की दशा बिगड़ रही है ।अभी तो अच्छे दाम मिल रहे हैं किंतु बाद में घर खंडहर सा हो जायेगा ।
पुत्र ने शुक्ला जी के घर बेचने वाले प्रस्ताव के विषय में उनसे चर्चा की थी ।घर बेचने की बात सुनकर उन्हें एक धक्का सा लगा था ।वह घर जिसे उन्होंने और सविता ने कितने सपने पाल कर बनवाया था …उसे बेच दें ? पुत्र ने उन्हें समझाने वाले अंदाज़ में कहा था-“ पापा जब उस घर में किसी को रहना ही नहीं है तो उसे बेचने में क्या हर्ज है ।शुक्ला जी कह रहे थे कि मकान के अच्छे दाम लग रहे हैं ।
घर विक्रय के इस प्रस्ताव पर उनसे कुछ कहते नहीं बना।वह पत्थर बने शून्य में देखते रहे थे ।अपने प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया न पाकर पुत्र ने पुनः कहा —“ पापा इसमें सेंटीमेंटल होने की आवश्यकता नहीं है ।थोड़ा प्रैक्टीकल होकर सोचिए ।मकान का जब अच्छा मूल्य मिल रहा है तो उसे बेचने में क्या अड़चन है ?और फिर घर बेच कर जो रुपये मिलेंगे उन्हें आप रख लीजिएगा मुझे उन रुपयों की आवश्यकता नहीं ।
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सुनकर उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई उनसे उनके प्रेम-मंदिर की बाज़ार में नीलामी करने को कह रहा है ।सौदे से प्राप्त रुपयों को रख लेने के सुझाव से उन्हें इतना क्रोध आया कि वह थर-थर काँपने लगे ।अपमान और पीड़ा से जलते हुए उनसे कुछ कहते नहीं बना।उनकी ऐसी दशा देख कर पुत्र ने उनसे तो कुछ नहीं कहा किंतु वह स्वयं से बड़बड़ा रहा था—“
पता नहीं इंडियन घर को लेकर इतना टची क्यों होते हैं ? अमेरिका में तो लोग पुराने घरों को बेच कर नये घर ख़रीदते ही रहते हैं ।ईंट-मिट्टी से बने घरों से ज़्यादा मोह नहीं करते ।”पुत्र की बड़बड़ाहट को अनसुना कर वह उठ कर उपर अपने कमरे में आ गये थे ।कमरे में आकर वह सूनी आँखों से मेज़ पर रखे सविता के फ़ोटो को एकटक निहारते रहे थे ।
कोहरे की घनी धुँध से निकला सूर्य पुनः कोहरे की ओट में जा छुपा था ।अंधेरा सा घिर आया था ।मन ने पूछा कि इस सुनसान और निर्जन पार्क में अकेले बैठे क्या कर रहे हो ? यादों के भँवर में डूबे हुए उन्हें लगा कि वह रो रहे हैं । आँखों के बंद कटोरों से नमकीन धारायें गालों पर बह रहीं थीं ।जेब में रुमाल खोजते हुए वह सोच रहे थे कि पार्क में उन्हें रोता हुआ देख कर कोई क्या सोचेगा ……इतना उम्रदराज़ आदमी बच्चों की तरह क्यों रो रहा है ? मन ने कहा-क्यों पोंछते हो इन आंसुओं को …………इन्हें बहने दो …यहाँ इस वीरान और सर्द पार्क में कौन है, जो तुम्हारी तरफ़ देखेगा।यहाँ तुम्हारी रुलाई या हँसी सुनने और देखने वाला कोई नहीं ।सूनी वादियों और सुनसान सड़कों वाले देश में कौन है जो तुम्हारी ओर देखेगा।
वह उठ कर भारी कदमों से अपने अपार्टमेंट की ओर चल पड़े ।घर का ताला खोला।चाय बनाने का मन नहीं हुआ ।सुबह की बनी हुई रखी चाय को माइक्रोवेव में गर्म किया ।मेज़ पर प्लेट से ढका ब्रेड-टोस्ट रखा था ।चाय और टोस्ट खा कर वह अपने कमरे में चले गये ।आज पता नहीं क्यों मन ज़्यादा ही उदास हो रहा था ।उन्होंने भागवत गीता उठाई और पढ़ने लगे ।मोह-माया के बंधनों से मुक्ति की राह क्या इतनी सहज है।वह मोह-माया भले ही छोड़ दें ,किंतु क्या मोह-माया उन्हें छोड़ेगी ?
आज शनिवार है, रात के दस बज रहे हैं ।नीचे से टी॰वी पर चलती किसी इंगलिश मूवी की आवाज़ें आ रही है ।वह कमरे की बत्ती बुझा कर लेट गए ।कमरे की खिड़की के काँच से बाहर सड़क पर लगी स्ट्रीट लाइट की रोशनी छन कर आ रही है ।आज न मालूम क्यों मन व्याकुल हो रहा है ।पार्क में पूर्व दिशा की ओर उड़ते प्रवासी पक्षियों की क़तारों का नजारा आँखों में तैर रहा है ।बंधन-मुक्त वह पक्षी । उन्हें अपनी बेबसी पर क्रोध आने लगा है ।क्यों हैं वह इतने आश्रित ?क्यों नहीं तोड़ पाते वह यह बंधन और उड़ जाते उन पक्षियों की भाँति अपने नीड़ की ओर ।
नहीं अब वह और नहीं सहेंगे ।मन में एक दृढ़ निश्चय आकार लेने लगा।कल ही वह पुत्र को अपने निर्णय से अवगत करा देंगे ।इस बेगाने देश में अब उन्हें कोई नहीं रोक सकेगा ।यदि कोई उन्हें रोकने का प्रयास करेगा तो वह खाना-पानी सब त्याग देंगे ।अपने निश्चय के साहस से उन्हें आत्म-संतोष का अनुभव हुआ ।
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आँखों के आगे अपने घर की स्मृतियों तैरने लगीं ……आँखें मुँदने लगी थी ।अर्ध निद्रा में स्वप्न से तैर आये थे ……वह बाज़ार से सब्ज़ी का थैला लिये चले आ रहे हैं ……दरवाज़े पर सविता खड़ी मुस्करा रही है ……दूरदर्शन पर कोई सीरियल चल रहा है …पलंग पर वह और सविता खाना खाते सीरियल देख रहे हैं …गमगीन दृश्य को देख सविता आंसू पोंछ रही है ……।सोते हुए उनकी आँखों की कोर से एक बूँद छलक पड़ती है ।
आज रविवार है ।प्रांत:के नौ बज रहे हैं,घर निस्तब्ध है ।वीक एन्ड का दूसरा दिन ।सब सोये हैं ।किंतु उपर के तल पर पौत्र जाग गया है क्योंकि उसे आज फुटबॉल मैच खेलने जाना है ।पौत्र के बग़ल वाले कमरे से कोई आवाज़ नहीं आ रही है ।पौत्र को आश्चर्य होता है क्योंकि दादा जी तो बहुत सबेरे उठ कर संध्या आदि करते हैं ।
पौत्र धीरे से दादा जी के कमरे का दरवाज़ा खोलता है ।दादा जी गहन निंद्रा में निश्चल लेटे हैं ।पौत्र दबे पाँव नज़दीक जाता है ।दादा जी की खुली आँखें जैसे शून्य की ओर ताक रही हैं ।पौत्र धीरे से उन्हें हिलाता है ।किंतु कोई प्रतिक्रिया नहीं ……ठंडा निश्छल शरीर …आकाश की ओर ताकतीं खुली आँखें …।पौत्र डर कर चीखता है …पापा मम्मी ऽऽ ।जल्दी से ऊपर आओ ……देखो दादा जी को क्या हो गया है ……………।
ख़ाली पिंजड़ा छोड़ प्रवासी पंछी उड़ चुका था …………
——समाप्त——
लेखक—नरेश वर्मा
(स्वरचित )