चैन की नींद – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

    ” लो बेला..पानी पी लो..आज तो लगता है..बहुत थक गई हो..।” बेला को पानी का गिलास थमाते हुए रामनाथ ने पूछा तो वो पानी पीते हुए नीचे बैठ गई और बोली,” हाँ भईया..आज हम महिलाओं को सीमेंट की बोरियाँ भी ढ़ोनी पड़ी थी..पर कोई बात नहीं..रूही और आपको

देखकर सारी थकान उतर गई..मैं अभी खाना परोसती हूँ।” कहकर उसने बाल्टी से पानी लेकर हाथ-मुँह धोया और खाना परोसने लगी।परोसते समय रामनाथ की नज़र उसके हाथों में पड़े छालों पर पड़ी तो उनकी आँख में आँसू आ गये..।वो सोचने लगे, किस्मत भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है..कल तक सब…।

         अपने माता-पिता की तीसरी संतान थी बेला।दसवीं कक्षा की परीक्षा दे रही थी,तभी एक हादसे में उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई।बड़े भाई शैलेश ने उसे संभाला और उसे आगे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया।इसी बीच उसके भाई ने शादी कर ली।घर में भाभी के आने से वो बहुत खुश थी।भाभी आरती भी उससे बहत स्नेह करती थी लेकिन दो-तीन महीने बाद ही उसके प्रति भाभी का व्यवहार बदलने लगा।

बात-बात पर आरती उसे झिड़क देती तो कभी पढ़ते समय उसे रसोई का काम थमा देती।इंटर की परीक्षा देने के बाद उसने आगे पढ़ना चाहा तो भाई ने मना कर दिया।वो समझ गई कि अब भाई उसका नहीं रहा।

     कुछ समय बाद शैलेश ने मयंक नाम के लड़के जो कि एक आयरन फ़ैक्ट्री में सुपरवाइज़र था, के साथ उसका विवाह करा दिया।मयंक की तनख्वाह इतनी थी कि उसका घर मज़े से चल जाता था।साल भर बाद वो एक बेटी की माँ भी बन गई।

    अपने भतीजे के जन्मदिन पर बेला अपने मायके आई हुई थी।उसने देखा कि भाभी सभी मेहमानों से तो हँस-हँसकर बात कर रही थी लेकिन उसके पति को नजरअंदाज कर रहीं हैं।हद तो तब हो गई जब उन्होंने नौकरों के हाथ उसके पति को खाना परोसवाया और उसके लाए उपहार का मज़ाक उड़ाया।वो एक स्वाभिमानी लड़की थी।

पति का अपमान उसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उसके बाद से उसने मायके जाना छोड़ दिया।अपने पति-बेटी के साथ वो अपने ससुराल में खुश थी।सास-जेठानी का भी उसे भरपूर प्यार मिल रहा था।

वो अपने पति के साथ बेटी रूही को लेकर सुनहरे सपने बुन रही थी कि अचानक एक हादसे में उसके पति की मृत्यु हो गई।जो सास-जेठानी उसे पलकों पर बैठाये रहते थें, उन्हीं की आँखों में अब वो खटकने लगी थी।उसे हर वक्त जताया जाता कि हम तुम्हें खाना देकर एहसान कर रहें हैं।

       एक रात बेला पानी पीने के लिए रसोई में जा रही थी कि अंदर से जेठानी की आवाज़ सुनकर वो रुक गई।” माँजी..ये दूध तो बिल्ली ने जूठा कर दिया है..इसका क्या करें….फेंकना है क्या..।”

   ” क्यों फेंकना है..बेला की बेटी है ना..उन दोनों से पीछा छूटे तो…।” इससे आगे उससे सुना नहीं गया।जिस मायके को वो छोड़ चुकी थी, अब वहीं जाना उसकी मजबूरी बन गई थी।अगले सुबह ही उसने अपने कपड़ों की गठरी उठाई और रूही को गोद में लेकर भाई के दरवाज़े पर पहुँच गई।

      भाभी ने सोचा कि बेला दो-चार दिनों में वापस चली जाएगी लेकिन जब पता चला कि वो यहाँ हमेशा के लिए रहने आई है तब उनके तेवर बदल गए।घर का काम उसे थमा कर भाभी दिनभर फ़ोन से चिपकी रहती।छोटी-छोटी गलती पर उसे डाँटना भाभी की आदत बन गई थी।इतना काम करने पर भी उसे बचा हुआ खाना ही मिलता था।

रूही तो दूध के लिये तरसकर रह जाती।भाई की चुप्पी से उसका मन बहुत आहत होता।सोचती कि दो वक्त की रोटी के लिये उसे कितना अपमान सहना पड़ रहा है।कई बार उसने घर की चौखट पार करने की कोशिश भी की लेकिन बाहर की दुनिया न जाने कैसी हो,यह सोचकर वो अपने कदम पीछे कर लेती।

     एक दिन शैलेश ऑफ़िस के लिये निकल रहा था तभी आरती बेला को सुनाकर बोली,” पहले माँ-बाप को खा गई..फिर पति को…और अब ये डायन न जाने..।” भाभी के शब्द बेला के हृदय में शूल की तरह चुभे।उसने कुछ नहीं सोचा और उसी समय अपनी बेटी को लेकर अनजान डगर पर निकल पड़ी।

     चलते-चलते वो थक कर एक जगह बैठ गई।रूही को प्यास लगी तो वो रोने लगी।पास ही रामनाथ जूते-चप्पल सिलने वाले की दुकान थी।उसने पूछ लिया,” बहन..बिटिया क्यों रही है?” रुआंसी होकर वो बोली,” इसे प्यास लग रही है भईया..आसपास के नल सूखे पड़े हैं और मंदिर के पट बंद हो चुके हैं तो..।” 

     ” इतनी- सी बात है।” कहते हुए उसने अपनी पानी की बोतल उसे दे दी,” बिटिया..जी भर के पानी पिओ..बहन, तुम भी पी लो..बहुत गरमी है।” 

       पानी पीते हुए बेला की नज़र दुकान के पास रखे दो डंडे पर पड़ी तो उसने पूछ लिया,” ये क्या है?” रामनाथ उन्हें छूता हुआ बोला,” बहन..ये मेरी टाँगें हैं।”

   ” टाँगें! क्या मतलब?” 

    ” एक हादसे में मेरी एक टाँग बेकार हो गई।पिता थे नहीं.. माँ जब तक थीं, मेरी देखभाल करती रहीं..।फिर भाई-भाभी के लिये मैं बोझ बन गया।एक बखत का खाना और मन भर की गालियाँ..वो सब हमसे सहन नहीं हुआ।बस, एक दिन इसी बैसाखी का सहारा लेकर हमने घर छोड़ दिया।राह में एक सज्जन का पर्स गिर गया था।

हमने देख लिया तो उन्हें पुकार कर दे दिया।बदले में उन्होंने पैसे देने चाहे तो हमने कहा कि भीख नहीं, हमें काम चाहिए।बस…ये दुकान उनकी ही दी हुई है।दिन-भर सबके जूते-चप्पलें ठीक करता हूँ।रात को अपनी खोली में जाकर चैन की नींद सो जाता हूँ।सच बताऊँ बहन..अपने# सम्मान की सूखी रोटी खाने में जो आनंद है

वो दूसरों के दिये पूड़ी-हलवे में नहीं है..हा-हा…लेकिन तुम कहाँ..।” कहते हुए रामनाथ ने रूही के सिर पर प्यार-से हाथ फेरा।अपनी व्यथा बताते हुए बेला रोने लगी,” पता नहीं..हम माँ-बेटी के भाग्य में…।”

   ” सब अच्छा होगा..।चलो मेरे साथ..।” प्रसन्न होकर रामनाथ ने अपनी दुकान बंद की और दोनों को अपनी खोली में ले गया,” आज से तुम यहीं रहोगी।कल से तुम अपने लिए काम तलाशना और रूही अपने मामा के साथ रहेगी।

       इस तरह से दो अनजान लोग भाई-बहन के पवित्र रिश्ते में बँध गये।रामनाथ रूही को अपने साथ दुकान ले जाता।वहाँ वो खेलने के साथ-साथ स्लेट पर लिखना -पढ़ना भी सीखती।बेला ने दो दिनों तक अपनी चप्पलें घिसी लेकिन उसे कोई काम नहीं मिला, तब वो आसपास की महिलाओं के साथ साइट पर जाने लगी जहाँ वो ईंट-कंकरीट ढ़ोने का काम करती।पहले दिन सिर पर ईंट ढ़ोने में उसे बहुत तकलीफ़ हुई लेकिन जब हाथ में मेहनत के रुपये आये तो वो फूली नहीं समाई।उसने भगवान को प्रसाद चढ़ाए और रामनाथ- रूही के लिए उपहार भी खरीदे।दस दिनों से मजदूरी करते-करते उसके हाथों में छाले और पैरों में दरारें पड़ गये थे।वही देखकर आज रामनाथ की आँखों में आँसू आ गए।

   ” क्या हुआ भईया..आप खा नहीं रहे..सब्जी बेस्वाद है या…।” बेला के टोकने पर रामनाथ की तंद्रा टूटी।अपने आँसू पोंछते हुए बोले,” नहीं..खाना बहुत स्वादिष्ट है लेकिन बेला..कल से तुम मजदूरी नहीं करोगी।” 

    ” मजदूरी नहीं…तो फिर क्या करूँगी।” बेला ने आश्चर्य-से पूछा।

   ” तुम…।” रामनाथ उसे समझाने लगा।

       अगले दिन बेला रामनाथ के साथ सब्जी मंडी गई और आलू-भिंडी, गोभी-टमाटर आदि सब्ज़ियों को खरीदकर एक टोकरी में रखी और अपने आसपास के इलाके में जाकर बेचने लगी।वह ज़ोर-ज़ोर से आलू-टमाटर-गोभी ले लो’ कहती तो कोई उसे बुलाता तो कोई अनसुना कर देता।फिर भी वो खुश थी कि एक शुरुआत तो हुई।बची हुई सब्ज़ियों को उसी दाम पर बेचकर वो घर लौटी और खाना खाकर सो गई।उस रात उसे चैन की नींद आई।अगले दिन वो रामनाथ से बोली,”भईया..मैं तो यही काम करूँगी।” 

       बेला रोज सवेरे मंडी जाकर ताज़ी सब्ज़ियाँ खरीदती और दो-तीन घंटे में सब बेचकर आ जाती।दो -तीन महीनों में उसकी अच्छी आमदनी होने लगी और उसे अनुभव भी हो गया।उसने एक ठेला ले लिया।अब वो ज्यादा सब्ज़ियाँ खरीदती।सुबह के समय फेरी लगाकर बेचती और शाम को बाजार में अपना ठेला लगा देती।रूही स्कूल जाने लगी।अच्छे अंकों से पास होती हुई वो एक-एक कक्षा आगे बढ़ती जा रही थी।इस तरह से बेला, रामनाथ और रूही दिन भर अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते और शाम को खाना खाते हुए बातें करके अपनी थकान उतारते।

        एक शाम बेला ग्राहकों को सब्ज़ियाँ दे रही थी तभी एक सहेली के साथ उसकी भाभी आ गई।आरती उसे देखकर सकपका गई लेकिन उसने मुस्कुरा कर उनसे भी वही कहा,” क्या लेंगी बहन जी..टमाटर-पालक या गोभी..।” आरती की सहेली ने पालक खरीदे।कुछ देर बाद आरती फिर से आई और दाँत पीसते हुए बेला से बोली,” सब्ज़ियाँ बेचकर कितना कमा लोगी..ये सब छोड़ो..घर चलो और आराम से…।” तब बेला बोली,” भाभी..मैंने # सम्मान की सूखी रोटी का स्वाद चख लिया है। मुझे अब न तो आपकी पूरियों में कोई स्वाद आयेगा और ना ही आपके नरम गद्दे पर नींद आयेगी..।” सुनकर आरती तिलमिला गई थी।

     देखते-देखते रूही ने दसवीं की परीक्षा पास कर ली।बारहवीं की परीक्षा में 99.4 प्रतिशत अंक प्राप्त करके वो पूरे शहर में अव्वल आई।समाचार-पत्रों में उसकी तस्वीरें छपीं जिस पर लिखा था, सब्ज़ी बेचने वाली माँ की बेटी बनी टाॅपर ‘।कई पत्रिकाओं में उसके इंटरव्यू भी छपे जिन्हें देखकर बेला और रामनाथ की आँखें खुशी-से भर आईं थीं।

       मुश्किलें आईं लेकिन रूही अपनी पढ़ाई करती रही। डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी करके वो एक सरकारी अस्पताल में मरीज़ों का इलाज़ करने लगी।जिनके पास दवा के पैसे नहीं होते, उन्हें वो दवा देती और अपनी तरफ़ से फल खरीदने के लिए पैसे भी देती।सभी उसके काम और व्यवहार की मुक्त-कंठ से प्रशंसा करते।

       रामनाथ की उम्र हो रही थी, वो अस्वस्थ रहने लगे, तब रूही ने डाँट कर कहा,” मामा..अब आप दुकान पर गये तो मैं आपसे कभी बात नहीं करूँगी..।” बस उसी दिन उन्होंने दुकान पर किसी को बैठा दिया ताकि काम चलता रहे और खुद घर पर आराम करने लगे।

     अपनी उम्र को देखते हुए बेला ने भी काम कम कर दिया था।अब वो ठेला लेकर बाजार तो जाती है लेकिन अंधेरा होने से पहले ही घर वापस आ जाती है।रूही मना करती है तो हँसकर कहती,” बेटी..काम करना तो मेरी पूजा है..मैं पूजा करना कैसे छोड़ दूँ..।” रूही निरुत्तर हो जाती।

                                              विभा गुप्ता 

# सम्मान की सूखी रोटी        स्वरचित, बैंगलुरु

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