‘संदीप’, हाँ !, यही तो नाम था उनका, अजीब -आदमी थे। हमेशा पढ़ाई की धुन चढ़ी रहती थी।
अपने बच्चे को कभी खेलने भी नहीं देते थे।
यदि कभी कोई कुछ कहता भी तो कहते…..”प्राइवेट- कम्पनियों में हमेशा कर्मचारियों का शोषण ही होता आया है।
जितनी तन्ख्वाह देते हैं, उससे कहीं ज्यादा व्यक्ति का खून चूस लेते हैं।
बिना चूसे तो उनकी तिजोरी भर ही नहीं सकती। लोग भी पेट के आगे मजबूर होकर खून चुसवाने आ जाते हैं।
उनमें से एक मैं भी हूँ, तभी तो मैं यह चाहता हूँ, “मेरा बेटा खूब पढ़ाई करके, कोई उच्च -पद प्राप्त कर ले।”
इसी धुन में,बेटे को न खेलने देते और न कहीं आने- जाने देते।
पत्नी ने उनको बहुत समझाया लेकिन उनका एक ही जवाब होता।
“पढ़ाई जरूरी है और कुछ नहीं।”
आज स्वास्थ्य नरम होने के कारण संदीप जी अवकाश लेकर घर आ गए। आते ही बेटे को आवाज लगाई…..
“प्रांजल!..”
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“वो घर पर नहीं है।” डरते हुए पत्नी ने बताया।
“तो कहाँ पर है?”
“खेलने गया है।”
“मेरे मना करने के बावजूद भी, उसको खेलने क्यों भेजा?”
“उसका बहुत मन कर रहा था तो मैं रोक नहीं पाई, वैसे खेल में भी तो केरियर बनाया जा सकता है?
“अपनी राय अपने पास रखो, आजकल ये भी राजनीति की गिरफ्त में है। दुबारा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए।” कहकर संदीप जी दनदनाते हुए बाहर निकल गए।
प्रांजल को ढूँढ़ लाए।
“जाओ पढ़ाई करो और आज के बाद खेलने नहीं जाओगे।”
“लेकिन पापा! मेरा खेलने का बहुत मन होता है।”
“बेटा! खेलने से ज्यादा जरूरी पढ़ाई है, जाओ पढ़ाई करो।”
कहकर संदीप अतीत के समंदर में गोते लगाने लगा।
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‘पापा के पास अथाह- दौलत थी, क्योंकि उनका व्यापार कई शहरों में फैला हुआ था। तब बहुत मजे थे, खूब खेला करते थे दोस्तों के साथ, पापा कभी पढ़ाई की कहते भी तो मम्मी कहती ” इसे कौन सी नौकरी करनी है? व्यापार सँभालना है, सो इतनी पढ़ाई तो कर लेगा। बच्चे के खेलने-कूदने के दिन है, नाहक टोका-टाकी मत किया कीजिए।” फिर क्या था अपनी तो वल्ले-वल्ले। लेकिन कुछ सालों बाद ही अचानक न जाने क्या हुआ कि पापा को व्यापार में घाटा होने लगा और एक- दिन फैक्ट्री बन्द हो गई। सदमे से पापा का स्वर्गवास हो गया। मैंने बी-कॉम तक ही पढ़ाई की थी, सो क्लर्क की नौकरी ही मिल पाई, तब मुझे पढ़ाई का महत्त्व समझ आया इसीलिए मेरी एक ही चाहत है मेरा बेटा पढ़ाई कर, बड़ा अधिकारी बनें।
प्रांजल, अपने कमरे में जाकर फूट- फूटकर रोने लगा…..
“क्या हुआ, बेटा?” रीना ममता – भरे स्वर में बोली।
“कुछ नहीं , आप जाइए, मुझे किसी से बात नहीं करनी है।”
“आपके पापा तो आपके अच्छे भविष्य के लिए ही…..।”
“बस! बस! बहुत हो गया। आप कहना चाहती हैं कि मेरे दोस्तों के पापा को, उनके भविष्य की चिंता ही नहीं है।”
“अरे! मैंने ऐसा कब कहा?”
“तो कह दीजिए।”
“देखो प्रांजल! आपके सब दोस्त व्यापारियों के बेटे हैं। वो थोड़ा कम भी पढ़ लेंगे तो, इतना फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि वह अपना व्यापार सँभाल लेंगे। लेकिन आपको तो पढ़कर कुछ बनना है।
चलो अब खाने का समय हो गया ।”
“मुझे भूख नहीं, आप खा लिजिए।”
“ठीक है, बेटा! जब तक आप नहीं खाओगे, मैं भी नहीं खाऊँगी।”
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अपने पापा की हिटलरशाही व अपनी इछाओं में जकड़ा प्रांजल उस रात, भूखा ही सो गया।
जब बेटे की हालत रीना से देखी नहीं गई तो…..।
“संदीप! आप यह गलत कर रहे हो। किशोरावस्था में बच्चे को गुमराह होते एक- क्षण लगता है, उसमें आक्रोश भर रहा है, कुछ कर न बैठे?
बच्चे को न खेलने देते हो और न कहीं आने- जाने देते हो। उसको अकेलेपन की आदत हो जाएगी। रिश्तों की व अपनेपन की समझ कैसे आएगी? उसको किताबी- कीड़ा मत बनाइये।”
संदीप जी रीना की बात सुनकर फट पड़े…..।
“सब ठीक हो जाएगा,उसको कुछ नहीं होगा। तुम उसकी माँ हो, कमजोर मत पड़ो, उसको समय व पढ़ाई का महत्त्व समझाओ। अब वह कॉलेज में आ गया है बच्चा था तब खेलता ही था। मैं कौनसा रोकता था।
यह युग “आर्थिक युग” है। मैं नहीं चाहता मेरा बेटा भी, मेरी तरह ठोकरें खाए। रही रिश्तों की बात, पैसा हो तो सारे रिश्तेदार मधुमक्खियों की तरह भिनभिनाने लगेंगे।”
उस रात रीना विचारों के झंझावत से बाहर नहीं निकल पाई।
संदीप जी की आँखों से भी नींद कोसों दूर रही। सोचते ही रहे कि “आखिर मैं गलत कहाँ हूँ? क्या अपनी औलाद का हित चाहना भी गलत है?”
दूसरे दिन किसी से भी बिना कुछ बोले संदीप अपने काम पर व प्रांजल कॉलेज चला जाता है।
लेकिन वहाँ भी उसका मन नहीं लगता, क्योंकि उसका दोस्त ‘निखिल’ आज कॉलेज नहीं आया।
प्रांजल ने मालूम किया तो पता लगा कि उसके चाचा का स्वर्गवास हो गया है। तब वह निखिल के घर जाता है।
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” निखिल! यह सब कैसे हो गया?”
” उधार की रकम से व्यापार चालू किया था, उसमें घाटा हो गया था। कर्जा चुकाने की हालत नहीं थी, किसी को बताया भी नहीं और आत्महत्या……।”
कहकर निखिल रोने लगा।
“अरे! मरना तो कोई समाधान नहीं है,कहीं नौकरी ही कर लेते।”
“वो मेट्रिक तक ही पढ़े हुए थे , शायद इसलिए मुश्किल रही होगी। इससे ज्यादा जानकारी मुझे नहीं हैं।”
इधर संदीप का उतरा चेहरा देख कर , उसका सहकर्मी जो अच्छा दोस्त भी है, ने पूछ लिया ” संदीप! तबियत नासाज़ है क्या?”
“नहीं ,यार!”
“कुछ तो गड़बड़ है, कह दे तो कुछ समाधान हो पाए।”
यार! पूरी रात सो नहीं पाया, ये आजकल के बच्चों को माता-पिता की भावनाओं की कद्र ही नहीं है। मैं पढ़ाई की कहता हूँ, उसको खेलने की पड़ी है।”
“तो क्या बिल्कुल नहीं खेलने देता क्या?”
“नहीं”
यही तो गलती कर रहा, देख! शारीरिक विकास व माइंड- रिलेक्स होने के लिए कुछ देर खेलना भी आवश्यक है।”
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मेरा बेटा मेरी तरह ठोकरें नहीं खाए , एक ऊँचा मुकाम हासिल कर ले इसलिए इतनी सख्ती कर दी। शायद में गलत था। खैर जो हुआ सो हुआ अब थोड़ी छूट दे दूँगा।”
आफिस से आते ही संदीप जी रीना से मुखातिब होकर बोले “तुम चाहती थी ना कि प्रांजल को खेलने भी दिया जाए। मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ, कल से एक घण्टा उसके खेलने के लिए निश्चित कर देना। अब खुश हो जाओ।
जब शाम को प्रांजल घर आया तो …..,
अपनी मम्मी की सूजी हुई आँखों को देखकर…..
“मम्मा! आपकी तबियत ठीक तो है?” प्रांजल चिंतित-स्वर में बोला।
“ठीक है।”
“लेकिन आपकी आँखें बता रही है, आप बहुत रोई हैं। मैं बहुत- बुरा हूँ, मम्मा!”
अरे! नहीं मेरा बच्चा तो बहुत- प्यारा व समझदार है।”
“आप चिंता मत करिए, मैं अब वैसा ही करूँगा जैसा आप कहेंगी। कभी शिकायत का मौका नहीं दूँगा।” कहकर प्रांजल अपनी माँ से लिपट गया।
” एक खुशखबरी है, आपके पापा ने भी आपको एक घण्टा खेलने की छूट दे दी है।”
“अच्छा! मैं पापा के कमरे में जाकर आता हूँ।”
“पापा! आप ग्रेट हो, जैसा आप कहेंगे मैं वैसा ही करूँगा।” कहकर प्रांजल पापा के चरणों में झुक गया।
✍स्व रचित व मौलिक
शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’
भीलवाड़ा राज.