चाँद – विजया डालमिया : Moral Stories in Hindi

“सरला…. चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ”। माँजी बाहर से कहे जा रही थी। पर मेरा मन बिल्कुल भी नहीं था ।इसीलिए मैं सुना अनसुना कर रही थी। अनमनी और अनियंत्रित भावनाओं को रोकने के लिए अपने आप से काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। बावजूद इसके वे थमती नहीं।

सरला एक सुलझी और समझदार लड़की थी। उस पर उसकी खूबसूरती और सादगी से भरी बातें किसी का भी दिल जीत लेती थी। हर कोई उससे बात करना चाहता था ।फिर भी आज वो खुद से रूठी हुई थी।….” मैं क्यों रुठी  हूँ अपने आप से”? यह सवाल वह कई बार अपने आप से कर चुकी थी।

पर जवाब में बस छलकते हुए  आँसू और खामोशी। मुझे याद आया जब पिछली बार मैं  प्रतिभा की गोद भराई के फंक्शन में गयी थी,तब कितने चाव से तैयार होकर और आगे बढ़ बढ़ कर काम कर रही थी ।तभी मेरे पाँव में मानो ब्रेक सा आ गया जब मैंने  किसी को यह कहते हुए सुना कि ….”पाँच  साल होने को आए शादी को।

अभी तक गोद खाली है”। सुनकर मुझे बेहद खराब लगा ।पर मैंने जाहिर नहीं होने दिया ।मैं उसी तरह से प्रतिभा के साथ साथ हँसती रही ।माँजी के बार बार कहने पर मैं तैयार हो  गई पड़ोस में जाने के लिए । फिर जब प्रतिभा की गोद में नन्हा मुन्ना आया तो सबसे ज्यादा खुश भी मैं ही थी ।मेरी सहेली अब माँ बन चुकी थी और मैं मासी।

दो दिन बाद जब प्रतिभा हॉस्पिटल से आई तब मैं दौड़ते हुए उसके घर जा पहुँची।  मैंने तो अपनी तरफ से बेबी का नाम भी सोच लिया था…. “चाँद …हाँ उसे मैं चाँद ही कहूँगी। मैं बार-बार गुनगुना भी रही थी….” तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी”। जैसे ही मैं वहाँ पहुँची  प्रतिभा की सास ने  मुझे रोक दिया…. कहा…” कहाँ जा रही हो?

रुको। अभी तो आए हैं बच्चे को लेकर “।.”…पर… काकी मुझे मिलना है “।लेकिन उन्होंने मुझे घूर कर देखा तो मैं सकपका गयी ।मैं  वहीं सोफे पर बैठ गयी ।हर दो मिनट में मेरी निगाह प्रतिभा की कमरे की तरफ उठ रही थी। तभी उसकी भाभी ने मुझे इशारा किया व हम प्रतिभा के कमरे की ओर बढ़ चले।

मैंने जैसे ही नन्हे को देखा मेरी ममता उमड़  आई मैंने” मेरे चाँद “कह कर उसे सीने से लगा लिया। इतने में ही उसकी सास आयी व मेरे हाथ से बच्चे को लेकर कहा…” बस ।अब सब बाहर बैठो”। मैं आँखों में मायूसी लिए बाहर आ गयी ।तभी मैंने जो सुना उससे मुझे बेहद धक्का पहुँचा । प्रतिभा की सास भाभी को डांट रही थी

यह कहते हुए कि” तुझे जरा भी अक्ल नहीं है, जो उसकी गोद में बच्चा दे दिया। जानती नहीं कि वह बाँझ है”। …”बाँझ” यह शब्द मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गया ।मैं रोती हुई अपने घर चली आयी।शाम को सुधांशु ने मेरा चेहरा देखकर जब मुझसे पूछा तो “कुछ नहीं ” कहकर मैं  करवट बदल कर सोने की निरर्थक कोशिश करने लगी।

पर नींद मेरी आंखों से कोसों दूर थी। बाँझ…. और मैं ?मेरा अतीत मेरे सामने आ खड़ा हुआ जहाँ मेरी एक गलती ने मुझे घर वालों की नजर से गिरा दिया ।प्यार करना गुनाह था ओर ये मुझसे हुआ। प्यार में दो लोग मिलते हैं। जुड़ते हैं और कभी-कभी अंतरंग पलों में कमजोर भी पड़ जाते हैं ,जिसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ लड़की को ही भुगतना पड़ता है।

भगवान ने लड़की को बनाते वक्त उसकी रचना ही ऐसी की है कि वह अपनी भूल चाहे तो भी छुपा नहीं सकती। मेरी एक गलती ने मेरा  और मेरे परिवार का सर झुका दिया ।कसूरवार तो थी ही मैं ।खामोशी से जो घरवालों ने कहा वह  सब मैंने माना और फिर कभी पलटकर उस रास्ते नहीं गयी ।

बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी मैंने उन  लम्हों की।शादी के बाद मैंने अपना हर फर्ज बहुत ईमानदारी से व समर्पित भाव से बखूबी निभाया था ।सुधांशु  व उसके घर वालों ने हमेशा मुझे पलकों पर बैठा कर रखा था । धीरे धीरे मैं सब कुछ भूल गयी ।पर आज अचानक शांत झील में जैसे किसी ने कंकर मार कर हलचल मचा दी ।

मेरा सारा दर्द आँसू बनकर बहने लगा। रोते-रोते ना जाने कब मेरी आँख लग गई। सुबह जब मैं उठने लगी तो मुझसे उठा ही नहीं गया। सुधांशु ने कहा ….”लेटी रहो। तुम्हें तेज बुखार है ।सारी रात तुम कुछ बुदबुदा रही थी”। मैंने डरते हुए पूछा… “क्या”? उसने कहा…” मैं समझ नहीं पाया”। मैंने राहत की साँस ली।

उसने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा…” मैं तुम्हारे लिए नाश्ता लाता हूँ ।थोड़ा खा कर दवा ले लो। अच्छा फील करोगी “।मैंने मासूमियत से सर हिला दिया ।इस बात को आज एक महीने हो गए। अभी भी मेरी तबीयत दिन-ब-दिन बिगड़ती ही जा रही थी। सुधांशु व माँजी बहुत चिंतित हो रहे थे।

पर ना जाने मुझे क्या हो गया था ।मैं शून्य  में देखते रहती। सुधान्शु पहले से भी ज्यादा मेरा ध्यान रखने लगा।माँजी भी हर पल मेरे पास बैठे रहती, भगवान का जाप करते हुए। पंचामृत बार बार  पिलाते रहती।मैं किसी कठपुतली की तरह सब करती जा रही थी। आज सुधांशु मुझसे कहने लगे कि…

” मैं दो दिन के लिए ऑफिस के काम से बाहर जा रहा हूँ ।माँजी अकेली है। तुम ध्यान रखोगी ना उनका”? मैंने मासूमियत से सर हिला दिया। सुधांशु ने भीगी आँखों से मुझे देखा और मेरे माथे पर प्यार भरा स्पर्श देकर…” टेक केयर”। बोल कर चला गया। तीसरे दिन मैं बालकनी में बैठी थी। माँजी मेरे बालों में कंघी कर रही थी ।

तभी एक कार आकर रुकी ।उसमें से सुधांशु उतरा और पीछे पीछे ही एक छह  साल का खूबसूरत बच्चा उसके साथ साथ चल रहा था ।मेरे मन में अजीब सी उथल-पुथल होने लगी। तभी सुधांशु उसे लेकर आया व कहने लगा…” देखो… हमारा चाँद  कितना खूबसूरत। कितना प्यारा है” । माँजी आगे बढ़ कर आरती की थाली ले आई

और उसे तिलक कर आरती उतारने लगी। मैं सब कुछ खामोशी से देखते जा रही थी ।तभी वह बच्चा मेरे पास आकर बोला…..” माँ “….” माँ” यह शब्द सुनते ही मैं फूट-फूट कर रो पड़ी और उसे….” चाँद मेरे चाँद” कह कर अपने कलेजे से लगा लिया। माँजी और सुधांशु अपने आँसू पोंछने लगे। अब मैं लोगों की नजर में बाँझ नहीं थी ।मैं आधुनिक युग की वह कुंती थी जिसे उसका कर्ण मिल गया था।

नई सुबह की नई किरणें रोशन हो गई मन आँगन में

होठों पर मुस्कान बन कलियाँ खिल गई जीवन के मधुबन  में।

खुशियों के फूल महक उठे दिल के इस उपवन में।

नए पलों की नई महक महसूस हुई सूने जीवन में।

विजया डालमिया

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!