बुढ़ापा -डाॅक्टर संजु झा : Moral Stories in Hindi

मनुष्य जिन्दगी के तीन पहर तो आसानी से काट लेता है,परन्तु चौथा पहर काटना उसके लिए कठिन हो जाता है।बुढ़ापे में स्वास्थ्य भी गिरने लगता है,उसपर से अगर हमसफ़र का साथ छूट जाएँ तो जिन्दगी ‘कोढ़ में खाज’ के समान लगने लगती है।बुढ़ापे में ऊषा जी को अपना वतन बहुत याद आता है।यहाँ अमेरिका में सारी सुख-सुविधाएँ हैं,परन्तु पारिवारिक और सामाजिक अपनत्व के एहसास से इन दिनों  मन बिल्कुल खाली-खाली सा लगने लगा है।वक्त का कोई भरोसा नहीं है।वह ऊँट की भाँति कब किस करवट बैठ जाएगा,कुछ पता नहीं!

ऊषाजी के मन में यादों की गट्ठरी ऊथल-पुथल मचाएँ रहती है।कभी कितने अरमानों से पति-पत्नी ने भारत में अपने सपनों का महल बनवाया था!उस घर में सास-ससुर का प्यार और आशीर्वाद था।बेटा-बेटी की मासूम किलकारियों से जीवन सुवासित था।उस घर में पति की मेहनत और कर्मठता की खुशबू आती थी।ऊषा जी अपने सपनों का  घर सजाने-सँवारने में कोई कोर-कसर नहीं रखतीं थीं।अपनी छोटी-मोटी आवश्यकताओं को दरकिनार कर घर का कोना-कोना सजाने में व्यस्त रहतीं।उनकी इस आदत से कभी-कभी पति परेशान होकर कहते -“ऊषा!घर में जरुरत से ज्यादा पैसे लगाने का क्या फायदा?बुढ़ापे में हमें कहाँ रहना पड़े,कोई नहीं जानता!”

कुछ दिन तो ऊषा जी पति की बात मानकर चुप हो जातीं,फिर अपने छिपाएँ हुए पैसों से अपने शौक के अनुसार घर सजातीं।

वक्त तो चलायमान है,वह कब किसके लिए रुका है!समय के साथ  सास-ससुर का देहावसान हो गया।बच्चे भी बड़े हो रहें थे।ऊषा जी अकेलेपन से घबड़ाने लगीं थीं।उन्हें अकेलेपन से डर लगता था।उन्होंने पति के खिलाफ जाकर घर का ऊपरी मंजिल किराए पर दे दिया।अब किराएदार के रहने से घर में चहल-पहल बनी रहती थी और ऊषा जी का मन भी उनके साथ लगा रहता था।उनके पति अच्छी सरकारी नौकरी में थे,इस कारण साल में एक बार देश या विदेश घूमने का प्रोग्राम बन ही जाता था।

ऊषा जी को आज भी याद है कि जब उनलोगों का पहली बार  विदेश यात्रा में अमेरिका जाने का प्रोग्राम बना था।बच्चों के साथ-साथ वह खुद भी काफी रोमांचित थीं। बच्चों के साथ-साथ खुद अमेरिका से खरीदनेवाले सामानों की लिस्ट  बना रहीं थीं।उनके पति  ने चुटकी लेते हुए कहा था -“ऊषा!सामान के साथ-साथ अमेरिका से एक गोरी मेम भी लेते आऐंगे!”

ऊषा जी ने तिरछी नजर से देखकर मानो पति को आगाह कर दिया हो!

उन्हें हवाई  यात्रा और विदेश यात्रा  की कल्पना शुरु  से  ही रोमांचित करती।हवाई  जहाज  में खिड़कियों के बाहर तैरते हुए  रुई के गोले के समान उड़ते हुए  बादल  उन्हें सपनों की दुनियाँ प्रतीत होते।

पहली बार  अमेरिकी दौरे पर जाने पर  उन्हें स्टैचू ऑफ लिबर्टी की मूर्ति देखकर उसके इतिहास जानने की उत्सुकता थी,तो टाइम्स स्क्वायर, एम्पायर  स्टेट,सेंट्रल पार्क का दर्शन कर अभिभूत हो उठी थीं।वहाँ के रहन-सहन, संस्कृति के बारे में काफी उत्सुकता से जानकारी ली थीं

प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की तस्वीरों से उनका घर सजा हुआ रहता। उनकी जिन्दगी रोमांच और खुशियों से भरपूर थी।पति और बच्चों के प्यार  से उनका जीवन गमक रहा था।संयोग से  किराएदार भी अच्छे मिल गए थे,जिसके कारण कहीं घूमने-फिरने में दिक्कत नहीं होती।

वक्त पंख लगाकर उड़ चला।बेटा पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया चला गया।पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं की लड़की से शादी कर वहीं नौकरी करने लगा।बेटी भी शादी के बाद  अमेरिका चली गई। ऊषा दम्पत्ति कभी ऑस्ट्रेलिया तो कभी अमेरिका घूमने चले जाते।कभी उन्हें ऑस्ट्रेलियन संस्कृति आकर्षित करती,तो कभी अमेरिकन संस्कृति विस्मृत करती।परन्तु भारतीय संस्कृति उनकी आत्मा में समाहित थी,इस कारण घूमकर लौट आने पर पति से कहतीं -“भले ही दुनियाँ में कहीं भी घूम लें,परन्तु अपने देश की संस्कृति और खान-पान की बात ही कुछ और है!”

उनकी बात से सहमत होते हुए उनके पति कहते -” ऊषा!तुम्हारी बात बिल्कुल सही है।न जाने नई पौध को विदेश ही क्यों रास आता है?उनमें विदेश के प्रति इतनी ललक क्यों बढ़ती जा रही है?एक ही झटके में नई पीढ़ी अपना घर-परिवार, माता-पिता और देश को निर्दयी की तरह छोड़कर परदेश में बसने का निर्णय कैसे ले लेती है?दूसरे देश में अपने भविष्य की नींव रखने कैसे चली जाती है?हमारा तो मन परदेश में एक-दो महीने में ही ऊबने लगता है!”

ऊषा जी पति से कहतीं हैं-” हाँ!जी,आपकी बात बिल्कुल सही है!”

ऊषा दम्पत्ति अपने बच्चों की खुशनुमा यादों के सहारे अपनी जिन्दगी  व्यतीत कर रहें थे।परन्तु ‘सबै दिन रहत न एक समान’ वाली कहावत  चरितार्थ हो गई। अनहोनी को कौन टाल सकता है?एक दिन ऊषा जी के पति रात में ऐसा सोएँ कि सुबह का सूर्योदय उन्होंने नहीं देखा।हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गई। पिता की मौत की खबर सुनकर  बेटा ऑस्ट्रेलिया से अकेले आया।ऑस्ट्रेलियन बहू ने आने की जरूरत  नहीं समझी।बेटा भी पिता का क्रिया-कर्म कर वापस चला गया।जाते समय बेटे ने एक बार भी नहीं पूछा कि माँ आप अकेली कैसे रहेंगी?

ऊषा जी ने ही कहा था -” बेटा!तुम्हारे पिता के  जाने के बाद तो मैं बिल्कुल अकेली हो गईं हूँ!”

जबाव में बेटे ने कहा था -“माँ!आप अकेली कहाँ हो?किराएदार तथा और परिवार के लोग तो हैं न!विदेश में रहना बहुत खर्चीला है!”

इतना अवश्य हुआ था कि  बेटी ने कहा -” माँ!आप अकेली कैसे रहेंगी?आप मेरे साथ  अमेरिका चलिए।”

अकेलेपन की कल्पना से घबड़ाकर ऊषा जी ने सोचा -“ठीक है!बेटी के साथ चली जाती हूँ।वहाँ बच्चों के साथ  मन लगा रहेगा।”

बेटी के साथ  अमेरिका जाने के कुछ समय तक तो अच्छा लगा।बेटी के बच्चों साथ अकेलापन नहीं खलता था,परन्तु अपना वतन और समाज  बहुत  याद  आता था। दो साल बाद बेटी के साथ  वतन वापसी हुई।अब ऊषा जी अमेरिका नहीं जाना चाहती थीं।अपने घर में रहकर अपने वतन की खुशबू को महसूस करना चाहती थीं,परन्तु बेटी ने बिना पूछे ही उनकी भी वापसी की टिकट करा ली थी।अब न तो ऊषा जी को हवाई यात्रा रोमांचित करती थी,न ही बीस-बाइस घंटे का अमेरिका का सफर सुकून देता था।परन्तु मजबूरी में दूसरी बार  अमेरिका आना ही पड़ा।

अब ऊषा जी पूर्णतः समझ चुकी थीं कि ‘स्वारथ लागि करहिं

 सब प्रीति।’

बेटी को छोटे बच्चों की देखभाल के लिए  माँ से बेहतर और कौन -सी आया मुफ्त में मिल सकती थी?बच्चों को बाहर रखने में खर्चा भी काफी होता।उनके रहने से बेटी-दामाद बेफिक्र होकर नौकरी करते और आराम से कभी भी कहीं भी उनपर बच्चे छोड़कर घूमने चले जाते।वे तो बस बच्चों की आया भर बनकर रह गईं थीं।

दूसरी ओर ऊषा जी की बहू तो ऑस्ट्रेलियन थी,परन्तु परन्तु बेटे का भी माँ  के प्रति भावनात्मक लगाव खत्म -सा हो चुका था।कभी-कभार बातें करने पर बेटा एक ही रट लगाएँ हुए कहता -” माँ!घर को बंद रखने से क्या फायदा?उसे बेचकर हमें पैसे दे दीजिए। “

एक दिन ऊषा जी  ने दिल मजबूत कर बेटे से कहा -” बेटा!तुमलोगों के रहते हुए बुढ़ापे में मैं बस बच्चों की आया भर बनकर रह गईं हूँ।भले ही अभी घर बंद पड़ा है,परन्तु उसे मैं अपने जीते -जी नहीं बेचूँगी।उस घर में मेरे पति और बच्चों की यादें बसी हुईं हैं।अगली बार मैं विदेश नहीं आऊँगी।अपने घर और  अपने वतन में ही आखिरी साँसें लूँगी!”

 शनैः-शनैः ऊषा जी को अपनी बेटी और दामाद में स्वार्थपरता पूर्णरूपेण दिखने लगीं,परन्तु खामोश ही रहतीं।सचमुच औरतें सहनशील होती हैं,वे रिश्तों के खालीपन और खोखलेपन को अपने अंदर समाहित कर लेती हैं।किसी से कुछ नहीं बतातीं।अपने दिल की पीड़ा दिल के अंदर ही रख लेती हैं।जीवन की सांध्यवेला में ऊषाजी अपनी जड़ से उखड़कर छटपटाने लगीं थीं।

अमेरिका  में हर ओर गजब का उत्साह और उमंग दिखता है।मनोरंजन, फैशन और नई टेक्नोलॉजी के रुप में यह देश नई पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित करता है ,परन्तु ऊषा जी को अब ये सब चीजें  नहीं लुभाती थीं।अब तो बेटी-दामाद के जोर देने पर भी कहीं घूमने जाने से मना कर देतीं ।यहाँ का ठंढ़ का मौसम उन्हें अत्यधिक कष्टदायक लगता है।ठंढ़ के मौसम में गहराती शाम के साथ आसमान भी काला होने लगता।शिकागो शहर ठंढ़ के मौसम में मानो सिकुड़ने लगता है।जल्द ही दिन सिमट जाता है और अंधकार छाने लगता है।बेटी-दामाद  बच्चों के साथ घूमने गए हैं।ऊषा जी  शीशे की खिड़कियों से  बाहर  बिछी हुई बर्फ की चारों को अपलक निहारा करतीं।इस मौसम में मिशिगन झील का पानी भी सफेद हिम में परिवर्तित हो जाता।ये दृश्य अब उनके लिए  मन लुभावन न होकर हड्डियों के कँपकपानेवाले रह गए हैं।बुढ़ापे के साथ उनके घुटने में दर्द रहने लगा है।बेटी ने उन्हें डाॅक्टर से दिखलाकर दवाईयाँ तो दिलवा दी है,परन्तु ऐसे समय में उन्हें  अपने घर में जाड़े के मौसम में धूप सेंकने की बहुत याद आती है।उन्हें ऐसे मौसम में  अपने घर के बाहर धूप सेंकते हुए पास -पड़ोस की बहुत याद आती।वहाँ तो धूप सेंकते हुए भी ढ़ेर सारी बातें हो जाया करतीं थीं।तीज-त्यौहारों में  एक-दूसरे के घर के पकवानों की सौंधी खुशबू दिल को मोह लेती थीं। पर्व-त्योहार के बहाने आपसी प्यार भी मजबूत होता था। कब कौन -सा त्यौहार आता है,यहाँ कुछ भी पता नहीं चलता है!  निर्जला  एकादशी,माघी पूर्णिमा,सरस्वती पूजा आदि कब आते हैं,कब जाते हैं कुछ पता ही नहीं चलता।हाँ!कुछ बड़े त्योहार  यहाँ जरुर  भारतीय  मनाते हैं,परन्तु उनमें भारतीयता कम विदेशी  झलक अधिक  रहती है। यहाँ किसी को किसी से बात करने की फुर्सत नहीं है,बस सब हाय!हैलो कहकर मुस्कराकर चल देते हैं।

इन दिनों ऊषा जी का मन बार-बार अपना देश,अपना घर और अपने घर की गलियों में भटकने लगता है।सच है कि छोटे-छोटे पौधों को तो आसानी से एक जगह से दूसरी जगह लगाया जा सकता है,परन्तु बड़े पौधों को अचानक से पराई जमीन  में रोपने से वे मुरझाने लगते हैं।यही हाल ऊषा जी का भी होने लगा है।अब हर पल ऊषाजी का मन अतीत की यादों में गोते लगाने लगता।उन्हें  कभी अपने शहर का गंगा घाट और गंगा घाट की सुमधुर कर्णप्रिय आरती की याद आती,तो कभी माघी पूर्णिमा पर गंगा की भीड़ का स्नान करते हुए हर-हर गंगे की ध्वनि रोमांचित करती।अपने घर में तुलसी में सूर्य को जल अर्पित करने का दृश्य याद आकर आँखों के कोर को भिंगो जाता।मोहल्ले की सहेलियाँ और कीर्तन भजन सब उनके लिए स्वप्न के समान लगता।ऊषा जी अपने देश की छोटी-छोटी खुशियों को अपनी हथेलियों में समेटकर फिर से अपने देश में जीना चाहती थीं।बेबस -सा उनका मन सोचता है-” ये कैसी हवा चल पड़ी है कि बच्चे वयस्क होते ही अपनी डगर पर चले जाते हैं।जैसे चिड़ियाँ के बच्चे जन्म के कुछ समय बाद ही अपने जन्मदाता से दूर चले जाते हैं,फिर वापस लौटकर अपने घोसले में नहीं आते,उसी प्रकार आजकल के बच्चे हो गए हैं।

ऊषाजी जितना ही अपने वतन को भूलने की कोशिश करती,उतना ही याद आकर वहाँ की स्मृतियाँ उन्हें कुरेदने लगती हैं।बुढ़ापा,उदासीकी चुभन और वतन की यादें उनके मन-मस्तिष्क को झिंझोडकर रख देती।उन्होंने एक-दो बार हिम्मत कर बेटी से कहा -“बेटी!अब मुझे अपने वतन और घर सदा के लिए जाना है!”

परन्तु बेटी ने प्रत्युत्तर में कहा -” माँ!अब वहाँ क्या बचा है?बुढ़ापे में अकेले रहना मुश्किल होता है,फिर यहाँ आपको किस चीज की कमी है?”

बेटी की बातें सुनकर उनके मन का गुब्बार आँखों के रास्ते छलक पड़ा।कैसे वह बेटी को समझाएँ कि अपने वतन,अपने घर में उनके जीवन भर की यादों की पोटली संचित है!अपने देश की मिट्टी की सोंधी सुगंध से सुवासित होने को उनका मन तड़प रहा है!सचमुच ऊपर से तो उनका कोई दुख नहीं दिखाई देता,किन्तु कुछ दुख ऐसे भी होते हैं,जो दिखलाई तो नहीं देते हैं,परन्तु मन में अंदर-ही-अंदर रिसते रहते हैं।इस बार   जाने पर अपने वतन से वापस न आने का कठोर निर्णय उन्होंने ले लिया था।ऊषा जी अपने निर्णय पर मन-ही-मन सोचती हैं -“कितनी औरतें विधवा हो जाती हैं,वे क्या अपना घर,अपना वतन छोड़कर बेटियों के यहाँ पड़ी रहती हैं?वे अपनी परिस्थितियों से लड़ती हैं,अपने जीवन के नए रास्ते तलाशती हैं।वहीं क्यों सबकुछ रहते हुए इतनी कमजोर होकर आश्रिता की तरह पराए वतन में पड़ी हुईं हैं?जिस देश की मिट्टी में पूरा जीवन बीता,उसी की मिट्टी में .मिल जाना मेरा धर्म है?”

सारी बातें सोचते-सोचते उनके अंतस में एक हूक सी उठती रहती।

कहावत है’जहाँ चाह,वहाँ राह’ वही ऊषाजी के साथ चरितार्थ हो गई।संयोगवश कुछ दिनों बाद  भारत में उनकी भतीजी की शादी तय हो गई। भाई ने सपरिवार आने का आग्रह किया है।अब तो बेटी-दामाद भी जाने से मना नहीं कर सकते थे।बेटी ने आने-जाने का पन्द्रह दिनों का टिकट करवा लिया ,परन्तु ऊषा जी ने इस बार  मन में ठान लिया था कि अपना वतन और घर छोड़कर परदेश नहीं आऊँगी।एक बार उनके मन में ख्याल आया भी कि छोटे बच्चे उनके बिना कैसे रहेंगे? फिर तुरंत ही मन में आई हुई  भावुकता को झटकते हुए  सोचा कि बेटी के पास बहुत पैसे हैं,वह बच्चों के लिए  बेबी सिटी रख लेगी।

कुछ समय बाद  जब ऊषा जी ने अपने वतन की धरती पर कदम रखा तो उन्होंने भावविह्वल होकर अपने वतन की धरती को चूम लिया।भाई-भाभी के मान-सम्मान से उनका गला भर आया।जिन रस्मों-रिवाजों पर पाँच साल से स्मृति-पटल पर धूल  की गर्त जम  चुकी थी,भतीजी की शादी में पुनः पुनर्जीवित  हो उठीं।अपनों को पाकर  उनकी खोई हुईं खुशियाँ हिलोरें लेने लगीं।भतीजी की शादी के बाद  ऊषाजी अपने घर बनारस आ चुकी थीं।किराएदार ने सभी कुछ व्यवस्थित कर रखा था।उसने खुश होते हुए ऊषा जी से कहा -” माँ जी!इस बार यहाँ कितने दिन रहना है?”

ऊषा जी ने तल्ख लहजे में बेटी को सुनाते हुए कहा -” बेटा!अब मैं यहीं रहूँगी।अपना वतन और अपने घर से मैं दूर नहीं रह सकती।”

बेटी ने उनकी बातों को सुनकर लिया।उसने कहा -” माँ! आठ दिनों बाद  हमारी वापसी है।आप बच्चों जैसी जिद्द क्यों करती हो?आप बुढ़ापे में अकेली कैसे रहोगी?”

ऊषा जी -“मैं यहाँ अकेली कहाँ हूँ?यहाँ घर में किराएदार  से लेकर रिश्तेदार तक हैं।अड़ोस-पड़ोस के लोग अच्छे हैं।बची-खुची जिन्दगी कट ही जाएगी।”

बेटी ने फिर से जिद्द करते हुए    आखिरकार अपने मन की बात कहते हुए कहा -“माँ!मेरे बच्चे अभी छोटे हैं।आपके बिना कैसे रहेंगे?”

भावुकता में न बहते हुए  ऊषा जी ने कहा -“बच्चे अब उतने छोटे भी नहीं हैं।बेबी सिटर रख लेना।अब मेरे मन को अपने घर और अपने वतन की मिट्टी में मिलने की चाह है।अब मैं परदेश नहीं जाऊँगी।”

ऊषा जी विदेश न जाने के अपने निर्णय पर अडिग थीं।अगले दिन दामाद ने उन्हें मनाने की काफी कोशिशें की।वह बेटी से तो जिद्द कर सकती थीं,परन्तु दामाद से नहीं।आखिरकार उन्होंने बेमन से बेटी-दामाद के साथ वापस लौटने की मूक-स्वीकृति दे ही दीं।

वापसी के दिन दिल्ली से फ्लाइट थी,इस कारण सभी सुबह-सुबह तैयार  हो रहें थे,परन्तु ऊषा जीअभी तक सोकर नहीं उठी थीं।एक-दो बार  बेटी ने उन्हें उठने की आवाज  दी और खुद बच्चों के साथ तैयार होने चली गई। कुछ देर बाद  वापस आने पर माँ को सोए देखकर झल्लाते हुए कहा -:माँ!जल्दी उठिए। देरी हो रही है।आप भी न बच्चों जैसी जिद्द पकड़कर बैठ जाती हैं!”

परन्तु ऊषा जी उठती भला कैसे?वह तो अपने वतन की आगोश में चिर -निन्द्रा में विलीन हो चुकी थीं।अपने वतन की मिट्टी में मिलकर उनका शरीर फूलों -सा सुवासित हो रहा था।उनके मुखड़े पर अपने वतन का सुकून और सूर्य की लालिमा छाई हुई थी।अपने वतन की मिट्टी में मिलने की उनकी ख्वाहिश बुढ़ापे में पूरी हो चुकी थी।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

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